दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 ( Criminal Procedure Code, 1973 )
-:दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973:-
(1974 का अधिनियम संख्यांक 2)
(अध्याय 1)
-:प्रारंभिक:-
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ-(1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 है ।
(2) इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत पर है:
परंतु इस संहिता के अध्याय 8, 10 और 11 से संबंधित उपबंधों से भिन्न, उपबंध, -
(क) नागालैंड राज्य को;
(ख) जनजाति क्षेत्रों को,लागू नहीं होंगे, किंतु संबद्ध राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा, ऐसे उपबंधों या उनमें से सही को, यथास्थिति, संपूर्ण नागालैंड राज्य या ऐसे जनजाति क्षेत्र अथवा उनके किसी भाग पर ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक या पारिणामिक उपान्तरों सहित लागू कर सकती है जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किए जाएं ।
स्पष्टीकरण-इस धारा में, जनजाति क्षेत्र" से वे राज्यक्षेत्र अभिप्रेत हैं जो 1972 की जनवरी के 21वें दिन के ठीक पहले, संविधान की षष्ठ अनुसूची के पैरा 20 में यथानिर्दिष्ट असम के जनजाति क्षेत्रों में सम्मिलित थे और जो शिलांग नगरपालिका की स्थानीय सीमाओं के भीतर के क्षेत्रों से भिन्न हैं ।
(3) यह 1974 के अप्रैल के प्रथम दिन प्रवृत्त होगा ।
2. परिभाषाएं-इस संहिता में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, -
(क) जमानतीय अपराध" से ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो प्रथम अनुसूची में जमानतीय के रूप में दिखाया गया है या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा जमानतीय बनाया गया है और अजमानतीय अपराध" से कोई अन्य अपराध अभिप्रेत है;
(ख) आरोप" के अंतर्गत, जब आरोप में एक से अधिक शीर्ष हों, आरोप का कोई भी शीर्ष है;
(ग) संज्ञेय अपराध" से ऐसा अपराध अभिप्रेत है जिसके लिए और संज्ञेय मामला" से ऐसा मामला अभिप्रेत है जिसमें, पुलिस अधिकारी प्रथम अनुसूची के या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अनुसार वारण्ट के बिना गिरफ्तार कर सकता है;
(घ) परिवाद" से इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा कार्रवाई किए जाने की दृष्टि से मौखिक या लिखित रूप में उससे किया गया यह अभिकथन अभिप्रेत है कि किसी व्यक्ति ने, चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात, अपराध किया है, किंतु इसके अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट नहीं है ।
स्पष्टीकरण-ऐसे किसी मामले में, जो अन्वेषण के पश्चात् किसी असंज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट करता है, पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट परिवाद समझी जाएगी और वह पुलिस अधिकारी जिसके द्वारा ऐसी रिपोर्ट की गई है, परिवादी समझा जाएगा;
(ङ) उच्च न्यायालय" से अभिप्रेत है, -
(i) किसी राज्य के संबंध में, उस राज्य का उच्च न्यायालय;
(ii) किसी ऐसे संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में जिस पर किसी राज्य के उच्च न्यायालय की अधिकारिता का विस्तार विधि द्वारा किया गया है, वह उच्च न्यायालय;
(iii) किसी अन्य संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में, भारत के उच्चतम न्यायालय से भिन्न, उस संघ राज्यक्षेत्र के लिए दाण्डिक अपील का सर्वोच्च न्यायालय;
(च) भारत" से वे राज्यक्षेत्र अभिप्रेत हैं जिन पर इस संहिता का विस्तार है;
(छ) जांच" से, अभिप्रेत है विचारण से भिन्न, ऐसी प्रत्येक जांच जो इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा की जाए;
(ज) अन्वेषण" के अंतर्गत वे सब कार्यवाहियां हैं जो इस संहिता के अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा या (मजिस्ट्रेट से भिन्न) किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जो मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किया गया है, साक्ष्य एकत्र करने के लिए की जाएं;
(झ) न्यायिक कार्यवाही" के अंतर्गत कोई ऐसी कार्यवाही है जिसके अनुक्रम में साक्ष्य वैध रूप से शपथ पर लिया जाता है या लिया जा सकता है;
(ञ) किसी न्यायालय या मजिस्ट्रेट के संबंध में स्थानीय अधिकारिता" से वह स्थानीय क्षेत्र अभिप्रेत है जिसके भीतर ऐसा न्यायालय या मजिस्ट्रेट इस संहिता के अधीन अपनी सभी या किन्हीं शक्तियों का प्रयोग कर सकता है [और ऐसे स्थानीय क्षेत्र में संपूर्ण राज्य या राज्य का कोई भाग समाविष्ट हो सकता है जो राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे];
(ट) महानगर क्षेत्र" से वह क्षेत्र अभिप्रेत है जो धारा 8 के अधीन महानगर क्षेत्र घोषित किया गया है या घोषित समझा गया है;
(ठ) असंज्ञेय अपराध" से ऐसा अपराध अभिप्रेत है जिसके लिए और असंज्ञेय मामला" से ऐसा मामला अभिप्रेत है जिसमें पुलिस अधिकारी को वारण्ट के बिना गिरफ्तारी करने का प्राधिकार नहीं होता है;
(ड) अधिसूचना" से राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना अभिप्रेत है;
(ढ) अपराध" से कोई ऐसा कार्य या लोप अभिप्रेत है जो तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा दण्डनीय बना दिया गया है और इसके अंतर्गत कोई ऐसा कार्य भी है जिसके बारे में पशु अतिचार अधिनियम, 1871 (1871 का 1) की धारा 20 के अधीन परिवाद किया जा सकता है;
(ण) पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी" के अंतर्गत, जब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी थाने से अनुपस्थित हो या बीमारी या अन्य कारण से अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ हो, तब थाने में उपस्थित ऐसा पुलिस अधिकारी है, जो ऐसे अधिकारी से पंक्ति में ठीक नीचे है और कान्स्टेबल की पंक्ति से ऊपर है, या जब राज्य सरकार ऐसा निदेश दे तब, इस प्रकार उपस्थित कोई अन्य पुलिस अधिकारी भी है ;
(त) स्थान" के अंतर्गत गृह, भवन, तम्बू, यान और जलयान भी है;
(थ) किसी न्यायालय में किसी कार्यवाही के बारे में प्रयोग किए जाने पर प्लीडर" से, ऐसे न्यायालय में तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विधि-व्यवसाय करने के लिए प्राधिकृत व्यक्ति अभिप्रेत है, और इसके अंतर्गत कोई भी अन्य व्यक्ति है, जो ऐसी कार्यवाही में कार्य करने के लिए न्यायालय की अनुज्ञा से नियुक्त किया गया है;
(द) पुलिस रिपोर्ट" से पुलिस अधिकारी द्वारा धारा 173 की उपधारा (2) के अधीन मजिस्ट्रेट को भेजी गई रिपोर्ट अभिप्रेत है;
(ध) पुलिस थाना" से कोई भी चौकी या स्थान अभिप्रेत है जिसे राज्य सरकार द्वारा साधारणतया या विशेषतया पुलिस थाना घोषित किया गया है और इसके अंतर्गत राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट कोई स्थानीय क्षेत्र भी हैं ;
(न) विहित" से इस संहिता के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है ;
(प) लोक अभियोजक" से धारा 24 के अधीन नियुक्त व्यक्ति अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत लोक अभियोजक के निदेशों के अधीन कार्य करने वाला व्यक्ति भी है ;
(फ) उपखण्ड" से जिले का उपखण्ड अभिप्रेत है ;
(ब) समन-मामला" से ऐसा मामला अभिप्रेत है जो किसी अपराध से संबंधित है और जो वारण्ट-मामला नहीं है ;
[(बक) पीड़ित" से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जिसे उस कार्य या लोप के कारण कोई हानि या क्षति कारित हुई है जिसके लिए अभियुक्त व्यक्ति पर आरोप लगाया गया है और पीड़ित" पद के अंतर्गत उसका संरक्षक या विधिक वारिस भी है ;]
(भ) वारण्ट-मामला" से ऐसा मामला अभिप्रेत है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय किसी अपराध से संबंधित है ;
(म) उन शब्दों और पदों के, जो इसमें प्रयुक्त हैं और परिभाषित नहीं हैं किंतु भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) में परिभाषित हैं, वही अर्थ होंगे जो उनके उस संहिता में हैं ।
3. निर्देशों का अर्थ लगाना-(1) इस संहिता में-
(क) विशेषक शब्दों के बिना मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का अर्थ, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,-
(i) महानगर क्षेत्र के बाहर किसी क्षेत्र के संबंध में न्यायिक मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश के रूप में लगाया जाएगा ;
(ii) महानगर क्षेत्र के संबंध में महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश के रूप में लगाया जाएगा ;
(ख) द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का महानगर क्षेत्र के बाहर किसी क्षेत्र के संबंध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के प्रति और महानगर क्षेत्र के संबंध में महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ;
(ग) प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का,-
(i) किसी महानगर क्षेत्र के संबंध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस क्षेत्र में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ;
(ii) किसी अन्य क्षेत्र के संबंध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस क्षेत्र में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ;
(घ) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का किसी महानगर क्षेत्र के संबंध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस क्षेत्र में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ।
(2) इस संहिता में जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय के प्रति निर्देश का महानगर क्षेत्र के संबंध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस क्षेत्र के महानगर मजिस्ट्रेट के न्यायालय के प्रति निर्देश है ।
(3) जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो इस संहिता के प्रारंभ के पूर्व पारित किसी अधिनियमिति में, -
(क) प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ;
(ख) द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट या तृतीय वर्ग मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ;
(ग) प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट या मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह क्रमशः महानगर मजिस्ट्रेट या मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ;
(घ) महानगर क्षेत्र में सम्मिलित किसी क्षेत्र के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह ऐसे महानगर क्षेत्र के प्रति निर्देश है, और प्रथम वर्ग या द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का ऐसे क्षेत्र के संबंध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस क्षेत्र में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ।
(4) जहां इस संहिता से भिन्न किसी विधि के अधीन, किसी मजिस्ट्रेट द्वारा किए जा सकने वाले कृत्य ऐसे मामलों से संबंधित हैं, -
(क) जिनमें साक्ष्य का अधिमूल्यन अथवा सूक्ष्म परीक्षण या कोई ऐसा विनिश्चय करना अंतर्वलित है जिससे किसी व्यक्ति को किसी दंड या शास्ति की अथवा अन्वेषण, जांच या विचारण होने तक अभिरक्षा में निरोध की संभावना हो सकती है या जिसका प्रभाव उसे किसी न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए भेजना होगा, वहां वे कृत्य इस संहिता के उपबंधों के अधीन रहते हुए न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा किए जा सकते हैं ; या
(ख) जो प्रशासनिक या कार्यपालक प्रकार के हैं जैसे अनुज्ञप्ति का अनुदान, अनुज्ञप्ति का निलंबन या रद्द किया जाना, अभियोजन की मंजूरी या अभियोजन वापस लेना, वहां वे यथापूर्वोक्त के अधीन रहते हुए, कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा किए जा सकते हैं ।
4. भारतीय दंड संहिता और अन्य विधियों के अधीन अपराधों का विचार-(1) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अधीन सब अपराधों का अन्वेषण, जांच, विचारण और उनके संबंध में अन्य कार्यवाही इसमें इसके पश्चात् अन्तर्विष्ट उपबंधों के अनुसार की जाएगी ।
(2) किसी अन्य विधि के अधीन सब अपराधों का अन्वेषण, जांच, विचारण और उनके संबंध में अन्य कार्यवाही इन्हीं उपबंधों के अनुसार किंतु ऐसे अपराधों के अन्वेषण, जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही की रीति या स्थान का विनियमन करने वाली तत्समय प्रवृत्त किसी अधिनियमिति के अधीन रहते हुए, की जाएगी ।
5. व्यावृत्ति-इससे प्रतिकूल किसी विनिर्दिष्ट उपबंध के अभाव में इस संहिता की कोई बात तत्समय प्रवृत्त किसी विशेष या स्थानीय विधि पर, या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा प्रदत्त किसी विशेष अधिकारिता या शक्ति या उस विधि द्वारा विहित किसी विशेष प्रक्रिया पर प्रभाव नहीं डालेगी ।
अध्याय 2
दंड न्यायालयों और कार्यालयों का गठन
6. दंड न्यायालयों के वर्ग-उच्च न्यायालयों और इस संहिता से भिन्न किसी विधि के अधीन गठित न्यायालयों के अतिरिक्त, प्रत्येक राज्य में निम्नलिखित वर्गों के दंड न्यायालय होंगे, अर्थात् :-
(i) सेशन न्यायालय ;
(ii) प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट और किसी महानगर क्षेत्र में महानगर मजिस्ट्रेट ;
(iii) द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट ; और
(iv) कार्यपालक मजिस्ट्रेट ।
7. प्रादेशिक खंड-(1) प्रत्येक राज्य एक सेशन खंड होगा या उसमें सेशन खंड होंगे और इस संहिता के प्रयोजनों के लिए प्रत्येक सेशन खंड एक जिला होगा या उसमें जिले होंगे :
परंतु प्रत्येक महानगर क्षेत्र, उक्त प्रयोजनों के लिए, एक पृथक् सेशन खंड और जिला होगा ।
(2) राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात्, ऐसे खंडों और जिलों की सीमाओं या संख्या में परिवर्तन कर सकती है ।
(3) राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात्, किसी जिले को उपखंडों में विभाजित कर सकती है और ऐसे उपखंडों की सीमाओं या संख्या में परिवर्तन कर सकती है ।
(4) किसी राज्य में इस संहिता के प्रारंभ के समय विद्यमान सेशन खंड, जिले और उपखंड इस धारा के अधीन बनाए गए समझे जाएंगे ।
8. महानगर क्षेत्र-(1) राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, घोषित कर सकती है कि उस तारीख से ; जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाए, राज्य का कोई क्षेत्र जिसमें ऐसा नगर या नगरी समाविष्ट है जिसकी जनसंख्या दस लाख से अधिक है, इस संहिता के प्रयोजनों के लिए महानगर क्षेत्र होगा ।
(2) इस संहिता के प्रारंभ से, मुंबई, कलकत्ता और मद्रास प्रेसिडेन्सी नगरों में से प्रत्येक और अहमदाबाद नगर, उपधारा (1) के अधीन महानगर क्षेत्र घोषित किए गए समझे जाएंगे ।
(3) राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, महानगर क्षेत्र की सीमाओं को बढ़ा सकती है, कम कर सकती है या परिवर्तित कर सकती है, किंतु ऐसी कमी या परिवर्तन इस प्रकार नहीं किया जाएगा कि उस क्षेत्र की जनसंख्या दस लाख से कम रह जाए ।
(4) जहां किसी क्षेत्र के महानगर क्षेत्र घोषित किए जाने या घोषित समझे जाने के पश्चात् ऐसे क्षेत्र की जनसंख्या दस लाख से कम हो जाती है वहां ऐसा क्षेत्र, ऐसी तारीख को और उससे, जो राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, महानगर क्षेत्र नहीं रहेगा ; किंतु महानगर क्षेत्र न रहने पर भी ऐसी जांच, विचारण या अपील जो ऐसे न रहने के ठीक पहले ऐसे क्षेत्र में किसी न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित थी इस संहिता के अधीन इस प्रकार निपटाई जाएगी मानो वह महानगर क्षेत्र हो ।
(5) जहां राज्य सरकार उपधारा (3) के अधीन, किसी महानगर क्षेत्र की सीमाओं को कम करती है या परिवर्तित करती है वहां ऐसी जांच, विचारण या अपील पर जो ऐसे कम करने या परिवर्तन के ठीक पहले किसी न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित थी ऐसे कम करने या परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं होगा और ऐसी प्रत्येक जांच, विचारण या अपील इस संहिता के आधीन उसी प्रकार निपटाई जाएगी मानो ऐसी कमी या परिवर्तन न हुआ हो ।
स्पष्टीकरण-इस धारा में, जनसंख्या" पद से नवीनतम पूर्ववर्ती जनगणना में यथा अभिनिश्चित वह जनसंख्या अभिप्रेत है जिसके सुसंगत आंकड़े प्रकाशित हो चुके हैं ।
9. सेशन न्यायालय-(1) राज्य सरकार प्रत्येक सेशन खंड के लिए एक सेशन न्यायालय स्थापित करेगी ।
(2) प्रत्येक सेशन न्यायालय में एक न्यायाधीश पीठासीन होगा, जो उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किया जाएगा ।
(3) उच्च न्यायालय अपर सेशन न्यायाधीशों और सहायक सेशन न्यायाधीशों को भी सेशन न्यायालय में अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए नियुक्त कर सकता है ।
(4) उच्च न्यायालय द्वारा एक सेशन खंड के सेशन न्यायाधीश को दूसरे खंड का अपर सेशन न्यायाधीश भी नियुक्त किया जा सकता है और ऐसी अवस्था में वह मामलों को निपटाने के लिए दूसरे खंड के ऐसे स्थान या स्थानों में बैठ सकता है जिनका उच्च न्यायालय निदेश दे ।
(5) जहां किसी सेशन न्यायाधीश का पद रिक्त होता है वहां उच्च न्यायालय किसी ऐसे अर्जेन्ट आवेदन के, जो उस सेशन न्यायालय के समक्ष किया जाता है या लंबित है, अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश द्वारा, अथवा यदि अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश नहीं है तो सेशन खंड के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा निपटाए जाने के लिए व्यवस्था कर सकता है और ऐसे प्रत्येक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को ऐसे आवेदन पर कार्यवाही करने की अधिकारिता होगी ।
(6) सेशन न्यायालय सामान्यतः अपनी बैठक ऐसे स्थान या स्थानों पर करेगा जो उच्च न्यायालय अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे ; किंतु यदि किसी विशेष मामले में, सेशन न्यायालय की यह राय है कि सेशन खंड में किसी अन्य स्थान में बैठक करने से पक्षकारों और साक्षियों को सुविधा होगी तो वह, अभियोजन और अभियुक्त की सहमति से उस मामले को निपटाने के लिए या उसमें साक्षी या साक्षियों की परीक्षा करने के लिए उस स्थान पर बैठक कर सकता है ।
स्पष्टीकरण-इस संहिता के प्रयोजनों के लिए नियुक्ति" के अंतर्गत सरकार द्वारा संघ या राज्य के कार्यकलापों के संबंध में किसी सेवा या पद पर किसी व्यक्ति की प्रथम नियुक्ति, पद-स्थापना या पदोन्नति नहीं है जहां किसी विधि के अधीन ऐसी नियुक्ति, पद-स्थापना या पदोन्नति सरकार द्वारा किए जाने के लिए अपेक्षित है ।
10. सहायक सेशन न्यायाधीशों का अधीनस्थ होना-(1) सब सहायक सेशन न्यायाधीश उस सेशन न्यायाधीश के अधीनस्थ होंगे जिसके न्यायालय में वे अधिकारिता का प्रयोग करते हैं ।
(2) सेशन न्यायाधीश ऐसे सहायक सेशन न्यायाधीशों में कार्य के वितरण के बारे में इस संहिता से संगत नियम, समय-समय पर बना सकता है ।
(3) सेशन न्यायाधीश, अपनी अनुपस्थिति में या कार्य करने में असमर्थता की स्थिति में, किसी अर्जेण्ट आवेदन के अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश द्वारा, या यदि कोई अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश न हो तो, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा निपटाए जाने के लिए भी व्यवस्था कर सकता है ; और यह समझा जाएगा कि ऐसे प्रत्येक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को ऐसे आवेदन पर कार्यवाही करने की अधिकारिता है ।
11. न्यायिक मजिस्ट्रेटों के न्यायालय-(1) प्रत्येक जिले में (जो महानगर क्षेत्र नहीं है) प्रथम वर्ग और द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेटों के इतने न्यायालय, ऐसे स्थानों में स्थापित किए जाएंगे जितने और जो राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात् अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे :
[परंतु राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात् किसी स्थानीय क्षेत्र के लिए, प्रथम वर्ग या द्वितीय वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेट के एक या अधिक विशेष न्यायालय, किसी विशेष मामले या विशेष वर्ग के मामलों का विचारण करने के लिए स्थापित कर सकती है और जहां कोई ऐसा विशेष न्यायालय स्थापित किया जाता है उस स्थानीय क्षेत्र में मजिस्ट्रेट के किसी अन्य न्यायालय को किसी ऐसे मामले या ऐसे वर्ग के मामलों का विचारण करने की अधिकारिता नहीं होगी, जिनके विचारण के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट का ऐसा विशेष न्यायालय स्थापित किया गया है ।]
(2) ऐसे न्यायालयों के पीठासीन अधिकारी उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किए जाएंगे ।
(3) उच्च न्यायालय, जब कभी उसे यह समीचीन या आवश्यक प्रतीत हो, किसी सिविल न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्यरत राज्य की न्यायिक सेवा के किसी सदस्य को प्रथम वर्ग या द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट की शक्तियां प्रदान कर सकता है ।
12. मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, आदि-(1) उच्च न्यायालय, प्रत्येक जिले में (जो महानगर क्षेत्र नहीं है) एक प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नियुक्त करेगा ।
(2) उच्च न्यायालय किसी प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट को अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नियुक्त कर सकता है और ऐसे मजिस्ट्रेट को इस संहिता के अधीन या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की सब या कोई शक्तियां, जिनका उच्च न्यायालय निदेश दे, होंगी ।
(3) (क) उच्च न्यायालय आवश्यकतानुसार किसी उपखंड में किसी प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट को उपखंड न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में पदाभिहित कर सकता है और उसे इस धारा में विनिर्दिष्ट उत्तरदायित्वों से मुक्त कर सकता है ।
(ख) प्रत्येक उपखंड न्यायिक मजिस्ट्रेट को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के साधारण नियंत्रण के अधीन रहते हुए उपखंड में (अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटों से भिन्न) न्यायिक मजिस्ट्रेटों के काम पर पर्यवेक्षण और नियंत्रण की ऐसी शक्तियां भी होंगी, जैसी उच्च न्यायालय साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, और वह उनका प्रयोग करेगा ।
13. विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट-(1) यदि केंद्रीय या राज्य सरकार उच्च न्यायालय से ऐसा करने के लिए अनुरोध करती है तो उच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को जो सरकार के अधीन कोई पद धारण करता है या जिसने कोई पद धारण किया है, [किसी स्थानीय क्षेत्र में, जो महानगर क्षेत्र नहीं है, विशेष मामलों या विशेष वर्ग के मामलों के संबंध में] द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट को इस संहिता द्वारा या उसके अधीन प्रदत्त या प्रदत्त की जा सकने वाली सभी या कोई शक्तियां प्रदत्त कर सकता है :
परंतु ऐसी कोई शक्ति किसी व्यक्ति को प्रदान नहीं की जाएगी जब तक उसके पास विधिक मामलों के संबंध में ऐसी अर्हता या अनुभव नहीं है जो उच्च न्यायालय, नियमों द्वारा विनिर्दिष्ट करे ।
(2) ऐसे मजिस्ट्रेट विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट कहलाएंगे और एक समय में एक वर्ष से अनधिक की इतनी अवधि के लिए नियुक्त किए जाएंगे जितनी उच्च न्यायालय, साधारण या विशेष आदेश द्वारा निर्दिष्ट करे ।
[(3) उच्च न्यायालय किसी विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट को अपनी स्थानीय अधिकारिता के बाहर के किसी महानगर क्षेत्र के संबंध में महानगर मजिस्ट्रेट की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए सशक्त कर सकता है ।]
14. न्यायिक मजिस्ट्रेटों की स्थानीय अधिकारिता-(1) उच्च न्यायालय के नियंत्रण के अधीन रहते हुए, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, समय-समय पर उन क्षेत्रों की स्थानीय सीमाएं परिनिश्चित कर सकता है जिनके अंदर धारा 11 या धारा 13 के अधीन नियुक्त मजिस्ट्रेट उन सब शक्तियों का या उनमें से किन्हीं का प्रयोग कर सकेंगे, जो इस संहिता के अधीन उनमें निहित की जाएं :
[परंतु विशेष मजिस्ट्रेट का न्यायालय उस स्थानीय क्षेत्र के भीतर, जिसके लिए वह स्थापित किया गया है, किसी स्थान में अपनी बैठक कर सकता है ।]
(2) ऐसे परिनिश्चय द्वारा जैसा उपबंधित है उसके सिवाय प्रत्येक ऐसे मजिस्ट्रेट की अधिकारिता और शक्तियों का विस्तार जिले में सर्वत्र होगा ।
[(3) जहां धारा 11 या धारा 13 या धारा 18 के अधीन नियुक्त मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता का विस्तार, यथास्थिति, उस जिले या महानगर क्षेत्र के, जिसके भीतर वह मामूली तौर पर अपनी बैठकें करता है, बाहर किसी क्षेत्र तक है वहां इस संहिता में सेशन न्यायालय, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का ऐसे मजिस्ट्रेट के संबंध में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उसकी स्थानीय अधिकारिता के संपूर्ण क्षेत्र के भीतर उक्त जिला या महानगर क्षेत्र के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले, यथास्थिति, सेशन न्यायालय, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है ।]
15. न्यायिक मजिस्ट्रेटों का अधीनस्थ होना-(1) प्रत्येक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायाधीश के अधीनस्थ होगा और प्रत्येक अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायाधीश के साधारण नियंत्रण के अधीन रहते हुए, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ होगा ।
(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अपने अधीनस्थ न्यायिक मजिस्ट्रेटों में कार्य के वितरण के बारे में, समय-समय पर, इस संहिता से संगत नियम बना सकता है या विशेष आदेश दे सकता है ।
16. महानगर मजिस्ट्रेटों के न्यायालय-(1) प्रत्येक महानगर क्षेत्र में महानगर मजिस्ट्रेटों के इतने न्यायालय, ऐसे स्थानों में स्थापित किए जाएंगे जितने और जो राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात्, अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे ।
(2) ऐसे न्यायालयों के पीठासीन अधिकारी उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किए जाएंगे ।
(3) प्रत्येक महानगर मजिस्ट्रेट की अधिकारिता और शक्तियों का विस्तार महानगर क्षेत्र में सर्वत्र होगा ।
17. मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट और अपर मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट-(1) उच्च न्यायालय अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर प्रत्येक महानगर क्षेत्र के संबंध में एक महानगर मजिस्ट्रेट को ऐसे महानगर क्षेत्र का मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट नियुक्त करेगा ।
(2) उच्च न्यायालय किसी महानगर मजिस्ट्रेट को अपर मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट नियुक्त कर सकता है, और ऐसे मजिस्ट्रेट को, इस संहिता के अधीन या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट की सब या कोई शक्तियां, जिनका उच्च न्यायालय निदेश दे, होंगी ।
18. विशेष महानगर मजिस्ट्रेट-(1) यदि केंद्रीय या राज्य सरकार उच्च न्यायालय से ऐसा करने के लिए अनुरोध करती है तो उच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को जो सरकार के अधीन कोई पद धारण करता है या जिसने कोई पद धारण किया है, अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर किसी महानगर क्षेत्र में विशेष मामलों के या विशेष वर्ग के मामलों के ॥। संबंध में महानगर मजिस्ट्रेट को इस संहिता द्वारा या उसके अधीन प्रदत्त या प्रदत्त की जा सकने वाली सभी या कोई शक्तियां प्रदत्त कर सकता है :
परंतु ऐसी कोई शक्ति किसी व्यक्ति को प्रदान नहीं की जाएगी जब तक उसके पास विधिक मामलों के संबंध में ऐसी अर्हता या अनुभव नहीं है जो उच्च न्यायालय, नियमों द्वारा विनिर्दिष्ट करे ।
(2) ऐसे मजिस्ट्रेट विशेष महानगर मजिस्ट्रेट कहलाएंगे और एक समय में एक वर्ष से अनधिक की इतनी अवधि के लिए नियुक्त किए जाएंगे जितनी उच्च न्यायालय, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, निर्दिष्ट करे ।
[(3) यथास्थिति, उच्च न्यायालय या राज्य सरकार किसी महानगर मजिस्ट्रेट को, महानगर क्षेत्र के बाहर किसी स्थानीय क्षेत्र में प्रथम वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए सशक्त कर सकती है ।]
19. महानगर मजिस्ट्रेटों का अधीनस्थ होना-(1) मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट और प्रत्येक अपर मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट सेशन न्यायाधीश के अधीनस्थ होगा और प्रत्येक अन्य महानगर मजिस्ट्रेट सेशन न्यायाधीश के साधारण नियंत्रण के अधीन रहते हुए मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ होगा ।
(2) उच्च न्यायालय, इस संहिता के प्रयोजनों के लिए परिनिश्चित कर सकेगा कि अपर मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट किस विस्तार तक, यदि कोई हो, मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ होगा ।
(3) मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट महानगर मजिस्ट्रेटों में कार्य के वितरण के बारे में और अपर मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट को कार्य के आबंटन के बारे में, समय-समय पर, इस संहिता से संगत नियम बना सकेगा या विशेष आदेश दे सकेगा ।
20. कार्यपालक मजिस्ट्रेट-(1) राज्य सरकार प्रत्येक जिले और प्रत्येक महानगर क्षेत्र में उतने व्यक्तियों को, जितने वह उचित समझे, कार्यपालक मजिस्ट्रेट नियुक्त कर सकती है और उनमें से एक को जिला मजिस्ट्रेट नियुक्त करेगी ।
(2) राज्य सरकार किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट को अपर जिला मजिस्ट्रेट नियुक्त कर सकेगी, और ऐसे मजिस्ट्रेट को इस संहिता के अधीन या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन जिला मजिस्ट्रेट की [वेट शक्तियां होंगी, [जो राज्य सरकार निर्दिष्ट करे] ।
(3) जब कभी किसी जिला मजिस्ट्रेट के पद की रिक्ति के परिणामस्वरूप कोई अधिकारी उस जिले के कार्यपालक प्रशासन के लिए अस्थायी रूप से उत्तरवर्ती होता है तो ऐसा अधिकारी, राज्य सरकार द्वारा आदेश दिए जाने तक, क्रमशः उन सभी शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करेगा जो उस संहिता द्वारा जिला मजिस्ट्रेट को प्रदत्त या उस पर अधिरोपित हों ।
(4) राज्य सरकार आवश्यकतानुसार किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट को उपखंड का भारसाधक बना सकती है और उसको भारसाधन से मुक्त कर सकती है और इस प्रकार किसी उपखंड का भारसाधक बनाया गया मजिस्ट्रेट उपखंड मजिस्ट्रेट कहलाएगा ।
[(4क) राज्य सरकार, साधारण या विशेष आदेश द्वारा और ऐसे नियंत्रण और निदेशों के अधीन रहते हुए, जो वह अधिरोपित करना ठीक समझे, उपधारा (4) के अधीन अपनी शक्तियां, जिला मजिस्ट्रेट को प्रत्यायोजित कर सकेगी ।]
(5) इस धारा की कोई बात तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन, महानगर क्षेत्र के संबंध में कार्यपालक मजिस्ट्रेट की सब शक्तियां या उनमें से कोई शक्ति पुलिस आयुक्त को प्रदत्त करने से राज्य सरकार को प्रवारित नहीं करेगी ।
21. विशेष कार्यपालक मजिस्ट्रेट-(1) राज्य सरकार विशिष्ट क्षेत्रों के लिए या विशिष्ट कृत्यों का पालन करने के लिए कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को, जो विशेष कार्यपालक मजिस्ट्रेट के रूप में ज्ञात होंगे, इतनी अवधि के लिए जितनी वह उचित समझे, नियुक्त कर सकती है और इस संहिता के अधीन कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को प्रदत्त की जा सकने वाली शक्तियों में से ऐसी शक्तियां, जिन्हें वह उचित समझे, इन विशेष कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को प्रदत्त कर सकती है ।
22. कार्यपालक मजिस्ट्रेटों की स्थानीय अधिकारिता-(1) राज्य सरकार के नियंत्रण के अधीन रहते हुए जिला मजिस्ट्रेट, समय-समय पर, उन क्षेत्रों की स्थानीय सीमाएं परिनिश्चित कर सकता है जिनके अंदर कार्यपालक मजिस्ट्रेट उन सब शक्तियों का या उनमें से किन्हीं का प्रयोग कर सकेंगे, जो इस संहिता के अधीन उनमें निहित की जाएं ।
(2) ऐसे परिनिश्चय द्वारा जैसा उपबंधित है उनके सिवाय, प्रत्येक ऐसे मजिस्ट्रेट की अधिकारिता और शक्तियों का विस्तार जिले में सर्वत्र होगा ।
23. कार्यपालक मजिस्ट्रेटों का अधीनस्थ होना-(1) अपर जिला मजिस्ट्रेटों से भिन्न सब कार्यपालक मजिस्ट्रेट, जिला मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ होंगे और (उपखंड मजिस्ट्रेट से भिन्न) प्रत्येक कार्यपालक मजिस्ट्रेट, जो उपखंड में शक्ति का प्रयोग कर रहा है, जिला मजिस्ट्रेट के साधारण नियंत्रण के अधीन रहते हुए, उपखंड मजिस्ट्रेट के भी अधीनस्थ होगा ।
(2) जिला मजिस्ट्रेट अपने अधीनस्थ कार्यपालक मजिस्ट्रेटों में कार्य के वितरण के बारे में और अपर जिला मजिस्ट्रेट को कार्य के आबंटन के बारे में समय-समय पर इस संहिता से संगत नियम बना सकता है या विशेष आदेश दे सकता है ।
[24. लोक अभियोजक-(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय के लिए, केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार उस उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात्, यथास्थिति, केंद्रीय या राज्य सरकार की ओर से उस उच्च न्यायालय में किसी अभियोजन, अपील या अन्य कार्यवाही के संचालन के लिए एक लोक अभियोजक नियुक्त करेगी और एक या अधिक अपर लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है ।
(2) केंद्रीय सरकार किसी जिले या स्थानीय क्षेत्र में किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों के संचालन के प्रयोजनों के लिए एक या अधिक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है ।
(3) प्रत्येक जिले के लिए, राज्य सरकार एक लोक अभियोजक नियुक्त करेगी और जिले के लिए एक या अधिक अपर लोक अभियोजक भी नियुक्त कर सकती है :
परंतु एक जिले के लिए नियुक्त लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक किसी अन्य जिले के लिए भी, यथास्थिति, लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किया जा सकता है ।
(4) जिला मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायाधीश के परामर्श से, ऐसे व्यक्तियों के नामों का एक पैनल तैयार करेगा जो, उसकी राय में, उस जिले के लिए लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किए जाने के योग्य है ।
(5) कोई व्यक्ति राज्य सरकार द्वारा उस जिले के लिए लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त नहीं किया जाएगा जब तक कि उसका नाम उपधारा (4) के अधीन जिला मजिस्ट्रेट द्वारा तैयार किए गए नामों के पैनल में न हो ।
(6) उपधारा (5) में किसी बात के होते हुए भी, जहां किसी राज्य में अभियोजन अधिकारियों का नियमित काडर है वहां राज्य सरकार ऐसा काडर, गठित करने वाले व्यक्तियों में से ही लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त करेगी :
परंतु जहां राज्य सरकार की राय में ऐसे काडर में से कोई उपयुक्त व्यक्ति नियुक्ति के लिए उपलब्ध नहीं है वहां राज्य सरकार उपधारा (4) के अधीन जिला मजिस्ट्रेट द्वारा तैयार किए गए नामों के पैनल में से, यथास्थिति, लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक के रूप में किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है ।
[स्पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए,-
(क) अभियोजन अधिकारियों का नियमित काडर" से अभियोजन अधिकारियों का वह काडर अभिप्रेत है, जिसमें लोक अभियोजक का, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, पद सम्मिलित है और जिसमें उस पद पर सहायक लोक अभियोजक की, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, पदोन्नति के लिए उपबंध किया गया है ;
(ख) अभियोजन अधिकारी" से लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक के कृत्यों का पालन करने के लिए इस संहिता के अधीन नियुक्त किया गया व्यक्ति अभिप्रेत है, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो ।]
(7) कोई व्यक्ति उपधारा (1) या उपधारा (2) या उपधारा (3) या उपधारा (6) के अधीन लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किए जाने का पात्र तभी होगा जब वह कम से कम सात वर्ष तक अधिववक्ता के रूप में विधि व्यवसाय करता रहा हो ।
(8) केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों के प्रयोजनों के लिए किसी अधिवक्ता को, जो कम से कम दस वर्ष तक विधि व्यवसाय करता रहा हो, विशेष लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है :
[परंतु न्यायालय इस उपधारा के अधीन पीड़ित को, अभियोजन की सहायता करने के लिए अपनी पसंद का अधिववक्ता रखने के लिए अनुज्ञात कर सकेगा ।]
(9) उपधारा (7) और उपधारा (8) के प्रयोजनों के लिए उस अवधि के बारे में, जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने प्लीडर के रूप में विधि व्यवसाय किया है या लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक या अन्य अभियोजन अधिकारी के रूप में, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, सेवाएं की हैं (चाहे इस संहिता के प्रारंभ के पहले की गई हों या पश्चात्) यह समझा जाएगा कि वह ऐसी अवधि है जिसके दौरान ऐसे व्यक्ति ने अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय किया है ।]
25. सहायक लोक अभियोजक-(1) राज्य सरकार प्रत्येक जिले में मजिस्ट्रेटों के न्यायालयों में अभियोजन का संचालन करने के लिए एक या अधिक सहायक लोक अभियोजक नियुक्त करेगी ।
[(1क) केंद्रीय सरकार मजिस्ट्रेट के न्यायालय में किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों के संचालन के प्रयोजनों के लिए एक या अधिक सहायक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है ।]
(2) जैसा उपधारा (3) में उपबंधित है उसके सिवाय, कोई पुलिस अधिकारी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त होने का पात्र नहीं होगा ।
(3) जहां कोई सहायक लोक अभियोजक किसी विशिष्ट मामले के प्रयोजनों के लिए उपलभ्य नहीं है वहां जिला मजिस्ट्रेट किसी अन्य व्यक्ति को उस मामले का भारसाधक सहायक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकता है :
परंतु कोई पुलिस अधिकारी इस प्रकार नियुक्त नहीं किया जाएगा-
(क) यदि उसने उस अपराध के अन्वेषण में कोई भाग लिया है, जिसके बारे में आयुक्त अभियोजित किया जा रहा है, या
(ख) यदि वह निरीक्षक की पंक्ति से नीचे का है ।
[25क. अभियोजन निदेशालय-(1) राज्य सरकार एक अभियोजन निदेशालय स्थापित कर सकेगी, जिसमें एक अभियोजन निदेशक और उतने अभियोजन उप-निदेशक होंगे, जितने वह ठीक समझे ।
(2) कोई व्यक्ति अभियोजन निदेशक या अभियोजन उप निदेशक के रूप में नियुक्ति के लिए केवल तभी पात्र होगा यदि वह अधिववक्ता के रूप में कम-से-कम दस वर्ष तक व्यवसाय में रहा है और ऐसी नियुक्ति उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति की सहमति से की जाएगी ।
(3) अभियोजन निदेशालय का प्रधान अभियोजन निदेशक होगा, जो राज्य में गृह विभाग के प्रधान के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन कृत्य करेगा ।
(4) प्रत्येक अभियोजन उप निदेशक, अभियोजन निदेशक के अधीनस्थ होगा ।
(5) राज्य सरकार द्वारा धारा 24 की, यथास्थिति, उपधारा (1) या उपधारा (8) के अधीन, उच्च न्यायालयों में मामलों का संचालन करने के लिए नियुक्त किया गया प्रत्येक लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक और विशेष लोक अभियोजक, जो अभियोजन निदेशक के अधीनस्थ होगा ।
(6) राज्य सरकार द्वारा, धारा 24 की, यथास्थिति, उपधारा (3) या उपधारा (8) के अधीन जिला न्यायालयों में मामलों का संचालन करने के लिए नियुक्त किया गया प्रत्येक लोक अभियोजक, अपर लोक अभियोजक और विशेष लोक अभियोजक, और जो धारा 25 की उपधारा (1) के अधीन नियुक्त किया गया प्रत्येक सहायक लोक अभियोजक, जो अभियोजन उप निदेशक के अधीनस्थ होगा ।
(7) अभियोजन निदेशक और अभियोजन उप निदेशकों की शक्तियां तथा कृत्य तथा वे क्षेत्र जिनके लिए प्रत्येक अभियोजन निदेशक नियुक्त किया जाएगा, वे होंगे जो राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, विनिर्दिष्ट करे ।
(8) लोक अभियोजक के कृत्यों का पालन करने में, इस धारा के उपबंध राज्य के महाधिवक्ता को लागू नहीं होंगे ।]
अध्याय 3
न्यायालयों की शक्ति
26. न्यायालय, जिनके द्वारा अपराध विचारणीय हैं-इस संहिता के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए,-
(क) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अधीन किसी अपराध का विचारण-
(i) उच्च न्यायालय द्वारा किया जा सकता है, या
(ii) सेशन न्यायालय द्वारा किया जा सकता है, या
(iii) किसी अन्य ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसके द्वारा उसका विचारणीय होना प्रथम अनुसूची में दर्शित किया गया है :
[परंतु [भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ या धारा 376ङ] के अधीन किसी अपराध का विचारण यथासाध्य ऐसे न्यायालय द्वारा किया जाएगा, जिसमें महिला पीठासीन हो ;]
(ख) किसी अन्य विधि के अधीन किसी अपराध का विचारण, जब उस विधि में इस निमित्त कोई न्यायालय उल्लिखित है, तब उस न्यायालय द्वारा किया जाएगा और जब कोई न्यायालय इस प्रकार उल्लिखित नहीं है तब-
(i) उच्च न्यायालय द्वारा किया जा सकता है, या
(ii) किसी अन्य ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसके द्वारा उसका विचारणीय होना प्रथम अनुसूची में दर्शित किया गया है ।
27. किशोरों के मामलों में अधिकारिता-किसी ऐसे अपराध का विचारण, जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं है और जो ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया है, जिसकी आयु उस तारीख को, जब वह न्यायालय के समक्ष हाजिर हो या लाया जाए, सोलह वर्ष से कम है, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय द्वारा या किसी ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसे बालक अधिनियम, 1960 (1960 का 60) या किशोर अपराधियों के उपचार, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए उपबंध करने वाली तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन विशेष रूप से सशक्त किया गया है ।
28. दंडादेश, जो उच्च न्यायालय और सेशन न्यायाधीश दे सकेंगे-(1) उच्च न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई दंडादेश दे सकता है ।
(2) सेशन न्यायाधीश या अपर सेशन न्यायाधीश विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंडादेश दे सकता है ; किंतु उसके द्वारा दिए गए मृत्यु दंडादेश के उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किए जाने की आवश्यकता होगी ।
(3) सहायक सेशन न्यायाधीश मृत्यु या आजीवन कारावास या दस वर्ष से अधिक की अवधि के लिए कारावास के दंडादेश के सिवाय कोई ऐसा दंडादेश दे सकता है जो विधि द्वारा प्राधिकृत है ।
29. दंडादेश, जो मजिस्ट्रेट दे सकेंगे-(1) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय मृत्यु या आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक की अवधि के लिए कारावास के दंडादेश के सिवाय कोई ऐसा दंडादेश दे सकता है जो विधि द्वारा प्राधिकृत है ।
(2) प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट का न्यायालय तीन वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास का या [दस हजार रुपए] से अनधिक जुर्माने का, या दोनों का, दंडादेश दे सकता है ।
(3) द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट का न्यायालय एक वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास का या [पांच हजार रुपए] से अनधिक जुर्माने का, या दोनों का, दंडादेश दे सकता है ।
(4) मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के न्यायालय को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय की शक्तियां और महानगर मजिस्ट्रेट के न्यायालय को प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट की शक्तियां होंगी ।
30. जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर कारावास का दंडादेश-(1) किसी मजिस्ट्रेट का न्यायालय जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर इतनी अवधि का कारावास अधिनिर्णीत कर सकता है जो विधि द्वारा प्राधिकृत है :
परंतु वह अवधि-
(क) धारा 29 के अधीन मजिस्ट्रेट की शक्ति से अधिक नहीं होगी ;
(ख) जहां कारावास मुख्य दंडादेश के भाग के रूप में अधिनिर्णीत किया गया है, वहां वह उस कारावास की अवधि के चौथाई से अधिक न होगी जिसको मजिस्ट्रेट उस अपराध के लिए, न कि जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर दंड के तौर पर, देने के लिए सक्षम है ।
(2) इस धारा के अधीन अधिनिर्णीत कारावास उस मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 29 के अधीन अधिनिर्णीत की जा सकने वाली अधिकतम अवधि के कारावास के मुख्य दंडादेश के अतिरिक्त हो सकता है ।
31. एक ही विचारण में कई अपराधों के लिए दोषसिद्ध होने के मामलों में दंडादेश-(1) जब एक विचारण में कोई व्यक्ति दो या अधिक अपराधों के लिए दोषसिद्ध किया जाता है तब, भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 71 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, न्यायालय उसे उन अपराधों के लिए विहित विभिन्न दंडों में से उन दंडों के लिए, जिन्हें देने के लिए ऐसा न्यायालय सक्षम है, दंडादेश दे सकता है ; जब ऐसे दंड कारावास के रूप में हों तब, यदि न्यायालय ने यह निदेश न दिया हो कि ऐसे दंड साथ-साथ भोगे जाएंगे, तो वे ऐसे क्रम से एक के बाद एक प्रारंभ होंगे जिसका न्यायालय निदेश दे ।
(2) दंडादेशों के क्रमवर्ती होने की दशा में केवल इस कारण से कि कई अपराधों के लिए संकलित दंड उस दंड से अधिक है जो वह न्यायालय एक अपराध के लिए दोषसिद्धि पर देने के लिए सक्षम है, न्यायालय के लिए यह आवश्यक नहीं होगा कि अपराधी को उच्चतर न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए भेजे :
परंतु-
(क) किसी भी दशा में ऐसा व्यक्ति चौदह वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास के लिए दंडादिष्ट नहीं किया जाएगा ;
(ख) संकलित दंड उस दंड की मात्रा के दुगने से अधिक न होगा जिसे एक अपराध के लिए देने के लिए वह न्यायालय सक्षम है ।
(3) किसी सिद्धदोष व्यक्ति द्वारा अपील के प्रयोजन के लिए उन क्रमवर्ती दंडादेशों का योग, जो इस धारा के अधीन उसके विरुद्ध दिए गए हैं, एक दंडादेश समझा जाएगा ।
32. शक्तियां प्रदान करने का ढंग-(1) इस संहिता के अधीन शक्तियां प्रदान करने में, यथास्थिति, उच्च न्यायालय या राज्य सरकार व्यक्तियों को विशेषतया नाम से या उनके पद के आधार पर अथवा पदधारियों के वर्गों को साधारणतया उनके पदीय अभिधानों से, आदेश द्वारा, सशक्त कर सकती है ।
(2) ऐसा प्रत्येक आदेश उस तारीख से प्रभावी होगा जिस तारीख को वह ऐसे सशक्त किए गए व्यक्ति को संसूचित किया जाता है ।
33. नियुक्त अधिकारियों की शक्तियां-सरकार की सेवा में पद धारण करने वाला ऐसा व्यक्ति, जिसमें उच्च न्यायालय या राज्य सरकार द्वारा, उस संहिता के अधीन कोई शक्तियां किसी समग्र स्थानीय क्षेत्र के लिए निहित की गई हैं, जब कभी उसी प्रकार के समान या उच्चतर पद पर उसी राज्य सरकार के अधीन वैसे ही स्थानीय क्षेत्र के अंदर नियुक्त किया जाता है, तब वह, जब तक, यथास्थिति, उच्च न्यायालय या राज्य सरकार अन्यथा निदेश न दे या न दे चुकी हो, उस स्थानीय क्षेत्र में, जिसमें वह ऐसे नियुक्त किया गया है, उन्हीं शक्तियों का प्रयोग करेगा ।
34. शक्तियों को वापस लेना-(1) यथास्थिति, उच्च न्यायालय या राज्य सरकार, उन सब शक्तियों को या उनमें से किसी को वापस ले सकती है जो उसने या उसके अधीनस्थ किसी अधिकारी ने किसी व्यक्ति को इस संहिता के अधीन प्रदान की हैं ।
(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा प्रदत्त किन्हीं शक्तियों को उस मजिस्ट्रेट द्वारा वापस लिया जा सकता है जिसके द्वारा वे शक्तियां प्रदान की गई थीं ।
35. न्यायाधीशों और मजिस्ट्रेटों की शक्तियों का उनके पद-उत्तरवर्तियों द्वारा प्रयोग किया जा सकना-(1) इस संहिता के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की शक्तियों और कर्तव्यों का प्रयोग या पालन उसके पद-उत्तरवर्ती द्वारा किया जा सकता है ।
(2) जब इस बारे में कोई शंका है कि किसी अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश का पद-उत्तरवर्ती कौन है तब सेशन न्यायाधीश लिखित आदेश द्वारा यह अवधारित करेगा कि कौन सा न्यायाधीश इस संहिता के, या इसके अधीन किन्हीं कार्यवाहियों या आदेशों के प्रयोजनों के लिए ऐसे अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश का पद-उत्तरवर्ती समझा जाएगा ।
(3) जब इस बारे में कोई शंका है कि किसी मजिस्ट्रेट का पद-उत्तरवर्ती कौन है तब, यथास्थिति, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या जिला मजिस्ट्रेट लिखित आदेश द्वारा यह अवधारित करेगा कि कौन सा मजिस्ट्रेट इस संहिता के, या इसके अधीन किन्हीं कार्यवाहियों या आदेशों के, प्रयोजनों के लिए ऐसे मजिस्ट्रेट का पद-उत्तरवर्ती समझा जाएगा ।
अध्याय 4
क-वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की शक्तियां
36. वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की शक्तियां- पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी से पंक्ति में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जिस स्थानीय क्षेत्र में नियुक्त है, उसमें सर्वत्र, उन शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं जिनका प्रयोग अपने थाने की सीमाओं के अंदर ऐसे अधिकारी द्वारा किया जा सकता है ।
ख-मजिस्ट्रेट और पुलिस को सहायता
37. जनता कब मजिस्ट्रेट और पुलिस की सहायता करेगी-प्रत्येक व्यक्ति, ऐसे मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी की सहायता करने के लिए आबद्ध है, जो निम्नलिखित कार्यों में उसकी सहायता उचित रूप से मांगता है,-
(क) किसी अन्य ऐसे व्यक्ति को, जिसे ऐसा मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी गिरफ्तार करने के लिए प्राधिकृत है, पकड़ना या उसका निकल भागने से रोकना ; अथवा
(ख) परिशान्ति भंग का निवारण या दमन ; अथवा
(ग) किसी रेल, नहर, तार या लोक-संपत्ति को क्षति पहुंचाने के प्रयत्न का निवारण ।
38. पुलिस अधिकारी से भिन्न ऐसे व्यक्ति को सहायता जो वारंट का निष्पादन कर रहा है-जब कोई वारंट पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति को निदिष्ट है तब कोई भी अन्य व्यक्ति उस वारंट के निष्पादन में सहायता कर सकता है यदि वह व्यक्ति, जिसे वारंट निदिष्ट है, पास में है और वारंट के निष्पादन में कार्य कर रहा है ।
39. कुछ अपराधों की इत्तिला का जनता द्वारा दिया जाना-(1) प्रत्येक व्यक्ति जो भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की निम्नलिखित धाराओं के अधीन दंडनीय किसी अपराध के किए जाने से या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा करने के आशय से अवगत है, उचित प्रतिहेतु के अभाव में, जिसे साबित करने का भार इस प्रकार अवगत व्यक्ति पर होगा, ऐसे किए जाने या आशय की इत्तिला तुरंत निकटतम मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी को देगा, अर्थात्ः-
(i) धारा 121 से 126, दोनों सहित, और धारा 130 (अर्थात्, उक्त संहिता के अध्याय 6 में विनिर्दिष्ट राज्य के विरुद्ध अपराध) ;
(ii) धारा 143, 144, 145, 147 और 148 (अर्थात्, उक्त संहिता के अध्याय 8 में विनिर्दिष्ट लोक प्रशांति के विरुद्ध अपराध) ;
(iii) धारा 161 से 165क, दोनों सहित, (अर्थात्, अवैध परितोषण से संबंधित अपराध) ;
(iv) धारा 272 से 278, दोनों सहित, (अर्थात्, खाद्य और औषधियों के अपमिश्रण से संबंधित अपराध आदि) ;
(v) धारा 302, 303 और 304 (अर्थात् जीवन के लिए संकटकारी अपराध) ;
[(vक)धारा 364क (अर्थात् फिरौती, आदि के लिए व्यपहरण से संबंधित अपराध) ;]
(vi) धारा 382 (अर्थात्, चोरी करने के लिए मृत्यु, उपहति या अवरोध कारित करने की तैयारी के पश्चात् चोरी का अपराध) ;
(vii) धारा 392 से 399, दोनों सहित, और धारा 402 (अर्थात्, लूट और डकैती के अपराध) ;
(viii) धारा 409 (अर्थात्, लोक सेवक आदि द्वारा आपराधिक न्यासभंग से संबंधित अपराध) ;
(ix) धारा 431 से 439, दोनों सहित, (अर्थात्, संपत्ति के विरुद्ध रिष्टि के अपराध) ;
(x) धारा 449 और 450 (अर्थात्, गृह अतिचार का अपराध) ;
(xi) धारा 456 से 460, दोनों सहित, (अर्थात्, प्रच्छन्न गृह अतिचार के अपराध) ; और
(xii) धारा 489क से 489ङ, दोनों सहित, (अर्थात्, करेंसी नोटों और बैंक नोटों से संबंधित अपराध) ।
(2) इस धारा के प्रयोजनों के लिए अपराध" शब्द के अंतर्गत भारत के बाहर किसी स्थान में किया गया कोई ऐसा कार्य भी है जो यदि भारत में किया जाता तो अपराध होता ।
40. ग्राम के मामलों के संबंध में नियोजित अधिकारियों का कतिपय रिपोर्ट करने का कर्तव्य-(1) किसी ग्राम के मामलों के संबंध में नियोजित प्रत्येक अधिकारी और ग्राम में निवास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति, निकटतम मजिस्ट्रेट को या निकटतम पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को, जो भी निकटतर हो, कोई भी जानकारी जो उसके पास निम्नलिखित के बारे में हो, तत्काल संसूचित करेगा,-
(क) ऐसे ग्राम में या ऐसे ग्राम के पास किसी ऐसे व्यक्ति का, जो चुराई हुई संपत्ति का कुख्यात प्रापक या विक्रेता है, स्थायी या अस्थायी निवास ;
(ख) किसी व्यक्ति का, जिसका वह ठग, लुटेरा, निकल भागा सिद्धदोष या उद्घोषित अपराधी होना जानता है या जिसके ऐसा होने का उचित रूप से संदेह करता है, ऐसे ग्राम के किसी भी स्थान में आना-जाना या उसमें से हो कर जाना ;
(ग) ऐसे ग्राम में या उसके निकट कोई अजमानतीय अपराध या भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 143, धारा 144, धारा 145, धारा 147 या धारा 148 के अधीन दंडनीय कोई अपराध किया जाना या करने का आशय ;
(घ) ऐसे ग्राम में या उसके निकट कोई आकस्मिक या अप्राकृतिक मृत्यु होना, या सन्देहजनक परिस्थितियों में कोई मृत्यु होना, या ऐसे ग्राम में या उसके निकट किसी शव का, या शव के अंग का ऐसी परिस्थितियों में, जिनसे उचित रूप से संदेह पैदा होता है कि ऐसी मृत्यु हुई, पाया जाना, या ऐसे ग्राम से किसी व्यक्ति का, ऐसी परिस्थितियों में जिनसे उचित रूप से संदेह पैदा होता है कि ऐसे व्यक्ति के संबंध में अजमानतीय अपराध किया गया है, गायब हो जाना ;
(ङ) ऐसे ग्राम के निकट, भारत के बाहर किसी स्थान में ऐसा कोई कार्य किया जाना या करने का आशय जो यदि भारत में किया जाता तो भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की इन धाराओं, अर्थात्-231 से 238 तक (दोनों सहित), 302, 304, 382, 392 से 399 तक (दोनों सहित), 402, 435, 436, 449, 450, 457 से 460 तक (दोनों सहित), 489क, 489ख, 489ग और 489घ में से किसी के अधीन दंडनीय अपराध होता ;
(च) व्यवस्था बनाए रखने या अपराध के निवारण अथवा व्यक्ति या संपत्ति के क्षेम पर संभाव्यता प्रभाव डालने वाला कोई विषय जिसके संबंध में जिला मजिस्ट्रेट ने राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी से किए गए साधारण या विशेष आदेश द्वारा उसे निदेश दिया है कि वह उस विषय पर जानकारी संसूचित करे ।
(2) इस धारा में,-
(i) ग्राम" के अंतर्गत ग्राम-भूमियां भी हैं ;
(ii) उद्घोषित अपराधी" पद के अंतर्गत ऐसा व्यक्ति भी है जिसे भारत के किसी ऐसे राज्यक्षेत्र में जिस पर इस संहिता का विस्तार नहीं है किसी न्यायालय या प्राधिकारी ने किसी ऐसे कार्य के बारे में, अपराधी उद्घोषित किया है जो यदि उन राज्यक्षेत्रों में, जिन पर इस संहिता का विस्तार है, किया जाता तो भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की इन धाराओं, अर्थात्-302, 304, 382, 392 से 399 तक (दोनों सहित), 402, 435, 436, 449, 450 और 457 से 460 तक (दोनों सहित), में से किसी के अधीन दंडनीय अपराध होता ;
(iii) ग्राम के मामलों के संबंध में नियोजित प्रत्येक अधिकारी" शब्दों से ग्राम पंचायत का कोई सदस्य अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत ग्रामीण और प्रत्येक ऐसा अधिकारी या अन्य व्यक्ति भी है जो ग्राम के प्रशासन के संबंध में किसी कृत्य का पालन करने के लिए नियुक्त किया गया है ।
अध्याय 5
व्यक्तियों की गिरफ्तारी
41. पुलिस वारंट के बिना कब गिरफ्तार कर सकेगी-(1) कोई पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और वारंट के बिना किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है-
[(क) जो पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में संज्ञेय अपराध करता है ; अथवा
(ख) जिसके विरुद्ध इस बारे में उचित परिवाद किया जा चुका है या विश्वसनीय इत्तिला प्राप्त हो चुकी है या उचित संदेह विद्यमान है कि उसने कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम की हो सकेगी या जिसकी अवधि सात वर्ष की हो सकेगी, चाहे वह जुर्माने सहित हो अथवा जुर्माने के बिना, दंडनीय संज्ञेय अपराध किया है, यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी कर दी जाती हैं, अर्थात् -
(i) पुलिस अधिकारी के पास ऐसे परिवाद, इत्तिला या संदेह के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि उस व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है ;
(ii) पुलिस अधिकारी का यह समाधान हो गया है कि ऐसी गिरफ्तारी -
(क) ऐसे व्यक्ति को कोई और अपराध करने से निवारित करने के लिए ; या
(ख) अपराध के समुचित अन्वेषण के लिए ; या
(ग) ऐसे व्यक्ति को ऐसे अपराध के साक्ष्य को गायब करने या ऐसे साक्ष्य के साथ किसी भी रीति में छेड़छाड़ करने से निवारित करने के लिए ; या
(घ) उस व्यक्ति को, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो मामले के तथ्यों से परिचित है, उत्प्रेरित करने, उसे धमकी देने या उससे वायदा करने से जिससे उसे न्यायालय या पुलिस अधिकारी को ऐसे तथ्यों को प्रकट न करने के लिए मनाया जा सके, निवारित करने के लिए ; या
(ङ) जब तक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर लिया जाता, न्यायालय में उसकी उपस्थिति, जब भी अपेक्षित हो, सुनिश्चित नहीं की जा सकती,
आवश्यक है, और पुलिस अधिकारी ऐसे गिरफ्तारी करते समय अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा :
[परंतु कोई पुलिस अधिकारी, ऐसे सभी मामलों में, जहां किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी इस उपधारा के उपबंधों के अधीन अपेक्षित नहीं है, गिरफ्तारी न करने के कारणों को लेखबद्ध करेगा ;] अथवा
(खक) जिसके विरुद्ध विश्वसनीय इत्तिला प्राप्त हो चुकी है कि उसने कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष से अधिक की हो सकेगी, चाहे वह जुर्माने सहित हो अथवा जुर्माने के बिना, अथवा मृत्यु दंडादेश से दंडनीय संज्ञेय अपराध किया है और पुलिस अधिकारी के पास उस इत्तिला के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि उस व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है ;]
(ग) जो या तो इस संहिता के अधीन या राज्य सरकार के आदेश द्वारा अपराधी उद्घोषित किया जा चुका है ; अथवा
(घ) जिसके कब्जे में कोई ऐसी चीज पाई जाती है जिसके चुराई हुई संपत्ति होने का उचित रूप से संदेह किया जा सकता है और जिस पर ऐसी चीज के बारे में अपराध करने का उचित रूप से संदेह किया जा सकता है ; अथवा
(ङ) जो पुलिस अधिकारी को उस समय बाधा पहुंचाता है जब वह अपना कर्तव्य कर रहा है, या जो विधिपूर्ण अभिरक्षा से निकल भागा है या निकल भागने का प्रयत्न करता है ; अथवा
(च) जिस पर संघ के सशस्त्र बलों में से किसी से अभित्याजक होने का उचित संदेह है ; अथवा
(छ) जो भारत से बाहर किसी स्थान में किसी ऐसे कार्य किए जाने से, जो यदि भारत में किया गया होता तो अपराध के रूप में दंडनीय होता, और जिसके लिए वह प्रत्यर्पण संबंधी किसी विधि के अधीन या अन्यथा भारत में पकड़े जाने का या अभिरक्षा में निरुद्ध किए जाने का भागी है, संबद्ध रह चुका है या जिसके विरुद्ध इस बारे में उचित परिवाद किया जा चुका है या विश्वसनीय इत्तिला प्राप्त हो चुकी है या उचित संदेह विद्यमान है कि वह ऐसे संबद्ध रह चुका है ; अथवा
(ज) जो छोड़ा गया सिद्धदोष होते हुए धारा 356 की उपधारा (5) के अधीन बनाए गए किसी नियम को भंग करता है ; अथवा
(झ) जिसकी गिरफ्तारी के लिए किसी अन्य पुलिस अधिकारी से लिखित या मौखिक अध्यपेक्षा प्राप्त हो चुकी है, परंतु यह तब जब कि अध्यपेक्षा में उस व्यक्ति का, जिसे गिरफ्तार किया जाना है, और उस अपराध का या अन्य कारण का, जिसके लिए गिरफ्तारी की जानी है, विनिर्देश है और उससे यह दर्शित होता है कि अध्यपेक्षा जारी करने वाले अधिकारी द्वारा वारंट के बिना वह व्यक्ति विधिपूर्वक गिरफ्तार किया जा सकता था ।
[(2) धारा 42 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, ऐसे किसी व्यक्ति को, जो किसी असंज्ञेय अपराध से संबद्ध है या जिसके विरुद्ध कोई परिवाद किया जा चुका है या विश्वसनीय इत्तिला प्राप्त हो चुकी है या उचित संदेह विद्यमान है कि वह ऐसे संबद्ध रह चुका है, मजिस्ट्रेट के वारंट या आदेश के सिवाय, गिरफ्तार नहीं किया जाएगा ।]
[41क. पुलिस अधिकारी के समक्ष हाजिर होने की सूचना-(1) पुलिस अधिकारी, ऐसे सभी मामलों में जिनमें धारा 41 की उपधारा (1) के उपबंधों के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, उस व्यक्ति को जिसके विरुद्ध इस बारे में उचित परिवाद किया जा चुका है या विश्वसनीय इत्तिला प्राप्त हो चुकी है या उचित संदेह विद्यमान है कि उसने संज्ञेय अपराध किया है, उसके समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर, जो सूचना में विनिर्दिष्ट किया जाए उपसंजात होने के लिए निदेश देते हुए सूचना [जारी करेगाट ।
(2) जहां ऐसी सूचना किसी व्यक्ति को जारी की जाती है, वहां उस व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह सूचना के निबंधनों का अनुपालन करे ।
(3) जहां ऐसा व्यक्ति सूचना का अनुपालन करता है और अनुपालन करता रहता है वहां उसे सूचना में निर्दिष्ट अपराध के संबंध में तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक लेखबद्ध किए जाने वाले कारणों से पुलिस अधिकारी की यह राय न हो कि उसे गिरफ्तार कर लेना चाहिए ।
[(4) जहां ऐसा व्यक्ति, किसी भी समय सूचना के निबंधनों का अनुपालन करने में असफल रहता है या अपनी पहचानकराने का अनिच्छुक है वहां पुलिस अधिकारी, ऐसे आदेशों के अधीन रहते हुए, जो इस निमित्त किसी सक्षम न्यायालय द्वारा पारित किए गए हों, सूचना में वर्णित अपराध के लिए उसे गिरफ्तार कर सकेगा ।]
41ख. गिरफ्तारी की प्रक्रिया और गिरफ्तारी करने वाले अधिकारी के कर्तव्य-प्रत्येक पुलिस अधिकारी, गिरफ्तारी करते समय,-
(क) अपने नाम की सही, प्रकट और स्पष्ट पहचान धारण करेगा, जिससे उसकी आसानी से पहचान हो सके,
(ख) गिरफ्तारी का एक ज्ञापन तैयार करेगा जो-
(i) कम से कम एक साक्षी द्वारा अनुप्रमाणित किया जाएगा जो गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के कुटुंब का सदस्य है या उस परिक्षेत्र का, जहां गिरफ्तारी की गई है, प्रतिष्ठित सदस्य है ;
(ii) गिरफ्तार किए गए व्यक्ति द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित होगा ; और
(ग) जब तक उसके कुटुंब के किसी सदस्य द्वारा ज्ञापन को अनुप्रमाणित न कर दिया गया हो, गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को यह इत्तिला देगा कि उसे यह अधिकार है कि उसके किसी नातेदार या मित्र को, जिसका वह नाम दे, उसकी गिरफ्तारी की इत्तिला दी जाए ।
41ग. जिले में नियंत्रण कक्ष-(1) राज्य सरकार-
(क) प्रत्येक जिले में ; और
(ख) राज्य स्तर पर,
पुलिस नियंत्रण कक्ष की स्थापना करेगी ।
(2) राज्य सरकार, प्रत्येक जिले के नियंत्रण कक्ष के बाहर रखे गए सूचना पट्ट पर गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों के नाम और पते तथा उन पुलिस अधिकारियों के नाम और पदनाम संप्रदर्शित कराएगी, जिन्होंने गिरफ्तारियां की हैं ।
(3) राज्य स्तर पर पुलिस मुख्यालयों में नियंत्रण कक्ष, समय-समय पर, गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों, उस अपराध की प्रकृति जिसका उन पर आरोप लगाया गया है, के बारे में ब्यौरे संगृहीत करेगा और आम जनता की जानकारी के लिए डाटा बेस रखेगा ।
41घ. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का पूछताछ के दौरान अपनी पसंद के अधिवक्ता से मिलने का अधिकार-जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है और पुलिस द्वारा पूछताछ की जाती है, तब गिरफ्तार व्यक्ति पूछताछ के दौरान अपनी पसंद के अधिवक्ता से मिलने का हकदार होगा किंतु संपूर्ण पूछताछ के दौरान नहीं ।]
42. नाम और निवास बताने से इंकार करने पर गिरफ्तारी-(1) जब कोई व्यक्ति जिसने पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में असंज्ञेय अपराध किया है या जिस पर पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में असंज्ञेय अपराध करने का अभियोग लगाया गया है, उस अधिकारी की मांग पर अपना नाम और निवास बताने से इंकार करता है या ऐसा नाम या निवास बताता है, जिसके बारे में उस अधिकारी को यह विश्वास करने का कारण है कि वह मिथ्या है, तब वह ऐसे अधिकारी द्वारा इसलिए गिरफ्तार किया जा सकता है कि उसका नाम और निवास अभिनिश्चित किया जा सके ।
(2) जब ऐसे व्यक्ति का सही नाम और निवास अभिनिश्चित कर लिया जाता है तब वह प्रतिभुओं सहित या रहित यह बंधपत्र निष्पादित करने पर छोड़ दिया जाएगा कि यदि उससे मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होने की अपेक्षा की गई तो वह उसके समक्ष हाजिर होगा :
परंतु यदि ऐसा व्यक्ति भारत में निवासी नहीं है तो वह बंधपत्र भारत में निवासी प्रतिभू या प्रतिभुओं द्वारा प्रतिभूत किया जाएगा ।
(3) यदि गिरफ्तारी के समय से चौबीस घंटों के अंदर ऐसे व्यक्ति का सही नाम और निवास अभिनिश्चित नहीं किया जा सकता है या वह बंधपत्र निष्पादित करने में या अपेक्षित किए जाने पर पर्याप्त प्रतिभू देने में असफल रहता है तो वह अधिकारिता रखने वाले निकटतम मजिस्ट्रेट के पास तत्काल भेज दिया जाएगा ।
43. प्राइवेट व्यक्ति द्वारा गिरफ्तारी और ऐसी गिरफ्तारी पर प्रक्रिया-(1) कोई प्राइवेट व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को जो उसकी उपस्थिति में अजमानतीय और संज्ञेय अपराध करता है, या किसी उद्घोषित अपराधी को गिरफ्तार कर सकता है या गिरफ्तार करवा सकता है और ऐसे गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को अनावश्यक विलंब के बिना पुलिस अधिकारी के हवाले कर देगा या हवाले करवा देगा या पुलिस अधिकारी की अनुपस्थिति में ऐसे व्यक्ति को अभिरक्षा में निकटतम पुलिस थाने ले जाएगा या भिजवाएगा ।
(2) यदि यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसा व्यक्ति धारा 41 के उपबंधों के अंतर्गत आता है तो पुलिस अधिकारी उसे फिर से गिरफ्तार करेगा ।
(3) यदि यह विश्वास करने का कारण है कि उसने असंज्ञेय अपराध किया है और वह पुलिस अधिकारी की मांग पर अपना नाम और निवास बताने से इंकार करता है, या ऐसा नाम या निवास बताता है, जिसके बारे में ऐसे अधिकारी को यह विश्वास करने का कारण है कि वह मिथ्या है, तो उसके विषय में धारा 42 के उपबंधों के अधीन कार्यवाही की जाएगी ; किंतु यदि यह विश्वास करने का कोई पर्याप्त कारण नहीं है कि उसने कोई अपराध किया है तो वह तुरंत छोड़ दिया जाएगा ।
44. मजिस्ट्रेट द्वारा गिरफ्तारी-(1) जब कार्यपालक या न्यायिक मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में उसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर कोई अपराध किया जाता है तब वह अपराधी को स्वयं गिरफ्तार कर सकता है या गिरफ्तार करने के लिए किसी व्यक्ति को आदेश दे सकता है और तब जमानत के बारे में इसमें अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन रहते हुए, अपराधी को अभिरक्षा के लिए सुपुर्द कर सकता है ।
(2) कोई कार्यपालक या न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी भी समय अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, या अपनी उपस्थिति में उसकी गिरफ्तारी का निदेश दे सकता है, जिसकी गिरफ्तारी के लिए वह उस समय और उन परिस्थितियों में वारंट जारी करने के लिए सक्षम है ।
45. सशस्त्र बलों के सदस्यों का गिरफ्तारी से संरक्षण-(1) धारा 41 से 44 तक की धाराओं में (दोनों सहित) किसी बात के होते हुए भी संघ के सशस्त्र बलों का कोई भी सदस्य अपने पदीय कर्तव्यों का निर्वहन करने में अपने द्वारा की गई या की जाने के लिए तात्पर्यित किसी बात के लिए तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक केंद्रीय सरकार की सहमति नहीं ले ली जाती ।
(2) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निदेश दे सकती है कि उसमें यथाविनिर्दिष्ट बल के ऐसे वर्ग या प्रवर्ग के सदस्यों को, जिन्हें लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्यभार सौंपा गया है, जहां कहीं वे सेवा कर रहे हों, उपधारा (1) के उपबंध लागू होंगे और तब उस उपधारा के उपबंध इस प्रकार लागू होंगे मानो उसमें आने वाले केंद्रीय सरकार" पद के स्थान पर राज्य सरकार" पद रख दिया गया हो ।
46. गिरफ्तारी कैसे की जाएगी-(1) गिरफ्तारी करने में पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जो गिरफ्तारी कर रहा है, गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति के शरीर को वस्तुतः छुएगा या परिरुद्ध करेगा, जब तक उसने वचन या कर्म द्वारा अपने को अभिरक्षा में समर्पित न कर दिया हो ।
[परंतु जहां किसी स्त्री को गिरफ्तार किया जाना है वहां जब तक कि परिस्थितियों से इसके विपरीत उपदर्शित न हो, गिरफ्तारी की मौखिक इत्तिला पर अभिरक्षा में उसके समर्पण कर देने की उपधारणा की जाएगी और जब तक कि परिस्थितियों में अन्यथा अपेक्षित न हो या जब तक पुलिस अधिकारी महिला न हो, तब तक पुलिस अधिकारी महिला को गिरफ्तार करने के लिए उसके शरीर को नहीं छुएगा ।]
(2) यदि ऐसा व्यक्ति अपने गिरफ्तार किए जाने के प्रयास का बलात् प्रतिरोध करता है या गिरफ्तारी से बचने का प्रयत्न करता है तो ऐसा पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति गिरफ्तारी करने के लिए आवश्यक सब साधनों को उपयोग में ला सकता है ।
(3) इस धारा की कोई बात ऐसे व्यक्ति की जिस पर मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध का अभियोग नहीं है, मृत्यु कारित करने का अधिकार नहीं देती है ।
[(4) असाधारण परिस्थितियों के सिवाय, कोई स्त्री सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय से पहले गिरफ्तार नहीं की जाएगी और जहां ऐसी असाधारण परिस्थितियां विद्यमान हैं वहां स्त्री पुलिस अधिकारी, लिखित में रिपोर्ट करके, उस प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुज्ञा अभिप्राप्त करेगी, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर अपराध किया गया है या गिरफ्तारी की जानी है ।]
47. उस स्थान की तलाशी जिसमें ऐसा व्यक्ति प्रविष्ट हुआ है जिसकी गिरफ्तारी की जानी है-(1) यदि गिरफ्तारी के वारंट के अधीन कार्य करने वाले किसी व्यक्ति को, या गिरफ्तारी करने के लिए प्राधिकृत किसी पुलिस अधिकारी को, यह विश्वास करने का कारण है कि वह व्यक्ति जिसे गिरफ्तार किया जाना है, किसी स्थान में प्रविष्ट हुआ है, या उसके अंदर है तो ऐसे स्थान में निवास करने वाला, या उस स्थान का भारसाधक कोई भी व्यक्ति, पूर्वोक्त रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति द्वारा या ऐसे पुलिस अधिकारी द्वारा मांग की जाने पर उसमें उसे अबाध प्रवेश करने देगा और उसके अंदर तलाशी लेने के लिए सब उचित सुविधाएं देगा ।
(2) यदि ऐसे स्थान में प्रवेश उपधारा (1) के अधीन नहीं हो सकता तो किसी भी मामले में उस व्यक्ति के लिए, जो वारंट के अधीन कार्य कर रहा है, और किसी ऐसे मामले में, जिसमें वारंट निकाला जा सकता है किंतु गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति को भाग जाने का अवसर दिए बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता, पुलिस अधिकारी के लिए यह विधिपूर्ण होगा कि वह ऐसे स्थान में प्रवेश करे और वहां तलाशी ले और ऐसे स्थान में प्रवेश कर पाने के लिए किसी गृह या स्थान के, चाहे वह उस व्यक्ति का हो जिसे गिरफ्तार किया जाना है, या किसी अन्य व्यक्ति का हो, किसी बाहरी या भीतरी द्वार या खिड़की को तोड़कर खोल ले यदि अपने प्राधिकार और प्रयोजन की सूचना देने के तथा प्रवेश करने की सम्यक् रूप से मांग करने के पश्चात् वह अन्यथा प्रवेश प्राप्त नहीं कर सकता है :
परंतु यदि ऐसा कोई स्थान ऐसा कमरा है जो (गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति से भिन्न) ऐसी स्त्री के वास्तविक अधिभोग में है जो रूढ़ि के अनुसार लोगों के सामने नहीं आती है तो ऐसा व्यक्ति या पुलिस अधिकारी उस कमरे में प्रवेश करने के पूर्व उस स्त्री को सूचना देगा कि वह वहां से हट जाने के लिए स्वतंत्र है और हट जाने के लिए उसे प्रत्येक उचित सुविधा देगा और तब कमरे को तोड़कर खोल सकता है और उसमें प्रवेश कर सकता है ।
(3) कोई पुलिस अधिकारी या गिरफ्तार करने के लिए प्राधिकृत अन्य व्यक्ति किसी गृह या स्थान का कोई बाहरी या भीतरी द्वार या खिड़की अपने को या किसी अन्य व्यक्ति को जो गिरफ्तार करने के प्रयोजन से विधिपूर्वक प्रवेश करने के पश्चात् वहां निरुद्ध है, मुक्त करने के लिए तोड़कर खोल सकता है ।
48. अन्य अधिकारिताओं में अपराधियों का पीछा करना-पुलिस अधिकारी ऐसे किसी व्यक्ति को जिसे गिरफ्तार करने के लिए वह प्राधिकृत है, वारंट के बिना गिरफ्तार करने के प्रयोजन से भारत के किसी स्थान में उस व्यक्ति का पीछा कर सकता है ।
49. अनावश्यक अवरोध न करना-गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को उससे अधिक अवरुद्ध न किया जाएगा जितना उसको निकल भागने से रोकने के लिए आवश्यक है ।
50. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों और जमानत के अधिकार की इत्तिला दी जाना-(1) किसी व्यक्ति को वारंट के बिना गिरफ्तार करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति उस व्यक्ति को उस अपराध की, जिसके लिए वह गिरफ्तार किया गया है, पूर्ण विशिष्टियां या ऐसी गिरफ्तारी के अन्य आधार तुरंत संसूचित करेगा ।
(2) जहां कोई पुलिस अधिकारी अजमानतीय अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से भिन्न किसी व्यक्ति को वारंट के बिना गिरफ्तार करता है वहां वह गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को इत्तिला देगा कि वह जमानत पर छोड़े जाने का हकदार है और वह अपनी ओर से प्रतिभुओं का इंतजाम करे ।
[50क. गिरफ्तारी करने वाले व्यक्ति की, गिरफ्तारी आदि के बारे में, नामित व्यक्ति को जानकारी देने की बाध्यता-(1) इस संहिता के अधीन कोई गिरफ्तारी करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति, ऐसी गिरफ्तारी और उस स्थान के बारे में, जहां गिरफ्तार किया गया व्यक्ति रखा जा रहा है, जानकारी उसके मित्रों, नातेदारों या ऐसे अन्य व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किए गए व्यक्ति द्वारा ऐसी जानकारी देने के प्रयोजन के लिए प्रकट या नामनिर्दिष्ट किया जाए, तुरंत देगा ।
(2) पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को, जैसे ही वह पुलिस थाने में लाया जाता है, उपधारा (1) के अधीन उसके अधिकारों के बारे में सूचित करेगा ।
(3) इस तथ्य की प्रविष्टि कि ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी की इत्तिला किसे दी गई है, पुलिस थाने में रखी जाने वाली पुस्तक में ऐसे प्ररूप में, जो राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त विहित किया जाए, की जाएगी ।
(4) उस मजिस्ट्रेट का, जिसके समक्ष ऐसे गिरफ्तार किया गया व्यक्ति, पेश किया जाता है, यह कर्तव्य होगा कि वह अपना समाधान करे कि उपधारा (2) और उपधारा (3) की अपेक्षाओं का ऐसे गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के संबंध में अनुपालन किया गया है ।]
51. गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की तलाशी-(1) जब कभी पुलिस अधिकारी द्वारा ऐसे वारंट के अधीन, जो जमानत लिए जाने का उपबंध नहीं करता है या ऐसे वारंट के अधीन, जो जमानत लिए जाने का उपबंध करता है किंतु गिरफ्तार किया गया व्यक्ति जमानत नहीं दे सकता है, कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है, तथा जब कभी कोई व्यक्ति वारंट के बिना या प्राइवेट व्यक्ति द्वारा वारंट के अधीन गिरफ्तार किया जाता है और वैध रूप से उसकी जमानत नहीं ली जा सकती है या वह जमानत देने में असमर्थ है, तब गिरफ्तारी करने वाला अधिकारी, या जब गिरफ्तारी प्राइवेट व्यक्ति द्वारा की जाती है तब वह पुलिस अधिकारी, जिसे वह व्यक्ति गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को सौंपता है, उस व्यक्ति की तलाशी ले सकता है और पहनने के आवश्यक वस्त्रों को छोड़कर उसके पास पाई गई सब वस्तुओं को सुरक्षित अभिरक्षा में रख सकता है और जहां गिरफ्तार किए गए व्यक्ति से कोई वस्तु अभिगृहीत की जाती है वहां ऐसे व्यक्ति को एक रसीद दी जाएगी जिसमें पुलिस अधिकारी द्वारा कब्जे में की गई वस्तुं दर्शित होंगी ।
(2) जब कभी किसी स्त्री की तलाशी करना आवश्यक हो तब ऐसी तलाशी शिष्टता का पूरा ध्यान रखते हुए अन्य स्त्री द्वारा की जाएगी ।
52. आक्रामक आयुधों का अभिग्रहण करने की शक्ति-वह अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जो इस संहिता के अधीन गिरफ्तारी करता है गिरफ्तार किए गए व्यक्ति से कोई आक्रामक आयुध, जो उसके शरीर पर हों, ले सकता है और ऐसे लिए गए सब आयुध उस न्यायालय या अधिकारी को परिदत्त करेगा, जिसके समक्ष वह अधिकारी या गिरफ्तार करने वाला व्यक्ति गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को पेश करने के लिए इस संहिता द्वारा अपेक्षित है ।
53. पुलिस अधिकारी की प्रार्थना पर चिकित्सा-व्यवसायी द्वारा अभियुक्त की परीक्षा-(1) जब कोई व्यक्ति ऐसा अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है जो ऐसी प्रकृति का है और जिसका ऐसी परिस्थितियों में किया जाना अभिकथित है कि यह विश्वास करने के उचित आधार हैं कि उसकी शारीरिक परीक्षा ऐसा अपराध किए जाने के बारे में साक्ष्य प्रदान करेगी, तो ऐसे पुलिस अधिकारी की, जो उप निरीक्षक की पंक्ति से नीचे का न हो, प्रार्थना पर कार्य करने में रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी के लिए और सद्भावपूर्वक उसकी सहायता करने में और उसके निदेशाधीन कार्य करने में किसी व्यक्ति के लिए यह विधिपूर्ण होगा कि वह गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की ऐसी परीक्षा करे जो उन तथ्यों को, जो ऐसा साक्ष्य प्रदान कर सकें, अभिनिश्चित करने के लिए उचित रूप से आवश्यक है और उतना बल प्रयोग करे जितना उस प्रयोजन के लिए उचित रूप से आवश्यक है ।
(2) जब कभी इस धारा के अधीन किसी स्त्री की शारीरिक परीक्षा की जानी है तो ऐसी परीक्षा केवल किसी महिला द्वारा जो रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी है या उसके पर्यवेक्षण में की जाएगी ।
[स्पष्टीकरण-इस धारा में और धारा 53क और धारा 54 में-
(क) परीक्षा में खून, खून के धब्बों, सीमन, लैंगिक अपराधों की दशा में स्वाब, थूक और स्वेद, बाल के नमूनों और उंगली के नाखून की कतरनों की आधुनिक और वैज्ञानिक तकनीकों के, जिनके अंतर्गत डी.एन.ए. प्रोफाइल करना भी है, प्रयोग द्वारा परीक्षा और ऐसे अन्य परीक्षण, जिन्हें रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी किसी विशिष्ट मामले में आवश्यक समझता है, सम्मिलित होंगे ;
(ख) रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायीऱ् से वह चिकित्सा-व्यवसायी अभिप्रेत है, जिसके पास भारतीय चिकित्सा परिषद् अधिनियम, 1956 (1956 का 102) की धारा 2 के खंड (ज) में यथापरिभाषित कोई चिकित्सीय अर्हता है और जिसका नाम राज्य चिकित्सा रजिस्टर में प्रविष्ट किया गया है ।]
[53क. बलात्संग के अपराधी व्यक्ति की चिकित्सा-व्यवसायी द्वारा परीक्षा-(1) जब किसी व्यक्ति को बलात्संग या बलात्संग का प्रयत्न करने का अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और यह विश्वास करने के उचित आधार हैं कि उस व्यक्ति की परीक्षा से ऐसा अपराध करने के बारे में साक्ष्य प्राप्त होगा तो सरकार द्वारा या किसी स्थानीय प्राधिकारी द्वारा चलाए जा रहे अस्पताल में नियोजित किसी रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी के लिए और उस स्थान से जहां अपराध किया गया है, सोलह किलोमीटर की परिधि के भीतर ऐसे चिकित्सा-व्यवसायी की अनुपस्थिति में ऐसे पुलिस अधिकारी के निवेदन पर, जो उप निरीक्षक की पंक्ति से नीचे का न हो, किसी अन्य रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी के लिए, तथा सद्भावपूर्वक उसकी सहायता के लिए तथा उसके निदेश के अधीन कार्य कर रहे किसी व्यक्ति के लिए, ऐसे गिरफ्तार व्यक्ति की ऐसी परीक्षा करना और उस प्रयोजन के लिए उतनी शक्ति का प्रयोग करना जितनी युक्तियुक्त रूप से आवश्यक हो, विधिपूर्ण होगा ।
(2) ऐसी परीक्षा करने वाला रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी ऐसे व्यक्ति की बिना विलंब के परीक्षा करेगा और उसकी परीक्षा की एक रिपोर्ट तैयार करेगा, जिसमें निम्नलिखित विशिष्टियां दी जाएंगी, अर्थात् :-
(i) अभियुक्त और उस व्यक्ति का, जो उसे लाया है, नाम और पता ;
(ii) अभियुक्त की आयु ;
(iii) अभियुक्त के शरीर पर क्षति के निशान, यदि कोई हों ;
(iv) डी.एन.ए. प्रोफाइल करने के लिए अभियुक्त के शरीर से ली गई सामग्री का वर्णन ; और
(v) उचित ब्यौरे सहित, अन्य तात्त्विक विशिष्टियां ।
(3) रिपोर्ट में संक्षेप में वे कारण अधिकथित किए जाएंगे, जिनसे प्रत्येक निष्कर्ष निकाला गया है ।
(4) परीक्षा प्रारंभ और समाप्ति करने का सही समय भी रिपोर्ट में अंकित किया जाएगा ।
(5) रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी, बिना विलंब के अन्वेषण अधिकारी को रिपोर्ट भेजेगा, जो उसे धारा 173 में निर्दिष्ट मजिस्ट्रेट को उस धारा की उपधारा (5) के खंड (क) में निर्दिष्ट दस्तावेजों के भागरूप में भेजेगा ।]
[54. गिरफ्तार व्यक्ति की चिकित्सा अधिकारी द्वारा परीक्षा-(1) जब कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है तब गिरफ्तार किए जाने के तुरंत पश्चात् उसकी केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार के सेवाधीन चिकित्सा अधिकारी और जहां चिकित्सा अधिकारी उपलब्ध नहीं हैं वहां रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा परीक्षा की जाएगी :
परंतु जहां गिरफ्तार किया गया व्यक्ति महिला है, वहां उसके शरीर की परीक्षा केवल महिला चिकित्सा अधिकारी और जहां महिला चिकित्सा अधिकारी उपलब्ध नहीं है वहां रजिस्ट्रीकृत महिला चिकित्सा व्यवसायी द्वारा या उसके पर्यवेक्षणाधीन की जाएगी ।
(2) गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की इस प्रकार परीक्षा करने वाला चिकित्सा अधिकारी या रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा व्यवसायी ऐसी परीक्षा का अभिलेख तैयार करेगा जिसमें गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के शरीर पर किन्हीं क्षतियों या हिंसा के चिह्नों तथा अनुमानित समय का वर्णन करेगा जब ऐसी क्षति या चिह्न पहुंचाए गए होंगे ।
(3) जहां उपधारा (1) के अधीन परीक्षा की जाती है वहां ऐसी परीक्षा की रिपोर्ट की एक प्रति, यथास्थिति, चिकित्सा अधिकारी या रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति या ऐसे गिरफ्तार किए गए व्यक्ति द्वारा नामनिर्दिष्ट व्यक्ति को दी जाएगी ।]
[54क. गिरफ्तार व्यक्ति की शिनाख्त-जहां कोई व्यक्ति किसी अपराध को करने के आरोप पर गिरफ्तार किया जाता है और उसकी शिनाख्त किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा ऐसे अपराधों के अन्वेषण के लिए आवश्यक समझी जाती है तो वहां वह न्यायालय, जिसकी अधिकारिता है, पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के निवेदन पर, गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की, ऐसी रीति से जो न्यायालय ठीक समझता है, किसी अन्य व्यक्ति या किन्हीं अन्य व्यक्तियों द्वारा शिनाख्त कराने का आदेश दे सकेगा :]
[परंतु यदि गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की शनाख्त करने वाला व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त है, तो शनाख्त करने की ऐसी प्रक्रिया न्यायिक मजिस्ट्रेट के पर्यवेक्षण के अधीन होगी जो यह सुनिश्चित करने के लिए समुचित कदम उठाएगा कि उस व्यक्ति द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की उन पद्धतियों का प्रयोग करते हुए शनाख्त की जाए, जो उस व्यक्ति के लिए सुविधापूर्ण हों :
परंतु यह और कि यदि गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की शनाख्त करने वाला व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त है, तो शनाख्त किए जाने की प्रक्रिया की वीडियो फिल्म तैयार की जाएगी ।]
55. जब पुलिस अधिकारी वारंट के बिना गिरफ्तार करने के लिए अपने अधीनस्थ को प्रतिनियुक्त करता है तब प्रक्रिया-(1) जब अध्याय 12 के अधीन अन्वेषण करता हुआ कोई पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी, या कोई पुलिस अधिकारी, अपने अधीनस्थ किसी अधिकारी से किसी ऐसे व्यक्ति को जो वारंट के बिना विधिपूर्वक गिरफ्तार किया जा सकता है, वारंट के बिना (अपनी उपस्थिति में नहीं, अन्यथा) गिरफ्तार करने की अपेक्षा करता है, तब वह उस व्यक्ति का जिसे गिरफ्तार किया जाना है और उस अपराध का या अन्य कारण का, जिसके लिए गिरफ्तारी की जानी है, विनिर्देश करते हुए लिखित आदेश उस अधिकारी को परिदत्त करेगा जिससे यह अपेक्षा है कि वह गिरफ्तारी करे और इस प्रकार अपेक्षित अधिकारी उस व्यक्ति को, जिसे गिरफ्तार करना है, उस आदेश का सार गिरफ्तारी करने के पूर्व सूचित करेगा और यदि वह व्यक्ति अपेक्षा करे तो उसे वह आदेश दिखा देगा ।
(2) उपधारा (1) की कोई बात किसी पुलिस अधिकारी की धारा 41 के अधीन किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति पर प्रभाव नहीं डालेगी ।
[55क. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का स्वास्थ्य और सुरक्षा-अभियुक्त को अभिरक्षा में रखने वाले व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह अभियुक्त के स्वास्थ्य और सुरक्षा की उचित देखभाल करे ।]
56. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का मजिस्ट्रेट या पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के समक्ष ले जाया जाना-वारंट के बिना गिरफ्तारी करने वाला पुलिस अधिकारी अनावश्यक विलंब के बिना और जमानत के संबंध में इसमें अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन रहते हुए, उस व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है, उस मामले में अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष या किसी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के समक्ष ले जाएगा या भेजेगा ।
57. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का चौबीस घंटे से अधिक निरुद्ध न किया जाना-कोई पुलिस अधिकारी वारंट के बिना गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को उससे अधिक अवधि के लिए अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखेगा जो उस मामले की सब परिस्थितियों में उचित है तथा ऐसी अवधि, मजिस्ट्रेट के धारा 167 के अधीन विशेष आदेश के अभाव में गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर, चौबीस घंटे से अधिक की नहीं होगी ।
58. पुलिस का गिरफ्तारियों की रिपोर्ट करना-पुलिस थानों के भारसाधक अधिकारी जिला मजिस्ट्रेट को, या उसके ऐसा निदेश देने पर, उपखंड मजिस्ट्रेट को, अपने-अपने थानों की सीमाओं के अंदर वारंट के बिना गिरफ्तार किए गए सब व्यक्तियों के मामलों की रिपोर्ट करेंगे, चाहे उन व्यक्तियों की जमानत ले ली गई हो या नहीं ।
59. पकड़े गए व्यक्ति का उन्मोचन-पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किए गए किसी व्यक्ति का उन्मोचन उसी के बंधपत्र पर या जमानत पर या मजिस्ट्रेट के विशेष आदेश के अधीन ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं ।
60. निकल भागने पर पीछा करने और फिर पकड़ लेने की शक्ति-(1) यदि कोई व्यक्ति विधिपूर्ण अभिरक्षा में से निकल भागता है या छुड़ा लिया जाता है तो वह व्यक्ति, जिसकी अभिरक्षा से वह निकल भागा है, छुड़ाया गया है, उसका तुरंत पीछा कर सकता है और भारत के किसी स्थान में उसे गिरफ्तार कर सकता है ।
(2) उपधारा (1) के अधीन गिरफ्तारियों को धारा 47 के उपबंध लागू होंगे भले ही ऐसी गिरफ्तारी करने वाला व्यक्ति वारंट के अधीन कार्य न कर रहा हो और गिरफ्तारी करने का प्राधिकार रखने वाला पुलिस अधिकारी न हो ।
[60क. गिरफ्तारी का सर्वथा संहिता के अनुसार ही किया जाना-कोई गिरफ्तारी इस संहिता या गिरफ्तारी के लिए उपबंध करने वाली तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों के अनुसार ही की जाएगी ।]
अध्याय 6
हाजिर होने को विवश करने के लिए आदेशिकाएं
क-समन
61. समन का प्ररूप-न्यायालय द्वारा इस संहिता के अधीन जारी किया गया प्रत्येक समन लिखित रूप में और दो प्रतियों में, उस न्यायालय के पीठासीन अधिकारी द्वारा या अन्य ऐसे अधिकारी द्वारा, जिसे उच्च न्यायालय नियम द्वारा समय-समय पर निदिष्ट करे, हस्ताक्षरित होगा और उस पर उस न्यायालय की मुद्रा लगी होगी ।
62. समन की तामील कैसे की जाए-(1) प्रत्येक समन की तामील पुलिस अधिकारी द्वारा या ऐसे नियमों के अधीन जो राज्य सरकार इस निमित्त बनाए, उस न्यायालय के, जिसने वह समन जारी किया है, किसी अधिकारी द्वारा या अन्य लोक सेवक द्वारा की जाएगी ।
(2) यदि साध्य हो तो समन किए गए व्यक्ति पर समन की तामील उसे उस समन की दो प्रतियों में से एक का परिदान या निविदान करके वैयक्तिक रूप से की जाएगी ।
(3) प्रत्येक व्यक्ति, जिस पर समन की ऐसे तामील की गई है, यदि तामील करने वाले अधिकारी द्वारा ऐसी अपेक्षा की जाती है तो, दूसरी प्रति के पृष्ठ भाग पर उसके लिए रसीद हस्ताक्षरित करेगा ।
63. निगमित निकायों और सोसाइटियों पर समन की तामील-किसी निगम पर समन की तामील निगम के सचिव, स्थानीय प्रबंधक या अन्य प्रधान अधिकारी पर तामील करके की जा सकती है या भारत में निगम के मुख्य अधिकारी के पते पर रजिस्ट्रीकृत डाक द्वारा भेजे गए पत्र द्वारा की जा सकती है, जिस दशा में तामील तब हुई समझी जाएगी जब डाक से साधारण रूप से वह पत्र पहुंचता ।
स्पष्टीकरण-इस धारा में निगम" से कोई निगमित कंपनी या अन्य निगमित निकाय अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत सोसाइटी रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1860 (1860 का 21) के अधीन रजिस्ट्रीकृत सोसाइटी भी है ।
64. जब समन किए गए व्यक्ति न मिल सकें तब तामील-जहां समन किया गया व्यक्ति सम्यक् तत्परता बरतने पर भी न मिल सके वहां समन की तामील दो प्रतियों में से एक को उसके कुटुंब के उसके साथ रहने वाले किसी वयस्क पुरुष सदस्य के पास उस व्यक्ति के लिए छोड़कर की जा सकती है और यदि तामील करने वाले अधिकारी द्वारा ऐसी अपेक्षा की जाती है तो, जिस व्यक्ति के पास समन ऐसे छोड़ा जाता है वह दूसरी प्रति के पृष्ठ भाग पर उसके लिए रसीद हस्ताक्षरित करेगा ।
स्पष्टीकरण-सेवक, इस धारा के अर्थ में कुटुम्ब का सदस्य नहीं है ।
65. जब पूर्व उपबंधित प्रकार से तामील न की जा सके तब प्रक्रिया-यदि धारा 62, धारा 63 या धारा 64 में उपबंधित रूप से तामील सम्यक् तत्परता बरतने पर भी न की जा सके तो तामील करने वाला अधिकारी समन की दो प्रतियों में से एक को उस गृह या वासस्थान के, जिसमें समन किया गया व्यक्ति मामूली तौर पर निवास करता है, किसी सहजदृश्य भाग में लगाएगा ; और तब न्यायालय ऐसी जांच करने के पश्चात् जैसी वह ठीक समझे या तो यह घोषित कर सकता है कि समन की सम्यक् तामील हो गई है या वह ऐसी रीति से नई तामील का आदेश दे सकता है जिसे वह उचित समझे ।
66. सरकारी सेवक पर तामील-(1) जहां समन किया गया व्यक्ति सरकार की सक्रिय सेवा में है वहां समन जारी करने वाला न्यायालय मामूली तौर पर ऐसा समन दो प्रतियों में उस कार्यालय के प्रधान को भेजेगा जिसमें वह व्यक्ति सेवक है और तब वह प्रधान, धारा 62 में उपबंधित प्रकार से समन की तामील कराएगा और उस धारा द्वारा अपेक्षित पृष्ठांकन सहित उस पर अपने हस्ताक्षर करके उसे न्यायालय को लौटा देगा ।
(2) ऐसा हस्ताक्षर सम्यक् तामील का साक्ष्य होगा ।
67. स्थानीय सीमाओं के बाहर समन की तामील-जब न्यायालय यह चाहता है कि उसके द्वारा जारी किए गए समन की तामील उसकी स्थानीय अधिकारिता के बाहर किसी स्थान में की जाए तब वह मामूली तौर पर ऐसा समन दो प्रतियों में उस मजिस्ट्रेट को भेजेगा जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर उसकी तामील की जानी है या समन किया गया व्यक्ति निवास करता है ।
68. ऐसे मामलों में और जब तामील करने वाला अधिकारी उपस्थित न हो तब तामील का सबूत-(1) जब न्यायालय द्वारा जारी किए गए समन की तामील उसकी स्थानीय अधिकारिता के बाहर की गई है तब और ऐसे किसी मामले में जिसमें वह अधिकारी जिसने समन की तामील की है, मामले की सुनवाई के समय उपस्थित नहीं है, मजिस्ट्रेट के समक्ष किया गया तात्पर्यित यह शपथपत्र कि ऐसे समन की तामील हो गई है और समन की दूसरी प्रति, जिसका उस व्यक्ति द्वारा जिसको समन परिदत्त या निविदत्त किया गया था, या जिसके पास वह छोड़ा गया था (धारा 62 या धारा 64 में उपबंधित प्रकार से), पृष्ठांकित होना तात्पर्यित है, साक्ष्य में ग्राह्य होगी और जब तक तत्प्रतिकूल साबित न किया जाए, उसमें किए गए कथन सही माने जाएंगे ।
(2) इस धारा में वर्णित शपथपत्र समन की दूसरी प्रति से संलग्न किया जा सकता है और उस न्यायालय को भेजा जा सकता है ।
69. साक्षी पर डाक द्वारा समन की तामील-(1) इस अध्याय की पूर्ववर्ती धाराओं में किसी बात के होते हुए भी साक्षी के लिए समन जारी करने वाला न्यायालय, ऐसा समन जारी करने के अतिरिक्त और उसके साथ-साथ निदेश दे सकता है कि उस समन की एक प्रति की तामील साक्षी के उस स्थान के पते पर, जहां वह मामूली तौर पर निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभार्थ स्वयं काम करता है रजिस्ट्रीकृत डाक द्वारा की जाए ।
(2) जब साक्षी द्वारा हस्ताक्षर की गई तात्पर्यित अभिस्वीकृति या डाक कर्मचारी द्वारा किया गया तात्पर्यित यह पृष्ठांकन कि साक्षी ने समन लेने से इंकार कर दिया है, प्राप्त हो जाता है तो समन जारी करने वाला न्यायालय यह घोषित कर सकता है कि समन की तामील सम्यक् रूप से कर दी गई है ।
ख-गिरफ्तारी का वारंट
70. गिरफ्तारी के वारंट का प्ररूप और अवधि-(1) न्यायालय द्वारा इस संहिता के अधीन जारी किया गया गिरफ्तारी का प्रत्येक वारंट लिखित रूप में और ऐसे न्यायालय के पीठासीन अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित होगा और उस पर उस न्यायालय की मुद्रा लगी होगी ।
(2) ऐसा प्रत्येक वारंट तब तक प्रवर्तन में रहेगा जब तक वह उसे जारी करने वाले न्यायालय द्वारा रद्द नहीं कर दिया जाता है या जब तक वह निष्पादित नहीं कर दिया जाता है ।
71. प्रतिभूति लिए जाने का निदेश देने की शक्ति-(1) किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी करने वाला कोई न्यायालय वारंट पर पृष्ठांकन द्वारा स्वविवेकानुसार यह निदेश दे सकता है कि यदि वह व्यक्ति न्यायालय के समक्ष विनिर्दिष्ट समय पर और तत्पश्चात् जब तक न्यायालय द्वारा अन्यथा निदेश नहीं दिया जाता है तब तक अपनी हाजिरी के लिए पर्याप्त प्रतिभुओं सहित बंधपत्र निष्पादित करता है तो वह अधिकारी जिसे वारंट निदिष्ट किया गया है, ऐसी प्रतिभूति लेगा और उस व्यक्ति को अभिरक्षा से छोड़ देगा ।
(2) पृष्ठांकन में निम्नलिखित बातें कथित होंगी :-
(क) प्रतिभुओं की संख्या ;
(ख) वह रकम, जिसके लिए क्रमशः प्रतिभू और वह व्यक्ति, जिसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी किया गया है, आबद्ध होने हैं ;
(ग) वह समय जब न्यायालय के समक्ष उसे हाजिर होना है ।
(3) जब कभी इस धारा के अधीन प्रतिभूति ली जाती है तब वह अधिकारी जिसे वारंट निदिष्ट है बंधपत्र न्यायालय के पास भेज देगा ।
72. वारंट किसको निदिष्ट होंगे-(1) गिरफ्तारी का वारंट मामूली तौर पर एक या अधिक पुलिस अधिकारियों को निदिष्ट होगा ; किंतु यदि ऐसे वारंट का तुरंत निष्पादन आवश्यक है और कोई पुलिस अधिकारी तुरंत न मिल सके तो वारंट जारी करने वाला न्यायालय किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को उसे निदिष्ट कर सकता है और ऐसा व्यक्ति या ऐसे व्यक्ति उसका निष्पादन करेंगे ।
(2) जब वारंट एक से अधिक अधिकारियों या व्यक्तियों को निदिष्ट है तब उसका निष्पादन उन सबके द्वारा या उनमें से किसी एक या अधिक के द्वारा किया जा सकता है ।
73. वारंट किसी भी व्यक्ति को निदिष्ट हो सकेंगे-(1) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट किसी निकल भागे सिद्धदोष, उद्घोषित अपराधी या किसी ऐसे व्यक्ति की जो किसी अजमानतीय अपराध के लिए अभियुक्त है और गिरफ्तारी से बच रहा है, गिरफ्तारी करने के लिए वारंट अपनी स्थानीय अधिकारिता के अंदर के किसी भी व्यक्ति को निदिष्ट कर सकता है ।
(2) ऐसा व्यक्ति वारंट की प्राप्ति को लिखित रूप में अभिस्वीकार करेगा और यदि वह व्यक्ति, जिसकी गिरफ्तारी के लिए वह वारंट जारी किया गया है, उसके भारसाधन के अधीन किसी भूमि या अन्य संपत्ति में है या प्रवेश करता है तो वह उस वारंट का निष्पादन करेगा ।
(3) जब वह व्यक्ति, जिसके विरुद्ध ऐसा वारंट जारी किया गया है, गिरफ्तार कर लिया जाता है, तब वह वारंट सहित निकटतम पुलिस अधिकारी के हवाले कर दिया जाएगा, जो, यदि धारा 71 के अधीन प्रतिभूति नहीं ली गई है तो, उसे उस मामले में अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष भिजवाएगा ।
74. पुलिस अधिकारी को निदिष्ट वारंट-किसी पुलिस अधिकारी को निदिष्ट वारंट का निष्पादन किसी अन्य ऐसे पुलिस अधिकारी द्वारा भी किया जा सकता है जिसका नाम वारंट पर उस अधिकारी द्वारा पृष्ठांकित किया जाता है जिसे वह निदिष्ट या पृष्ठांकित है ।
75. वारंट के सार की सूचना-पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जो गिरफ्तारी के वारंट का निष्पादन कर रहा है, उस व्यक्ति को, जिसे गिरफ्तार करना है, उसका सार सूचित करेगा और यदि ऐसी अपेक्षा की जाती है तो वारंट उस व्यक्ति को दिखा देगा ।
76. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का न्यायालय के समक्ष अविलम्ब लाया जाना-पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जो गिरफ्तारी के वारंट का निष्पादन करता है, गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को (धारा 71 के प्रतिभूति संबंधी उपबंधों के अधीन रहते हुए) अनावश्यक विलंब के बिना उस न्यायालय के समक्ष लाएगा जिसके समक्ष उस व्यक्ति को पेश करने के लिए वह विधि द्वारा अपेक्षित है :
परंतु ऐसा विलंब किसी भी दशा में गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर चौबीस घंटे से अधिक नहीं होगा ।
77. वारंट कहां निष्पादित किया जा सकता है-गिरफ्तारी का वारंट भारत के किसी भी स्थान में निष्पादित किया जा सकता है ।
78. अधिकारिता के बाहर निष्पादन के लिए भेजा गया वारंट-(1) जब वारंट का निष्पादन उसे जारी करने वाले न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता के बाहर किया जाना है तब वह न्यायालय, ऐसा वारंट अपनी अधिकारिता के अंदर किसी पुलिस अधिकारी को निदिष्ट करने के बजाय उसे डाक द्वारा या अन्यथा किसी ऐसे कार्यपालक मजिस्ट्रेट या जिला पुलिस अधीक्षक या पुलिस आयुक्त को भेज सकता है जिसकी अधिकारिता का स्थानीय सीमाओं के अंदर उसका निष्पादन किया जाना है, और वह कार्यपालक मजिस्ट्रेट या जिला अधीक्षक या आयुक्त उस पर अपना नाम पृष्ठांकित करेगा और यदि साध्य है तो उसका निष्पादन इसमें इसके पूर्व उपबंधित रीति से कराएगा ।
(2) उपधारा (1) के अधीन वारंट जारी करने वाला न्यायालय गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति के विरुद्ध ऐसी जानकारी का सार ऐसी दस्तावेजों सहित, यदि कोई हों, जो धारा 81 के अधीन कार्रवाई करने वाले न्यायालय को, यह विनिश्चित करने में कि उस व्यक्ति की जमानत मंजूर की जाए या नहीं समर्थ बनाने के लिए पर्याप्त हैं, वारंट के साथ भेजेगा ।
79. अधिकारिता के बाहर निष्पादन के लिए पुलिस अधिकारी को निदिष्ट वारंट-(1) जब पुलिस अधिकारी को निदिष्ट वारंट का निष्पादन उसे जारी करने वाले न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता के बाहर किया जाना है तब वह पुलिस अधिकारी उसे पृष्ठांकन के लिए मामूली तौर पर ऐसे कार्यपालक मजिस्ट्रेट के पास, या पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी से अनिम्न पंक्ति के पुलिस अधिकारी के पास, जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के अंदर उस वारंट का निष्पादन किया जाना है, ले जाएगा ।
(2) ऐसा मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी उस पर अपना नाम पृष्ठांकित करेगा और ऐसा पृष्ठांकन उस पुलिस अधिकारी के लिए, जिसको वह वारंट निदिष्ट किया गया है, उसका निष्पादन करने के लिए पर्याप्त प्राधिकार होगा और स्थानीय पुलिस यदि ऐसी अपेक्षा की जाती है तो ऐसे अधिकारी की ऐसे वारंट का निष्पादन करने में सहायता करेगी ।
(3) जब कभी यह विश्वास करने का कारण हो कि उस मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी का, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर वह वारंट निष्पादित किया जाना है, पृष्ठांकन प्राप्त करने में होने वाले विलंब से ऐसा निष्पादन न हो पाएगा, तब वह पुलिस अधिकारी, जिसे वह निदिष्ट किया गया है, उसका निष्पादन उस न्यायालय की जिसने उसे जारी किया है, स्थानीय अधिकारिता से परे किसी स्थान में ऐसे पृष्ठांकन के बिना कर सकता है ।
80. जिस व्यक्ति के विरुद्ध वारंट जारी किया गया है, उसके गिरफ्तार होने पर प्रक्रिया-जब गिरफ्तारी के वारंट का निष्पादन उस जिले से बाहर किया जाता है जिसमें वह जारी किया गया था, तब गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को, उस दशा के सिवाय जिसमें वह न्यायालय जिसने वह वारंट जारी किया गिरफ्तारी के स्थान से तीस किलोमीटर के अंदर है या उस कार्यपालक मजिस्ट्रेट या जिला पुलिस अधीक्षक या पुलिस आयुक्त से, जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के अंदर गिरफ्तारी की गई थी, अधिक निकट है, या धारा 71 के अधीन प्रतिभूति ले ली गई है, ऐसे मजिस्ट्रेट या जिला अधीक्षक या आयुक्त के समक्ष ले जाया जाएगा ।
81. उस मजिस्ट्रेट द्वारा प्रक्रिया जिसके समक्ष ऐसे गिरफ्तार किया गया व्यक्ति लाया जाए-(1) यदि गिरफ्तार किया गया व्यक्ति वही व्यक्ति प्रतीत होता है जो वारंट जारी करने वाले न्यायालय द्वारा आशयित है तो ऐसा कार्यपालक मजिस्ट्रेट या जिला पुलिस अधीक्षक या पुलिस आयुक्त उस न्यायालय के पास उसे अभिरक्षा में भेजने का निदेश देगा :
परंतु यदि अपराध जमानतीय है और ऐसा व्यक्ति ऐसी जमानत देने के लिए तैयार और रजामंद है जिससे ऐसे मजिस्ट्रेट, जिला अधीक्षक या आयुक्त का समाधान हो जाए या वारंट पर धारा 71 के अधीन निदेश पृष्ठांकित है और ऐसा व्यक्ति ऐसे निदेश द्वारा अपेक्षित प्रतिभूति देने के लिए तैयार और रजामंद है तो वह मजिस्ट्रेट, जिला अधीक्षक या आयुक्त, यथास्थिति, ऐसी जमानत या प्रतिभूति लेगा और बंधपत्र उस न्यायालय को भेज देगा जिसने वारंट जारी किया था :
परंतु यह और कि यदि अपराध अजमानतीय है तो (धारा 437 के उपबंधों के अधीन रहते हुए) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के लिए, या उस जिले के जिसमें गिरफ्तारी की गई है सेशन न्यायाधीश के लिए धारा 78 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट जानकारी और दस्तावेजों पर विचार करने के पश्चात् ऐसे व्यक्ति को छोड़ देना विधिपूर्ण होगा ।
(2) इस धारा की कोई बात पुलिस अधिकारी को धारा 71 के अधीन प्रतिभूति लेने से रोकने वाली न समझी जाएगी ।
ग-उद्घोषणा और कुर्की
82. फरार व्यक्ति के लिए उद्घोषणा-(1) यदि किसी न्यायालय को (चाहे साक्ष्य लेने के पश्चात् या लिए बिना) यह विश्वास करने का कारण है कि कोई व्यक्ति जिसके विरुद्ध उसने वारंट जारी किया है, फरार हो गया है, या अपने को छिपा रहा है जिससे ऐसे वारंट का निष्पादन नहीं किया जा सकता तो ऐसा न्यायालय उससे यह अपेक्षा करने वाली लिखित उद्घोषणा प्रकाशित कर सकता है कि वह व्यक्ति विनिर्दिष्ट स्थान में और विनिर्दिष्ट समय पर, जो उस उद्घोषणा के प्रकाशन की तारीख से कम से कम तीस दिन पश्चात् का होगा, हाजिर हो ।
(2) उद्घोषणा निम्नलिखित रूप से प्रकाशित की जाएगी :-
(i) (क) वह उस नगर या ग्राम के, जिसमें ऐसा व्यक्ति मामूली तौर पर निवास करता है, किसी सहजदृश्य स्थान में सार्वजनिक रूप से पढ़ी जाएगी ;
(ख) वह उस गृह या वासस्थान के, जिसमें ऐसा व्यक्ति मामूली तौर पर निवास करता है, किसी सहजदृश्य भाग पर या ऐसे नगर या ग्राम के किसी सहजदृश्य स्थान पर लगाई जाएगी ;
(ग) उसकी एक प्रति उस न्याय सदन के किसी सहजदृश्य भाग पर लगाई जाएगी ;
(ii) यदि न्यायालय ठीक समझता है तो वह यह निदेश भी दे सकता है कि उद्घोषणा की एक प्रति उस स्थान में, परिचालित किसी दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित की जाए जहां ऐसा व्यक्ति मामूली तौर पर निवास करता है ।
(3) उद्घोषणा जारी करने वाले न्यायालय द्वारा यह लिखित कथन कि उद्घोषणा विनिर्दिष्ट दिन उपधारा (2) के खंड (i) में विनिर्दिष्ट रीति से सम्यक् रूप से प्रकाशित कर दी गई है, इस बात का निश्चायक साक्ष्य होगा कि इस धारा की अपेक्षाओं का अनुपालन कर दिया गया है और उद्घोषणा उस दिन प्रकाशित कर दी गई थी ।
[(4) जहां उपधारा (1) के अधीन प्रकाशित की गई उद्घोषणा भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 302, धारा 304, धारा 364, धारा 367, धारा 382, धारा 392, धारा 393, धारा 394, धारा 395, धारा 396, धारा 397, धारा 398, धारा 399, धारा 400, धारा 402, धारा 436, धारा 449, धारा 459, या धारा 460 के अधीन दंडनीय अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के संबंध में है और ऐसा व्यक्ति उद्घोषणा में अपेक्षित विनिर्दिष्ट स्थान और समय पर उपस्थित होने में असफल रहता है तो न्यायालय, तब ऐसी जांच करने के पश्चात् जैसी वह ठीक समझता है, उसे उद्घोषित अपराधी प्रकट कर सकेगा और उस प्रभाव की घोषणा कर सकेगा ।
(5) उपधारा (2) और उपधारा (3) के उपबंध न्यायालय द्वारा उपधारा (4) के अधीन की गई घोषणा को उसी प्रकार लागू होंगे जैसे वे उपधारा (1) के अधीन प्रकाशित उद्घोषणा को लागू होते हैं ।]
83. फरार व्यक्ति की संपत्ति की कुर्की-(1) धारा 82 के अधीन उद्घोषणा जारी करने वाला न्यायालय, ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, उद्घोषणा जारी किए जाने के पश्चात् किसी भी समय, उद्घोषित व्यक्ति की जंगम या स्थावर, अथवा दोनों प्रकार की, किसी भी संपत्ति की कुर्की का आदेश दे सकता है :
परंतु यदि उद्घोषणा जारी करते समय न्यायालय का शपथपत्र द्वारा या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि वह व्यक्ति जिसके संबंध में उद्घोषणा निकाली जानी है-
(क) अपनी समस्त संपत्ति या उसके किसी भाग का व्ययन करने वाला है, अथवा
(ख) अपनी समस्त संपत्ति या उसके किसी भाग को उस न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता से हटाने वाला है,
तो वह उद्घोषणा जारी करने के साथ ही साथ कुर्की का आदेश दे सकता है ।
(2) ऐसा आदेश उस जिले में, जिसमें वह दिया गया है, उस व्यक्ति की किसी भी संपत्ति की कुर्की प्राधिकृत करेगा और उस जिले के बाहर की उस व्यक्ति की किसी संपत्ति की कुर्की तब प्राधिकृत करेगा जब वह उस जिला मजिस्ट्रेट द्वारा, जिसके जिले में ऐसी संपत्ति स्थित है, पृष्ठांकित कर दिया जाए ।
(3) यदि वह संपत्ति जिसको कुर्क करने का आदेश दिया गया है, ऋण या अन्य जंगम संपत्ति हो, तो इस धारा के अधीन कुर्की -
(क) अभिग्रहण द्वारा की जाएगी ; अथवा
(ख) रिसीवर की नियुक्ति द्वारा की जाएगी ; अथवा
(ग) उद्घोषित व्यक्ति को या उसके निमित्त किसी को भी उस संपत्ति का परिदान करने का प्रतिषेध करने वाले लिखित आदेश द्वारा की जाएगी ; अथवा
(घ) इन रीतियों में से सब या किन्हीं दो से की जाएगी, जैसा न्यायालय ठीक समझे ।
(4) यदि वह संपत्ति जिसको कुर्क करने का आदेश दिया गया है, स्थावर है तो इस धारा के अधीन कुर्की राज्य सरकार को राजस्व देने वाली भूमि की दशा में उस जिले के कलक्टर के माध्यम से की जाएगी जिसमें वह भूमि स्थित है, और अन्य सब दशाओं में,-
(क) कब्जा लेकर की जाएगी ; अथवा
(ख) रिसीवर की नियुक्ति द्वारा की जाएगी ; अथवा
(ग) उद्घोषित व्यक्ति को या उसके निमित्त किसी को भी संपत्ति का किराया देने या उस संपत्ति का परिदान करने का प्रतिषेध करने वाले लिखित आदेश द्वारा की जाएगी ; अथवा
(घ) इन रीतियों में से सब या किन्हीं दो से की जाएगी, जैसा न्यायालय ठीक समझे ।
(5) यदि वह संपत्ति जिसको कुर्क करने का आदेश दिया गया है, जीवधन है या विनश्वर प्रकृति की है तो, यदि न्यायालय समीचीन समझता है तो वह उसके तुरंत विक्रय का आदेश दे सकता है और ऐसी दशा में विक्रय के आगम न्यायालय के आदेश के अधीन रहेंगे ।
(6) उस धारा के अधीन नियुक्त रिसीवर की शक्तियां, कर्तव्य और दायित्व वे ही होंगे जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के अधीन नियुक्त रिसीवर के होते हैं ।
84. कुर्की के बारे में दावे और आपत्तियां-(1) यदि धारा 83 के अधीन कुर्क की गई किसी संपत्ति के बारे में उस कुर्की की तारीख से छह मास के भीतर कोई व्यक्ति, जो उद्घोषित व्यक्ति से भिन्न है, इस आधार पर दावा या उसके कुर्क किए जाने पर आपत्ति करता है कि दावेदार या आपत्तिकर्ता का उस संपत्ति में कोई हित है और ऐसा हित धारा 83 के अधीन कुर्क नहीं किया जा सकता तो उस दावे या आपत्ति की जांच की जाएगी, और उसे पूर्णतः या भागतः मंजूर या नामंजूर किया जा सकता है :
परंतु इस उपधारा द्वारा अनुज्ञात अवधि के अंदर किए गए किसी दावे या आपत्ति को दावेदार या आपत्तिकर्ता की मृत्यु हो जाने की दशा में उसके विधिक प्रतिनिधि द्वारा चालू रखा जा सकता है ।
(2) उपधारा (1) के अधीन दावे या आपत्तियां उस न्यायालय में, जिसके द्वारा कुर्की का आदेश जारी किया गया है, या यदि दावा या आपत्ति ऐसी संपत्ति के बारे में है जो धारा 83 की उपधारा (2) के अधीन पृष्ठांकित आदेश के अधीन कुर्क की गई है तो, उस जिले के, जिसमें कुर्की की जाती है मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में की जा सकती है ।
(3) प्रत्येक ऐसे दावे या आपत्ति की जांच उस न्यायालय द्वारा की जाएगी जिसमें वह किया गया या की गई है :
परंतु यदि वह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में किया गया या की गई है तो वह उसे निपटारे के लिए अपने अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट को दे सकता है ।
(4) कोई व्यक्ति, जिसके दावे या आपत्ति को उपधारा (1) के अधीन आदेश द्वारा पूर्णतः या भागतः नामंजूर कर दिया गया है, ऐसे आदेश की तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर, उस अधिकार को सिद्ध करने के लिए, जिसका दावा वह विवादग्रस्त संपत्ति के बारे में करता है, वाद संस्थित कर सकता है ; किंतु वह आदेश ऐसे वाद के, यदि कोई हो, परिणाम के अधीन रहते हुए निश्चायक होगा ।
85. कुर्क की हुई संपत्ति को निर्मुक्त करना, विक्रय और वापस करना-(1) यदि उद्घोषित व्यक्ति उद्घोषणा में विनिर्दिष्ट समय के अंदर हाजिर हो जाता है तो न्यायालय संपत्ति को कुर्की से निर्मुक्त करने का आदेश देगा ।
(2) यदि उद्घोषित व्यक्ति उद्घोषणा में विनिर्दिष्ट समय के अंदर हाजिर नहीं होता है तो कुर्क संपत्ति, राज्य सरकार के व्ययनाधीन रहेगी, और, उसका विक्रय कुर्की की तारीख से छह मास का अवसान हो जाने पर तथा धारा 84 के अधीन किए गए किसी दावे या आपत्ति का उस धारा के अधीन निपटारा हो जाने पर ही किया जा सकता है किंतु यदि वह शीघ्रतया और प्रकृत्या क्षयशील है या न्यायालय के विचार में विक्रय करना स्वामी के फायदे के लिए होगा तो इन दोनों दशाओं में से किसी में भी न्यायालय, जब कभी ठीक समझे, उसका विक्रय करा सकता है ।
(3) यदि कुर्की की तारीख से दो वर्ष के अंदर कोई व्यक्ति, जिसकी संपत्ति उपधारा (2) के अधीन राज्य सरकार के व्ययनाधीन है या रही है, उस न्यायालय के समक्ष, जिसके आदेश से वह संपत्ति कुर्क की गई थी या उस न्यायालय के समक्ष, जिसके ऐसा न्यायालय अधीनस्थ है, स्वेच्छा से हाजिर हो जाता है या पकड़ कर लाया जाता है और उस न्यायालय को समाधानप्रद रूप में यह साबित कर देता है कि वह वारंट के निष्पादन से बचने के प्रयोजन से फरार नहीं हुआ या नहीं छिपा और यह कि उसे उद्घोषणा की ऐसी सूचना नहीं मिली थी जिससे वह उसमें विनिर्दिष्ट समय के अंदर हाजिर हो सकता तो ऐसी संपत्ति का, या यदि वह विक्रय कर दी गई है तो विक्रय के शुद्ध आगमों का, या यदि उसका केवल कुछ भाग विक्रय किया गया है तो ऐसे विक्रय के शुद्ध आगमों और अवशिष्ट संपत्ति का, कुर्की के परिणामस्वरूप उपगत सब खर्चों को उसमें से चुका कर, उसे परिदान कर दिया जाएगा ।
86. कुर्क संपत्ति की वापसी के लिए आवेदन नामंजूर करने वाले आदेश से अपील-धारा 85 की उपधारा (3) में निर्दिष्ट कोई व्यक्ति, जो संपत्ति या उसके विक्रय के आगमों के परिदान के इंकार से व्यथित है, उस न्यायालय से अपील कर सकता है जिसमें प्रथम उल्लिखित न्यायालय के दंडादेशों से सामान्यतया अपीलें होती हैं ।
घ-आदेशिकाओं संबंधी अन्य नियम
87. समन के स्थान पर या उसके अतिरिक्त वारंट का जारी किया जाना-न्यायालय किसी भी ऐसे मामले में, जिसमें वह किसी व्यक्ति की हाजिरी के लिए समन जारी करने के लिए इस संहिता द्वारा सशक्त किया गया है, अपने कारणों को अभिलिखित करने के पश्चात्, उसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर सकता है-
(क) यदि या तो ऐसा समन जारी किए जाने के पूर्व या पश्चात् किंतु उसकी हाजिरी के लिए नियत समय के पूर्व न्यायालय को यह विश्वास करने का कारण दिखाई पड़ता है कि वह फरार हो गया है या समन का पालन न करेगा ; अथवा
(ख) यदि वह ऐसे समय पर हाजिर होने में असफल रहता है और यह साबित कर दिया जाता है कि उस पर समन की तामील सम्यक् रूप से ऐसे समय में कर दी गई थी कि उसके तद्नुसार हाजिर होने के लिए अवसर था और ऐसी असफलता के लिए कोई उचित प्रतिहेतु नहीं दिया जाता है ।
88. हाजिरी के लिए बंधपत्र लेने की शक्ति-जब कोई व्यक्ति, जिसकी हाजिरी या गिरफ्तारी के लिए किसी न्यायालय का पीठासीन अधिकारी समन या वारंट जारी करने के लिए सशक्त है, ऐसे न्यायालय में उपस्थित है तब वह अधिकारी उस व्यक्ति से अपेक्षा कर सकता है कि वह उस न्यायालय में या किसी अन्य न्यायालय में, जिसको मामला विचारण के लिए अंतरित किया जाता है, अपनी हाजिरी के लिए बंधपत्र, प्रतिभुओं सहित या रहित, निष्पादित करे ।
89. हाजिरी का बंधपत्र भंग करने पर गिरफ्तारी-जब कोई व्यक्ति, जो इस संहिता के अधीन लिए गए किसी बंधपत्र द्वारा न्यायालय के समक्ष हाजिर होने के लिए आबद्ध है, हाजिर नहीं होता है तब उस न्यायालय का पीठासीन अधिकारी यह निदेश देते हुए वारंट जारी कर सकता है कि वह व्यक्ति गिरफ्तार किया जाए और उसके समक्ष पेश किया जाए ।
90. इस अध्याय के उपबंधों का साधारणतया समनों और गिरफ्तारी के वारंटों को लागू होना-समन और वारंट तथा उन्हें जारी करने, उनकी तामील और उनके निष्पादन संबंधी जो उपबंध इस अध्याय में हैं वे इस संहिता के अधीन जारी किए गए प्रत्येक समन और गिरफ्तारी के प्रत्येक वारंट को, यथाशक्य लागू होंगे ।
अध्याय 7
चीजें पेश करने को विवश करने के लिए आदेशिकाएं
क-पेश करने के लिए समन
91. दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने के लिए समन-(1) जब कभी कोई न्यायालय या पुलिस थाने का कोई भारसाधक अधिकारी यह समझता है कि किसी ऐसे अन्वेषण, जांच, विचारण, या अन्य कार्यवाही के प्रयोजनों के लिए, जो इस संहिता के अधीन ऐसे न्यायालय या अधिकारी के द्वारा या समक्ष हो रही है, किसी दस्तावेज या अन्य चीज का पेश किया जाना आवश्यक या वांछनीय है तो जिस व्यक्ति के कब्जे या शक्ति में ऐसी दस्तावेज या चीज के होने का विश्वास है उसके नाम ऐसा न्यायालय एक समन या ऐसा अधिकारी एक लिखित आदेश उससे यह अपेक्षा करते हुए जारी कर सकता है कि उस समन या आदेश में उल्लिखित समय और स्थान पर उसे पेश करे अथवा हाजिर हो और उसे पेश करे ।
(2) यदि कोई व्यक्ति, जिससे इस धारा के अधीन दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने की ही अपेक्षा की गई है, उसे पेश करने के लिए स्वयं हाजिर होने के बजाय उस दस्तावेज या चीज को पेश करवा दे तो यह समझा जाएगा कि उसने उस अपेक्षा का अनुपालन कर दिया है ।
(3) इस धारा की कोई बात-
(क) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 123 और 124 या बैंककार बही साक्ष्य अधिनियम, 1891 (1891 का 13) पर प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जाएगी अथवा
(ख) डाक या तार प्राधिकारी की अभिरक्षा में किसी पत्र, पोस्टकार्ड, तार या अन्य दस्तावेज या किसी पार्सल या चीज को लागू होने वाली नहीं समझी जाएगी ।
92. पत्रों और तारों के संबंध में प्रक्रिया-(1) यदि किसी जिला मजिस्ट्रेट, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय की राय में किसी डाक या तार प्राधिकारी की अभिरक्षा की कोई दस्तावेज, पार्सल या चीज इस संहिता के अधीन किसी अन्वेषण, जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के प्रयोजन के लिए चाहिए तो वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय, यथास्थिति, डाक या तार प्राधिकारी से यह अपेक्षा कर सकता है कि उस दस्तावेज, पार्सल या चीज का परिदान उस व्यक्ति को, जिसका वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय निदेश दे, कर दिया जाए ।
(2) यदि किसी अन्य मजिस्ट्रेट की, चाहे वह कार्यपालक है या न्यायिक, या किसी पुलिस आयुक्त या जिला पुलिस अधीक्षक की राय में ऐसी कोई दस्तावेज, पार्सल या चीज ऐसे किसी प्रयोजन के लिए चाहिए तो वह, यथास्थिति, डाक या तार प्राधिकारी से अपेक्षा कर सकता है कि वह ऐसी दस्तावेज, पार्सल या चीज के लिए तलाशी कराए और उसे उपधारा (1) के अधीन जिला मजिस्ट्रेट, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या न्यायालय के आदेशों के मिलने तक निरुद्ध रखे ।
ख-तलाशी-वारंट
93. तलाशी-वारंट कब जारी किया जा सकता है-(1)(क) जहां किसी न्यायालय को यह विश्वास करने का कारण है कि वह व्यक्ति, जिसको धारा 91 के अधीन समन या आदेश या धारा 92 की उपधारा (1) के अधीन अपेक्षा संबोधित की गई है या की जाती है, ऐसे समन या अपेक्षा द्वारा यथा अपेक्षित दस्तावेज या चीज पेश नहीं करेगा या हो सकता है कि पेश न करे अथवा
(ख) जहां ऐसी दस्तावेज या चीज के बारे में न्यायालय को यह ज्ञात नहीं है कि वह किसी व्यक्ति के कब्जे में है अथवा
(ग) जहां न्यायालय यह समझता है कि इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के प्रयोजनों की पूर्ति साधारण तलाशी या निरीक्षण से होगी,
वहां वह तलाशी-वारंट जारी कर सकता है और वह व्यक्ति जिसे ऐसा वारंट निदिष्ट है, उसके अनुसार और इसमें इसके पश्चात् अंतर्विष्ट उपबंधों के अनुसार तालशी ले सकता है या निरीक्षण कर सकता है ।
(2) यदि, न्यायालय ठीक समझता है, तो वह वारंट में उस विशिष्ट स्थान या उसके भाग को विनिर्दिष्ट कर सकता है और केवल उसी स्थान या भाग की तलाशी या निरीक्षण होगा तथा वह व्यक्ति जिसको ऐसे वारंट के निष्पादन का भार सौंपा जाता है केवल उसी स्थान या भाग की तलाशी लेगा या निरीक्षण करेगा जो ऐसे विनिर्दिष्ट है ।
(3) इस धारा की कोई बात जिला मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से भिन्न किसी मजिस्ट्रेट को डाक या तार प्राधिकारी की अभिरक्षा में किसी दस्तावेज, पार्सल या अन्य चीज की तलाशी के लिए वारंट जारी करने के लिए प्राधिकृत नहीं करेगी ।
94. उस स्थान की तलाशी, जिसमें चुराई हुई संपत्ति, कूटरचित दस्तावेज आदि होने का संदेह है-(1) यदि जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को इत्तिला मिलने पर और ऐसी जांच के पश्चात् जैसी वह आवश्यक समझे, यह विश्वास करने का कारण है कि कोई स्थान चुराई हुई संपत्ति के निक्षेप या विक्रय के लिए या किसी ऐसी आपत्तिजनक वस्तु के, जिसको यह धारा लागू होती है, निक्षेप, विक्रय या उत्पादन के लिए उपयोग में लाया जाता है, या कोई ऐसी आपत्तिजनक वस्तु किसी स्थान में निक्षिप्त है, तो वह कांस्टेबल की पंक्ति से ऊपर के किसी पुलिस अधिकारी को वारंट द्वारा यह प्राधिकार दे सकता है कि वह-
(क) उस स्थान में ऐसी सहायता के साथ, जैसी आवश्यक हो, प्रवेश करे
(ख) वारंट में विनिर्दिष्ट रीति से उसकी तलाशी ले
(ग) वहां पाई गई किसी भी संपत्ति या वस्तु को, जिसके चुराई हुई संपत्ति या ऐसी आपत्तिजनक वस्तु, जिसको यह धारा लागू होती है, होने का उसे उचित संदेह है, कब्जे में ले
(घ) ऐसी संपत्ति या वस्तु को मजिस्ट्रेट के पास ले जाए या अपराधी को मजिस्ट्रेट के समक्ष ले जाने तक उसको उसी स्थान पर पहरे में रखे या अन्यथा उसे किसी सुरक्षित स्थान में रखे
(ङ) ऐसे स्थान में पाए गए ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को अभिरक्षा में ले और मजिस्ट्रेट के समक्ष ले जाए, जिसके बारे में प्रतीत हो कि वह किसी ऐसी संपत्ति या वस्तु के निक्षेप, विक्रय या उत्पादन में यह जानते हुए या संदेह करने का उचित कारण रखते हुए संसर्गी रहा है कि, यथास्थिति, वह चुराई हुई संपत्ति है या ऐसी आपत्तिजनक वस्तु है, जिसको यह धारा लागू होती है ।
(2) वे आपत्तिजनक वस्तुएं, जिनको यह धारा लागू होती है, निम्नलिखित हैं -
(क) कूटकृत सिक्का
(ख) धातु टोकन अधिनियम, 1889 (1889 का 1) के उल्लंघन में बनाए गए अथवा सीमाशुल्क अधिनियम, 1962 (1962 का 52) की धारा 11 के अधीन तत्समय प्रवृत्त किसी अधिसूचना के उल्लंघन में भारत में लाए गए धातु-खंड
(ग) कूटकृत करेंसी नोट कूटकृत स्टाम्प
(घ) कूटरचित दस्तावेज
(ङ) नकली मुद्राएं
(च) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 292 में निर्दिष्ट अश्लील वस्तुएं
(छ) खंड (क) से (च) तक के खंडों में उल्लिखित वस्तुओं में से किसी के उत्पादन के लिए प्रयुक्त उपकरण या सामग्री ।
95. कुछ प्रकाशनों के समपहृत होने की घोषणा करने और उनके लिए तलाशी-वारंट जारी करने की शक्ति-(1) जहां राज्य सरकार को प्रतीत होता है कि-
(क) किसी समाचारपत्र या पुस्तक में अथवा
(ख) किसी दस्तावेज में,
चाहे वह कहीं भी मुद्रित हुई हो, कोई ऐसी बात अंतर्विष्ट है जिसका प्रकाशन भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 124क या धारा 153क या धारा 153ख या धारा 292 या धारा 293 या धारा 295क के अधीन दंडनीय है, वहां राज्य सरकार ऐसी बात अंतर्विष्ट करने वाले समाचारपत्र के अंक की प्रत्येक प्रति का और ऐसी पुस्तक या अन्य दस्तावेज की प्रत्येक प्रति का सरकार के पक्ष में समपहरण कर लिए जाने की घोषणा, अपनी राय के आधारों का कथन करते हुए, अधिसूचना द्वारा कर सकती है और तब भारत में, जहां भी वह मिले, कोई भी पुलिस अधिकारी उसे अभिगृहीत कर सकता है और कोई मजिस्ट्रेट, उप-निरीक्षक से अनिम्न पंक्ति के किसी पुलिस अधिकारी को, किसी ऐसे परिसर में, जहां ऐसे किसी अंक की कोई प्रति या ऐसी कोई पुस्तक या अन्य दस्तावेज है या उसके होने का उचित संदेह है, प्रवेश करने और उसके लिए तलाशी लेने के लिए वारंट द्वारा प्राधिकृत कर सकता है ।
(2) इस धारा में और धारा 96 में-
(क) समाचारपत्र" और पुस्तक" के वे ही अर्थ होंगे जो प्रेस और पुस्तक रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1867 (1867 का 25) में हैं,
(ख) दस्तावेज" के अंतर्गत रंगचित्र, रेखाचित्र या फोटोचित्र या अन्य दृश्यरूपण भी हैं ।
(3) इस धारा के अधीन पारित किसी आदेश या की गई किसी कार्रवाई को किसी न्यायालय में धारा 96 के उपबंधों के अनुसार ही प्रश्नगत किया जाएगा अन्यथा नहीं ।
96. समपहरण की घोषणा को अपास्त करने के लिए उच्च न्यायालय में आवेदन-(1) किसी ऐसे समाचारपत्र, पुस्तक या अन्य दस्तावेज में, जिसके बारे में धारा 95 के अधीन समपहरण की घोषणा की गई है, कोई हित रखने वाला कोई व्यक्ति उस घोषणा के राजपत्र में प्रकाशन की तारीख से दो मास के अंदर उस घोषणा को इस आधार पर अपास्त कराने के लिए उच्च न्यायालय में आवेदन कर सकता है कि समाचारपत्र के उस अंक या उस पुस्तक अथवा अन्य दस्तावेज में, जिसके बारे में वह घोषणा की गई थी, कोई ऐसी बात अंतर्विष्ट नहीं है जो धारा 95 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट है ।
(2) जहां उच्च न्यायालय में तीन या अधिक न्यायाधीश हैं, वहां ऐसा प्रत्येक आवेदन उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों से बनी विशेष न्यायपीठ द्वारा सुना और अवधारित किया जाएगा और जहां उच्च न्यायालय में तीन से कम न्यायाधीश हैं वहां ऐसी विशेष न्यायपीठ में उस उच्च न्यायालय के सब न्यायाधीश होंगे ।
(3) किसी समाचारपत्र के संबंध में ऐसे किसी आवेदन की सुनवाई में, उस समाचारपत्र में, जिसकी बाबत समपहरण की घोषणा की गई थी, अंतर्विष्ट शब्दों, चिह्नों या दृश्यरूपणों की प्रकृति या प्रवृत्ति के सबूत में सहायता के लिए उस समाचारपत्र की कोई प्रति साक्ष्य में दी जा सकती है ।
(4) यदि उच्च न्यायालय का इस बारे में समाधान नहीं होता है कि समाचारपत्र के उस अंक में या उस पुस्तक या अन्य दस्तावेज में, जिसके बारे में वह आवेदन किया गया है, कोई ऐसी बात अंतर्विष्ट है जो धारा 95 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट है, तो वह समपहरण की घोषणा को अपास्त कर देगा ।
(5) जहां उन न्यायाधीशों में, जिनसे विशेष न्यायपीठ बनी है, मतभेद है वहां विनिश्चय उन न्यायाधीशों की बहुसंख्या की राय के अनुसार होगा ।
97. सदोष परिरुद्ध व्यक्तियों के लिए तलाशी-यदि किसी जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने का कारण है कि कोई व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों में परिरुद्ध है, जिनमें वह परिरोध अपराध की कोटि में आता है, तो वह तलाशी-वारंट जारी कर सकता है और वह व्यक्ति, जिसको ऐसा वारंट निदिष्ट किया जाता है, ऐसे परिरुद्ध व्यक्ति के लिए तलाशी ले सकता है, और ऐसी तलाशी तद्नुसार ही ली जाएगी और यदि वह व्यक्ति मिल जाए, तो उसे तुरंत मजिस्ट्रेट के समक्ष ले जाया जाएगा, जो ऐसा आदेश करेगा जैसा उस मामले की परिस्थितियों में उचित प्रतीत हो ।
98. अपहृत स्त्रियों को वापस करने के लिए विवश करने की शक्ति-किसी स्त्री या अठारह वर्ष से कम आयु की किसी बालिका के किसी विधिविरुद्ध प्रयोजन के लिए अपहृत किए जाने या विधिविरुद्ध निरुद्ध रखे जाने का शपथ पर परिवाद किए जाने की दशा में जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट यह आदेश कर सकता है कि उस स्त्री को तुरंत स्वतंत्र किया जाए या वह बालिका उसके पति, माता-पिता, संरक्षक या अन्य व्यक्ति को, जो उस बालिका का विधिपूर्ण भारसाधक है, तुरंत वापस कर दी जाए और ऐसे आदेश का अनुपालन ऐसे बल के प्रयोग द्वारा, जैसा आवश्यक हो, करा सकता है ।
ग-तलाशी संबंधी साधारण उपबंध
99. तलाशी-वारंटों का निदेशन आदि-धारा 38, 70, 72, 74, 77, 78 और 79 के उपबंध, जहां तक हो सके, उन सब तलाशी-वारंटों को लागू होंगे जो धारा 93, धारा 94, धारा 95 या धारा 97 के अधीन जारी किए जाते हैं ।
100. बंद स्थान के भारसाधक व्यक्ति तलाशी लेने देंगे-(1) जब कभी इस अध्याय के अधीन तलाशी लिए जाने या निरीक्षण किए जाने वाला कोई स्थान बंद है तब उस स्थान में निवास करने वाला या उसका भारसाधक व्यक्ति उस अधिकारी या अन्य व्यक्ति की, जो वारंट का निष्पादन कर रहा है, मांग पर और वारंट के पेश किए जाने पर उसे उसमें अबाध प्रवेश करने देगा और वहां तलाशी लेने के लिए सब उचित सुविधाएं देगा ।
(2) यदि उस स्थान में इस प्रकार प्रवेश प्राप्त नहीं हो सकता है तो वह अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जो वारंट का निष्पादन कर रहा है धारा 47 की उपधारा (2) द्वारा उपबंधित रीति से कार्यवाही कर सकेगा ।
(3) जहां किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में, जो ऐसे स्थान में या उसके आसपास है, उचित रूप से यह संदेह किया जाता है कि वह अपने शरीर पर कोई ऐसी वस्तु छिपाए हुए है जिसके लिए तलाशी ली जानी चाहिए तो उस व्यक्ति की तलाशी ली जा सकती है और यदि वह व्यक्ति स्त्री है, तो तलाशी शिष्टता का पूर्ण ध्यान रखते हुए अन्य स्त्री द्वारा ली जाएगी ।
(4) इस अध्याय के अधीन तलाशी लेने के पूर्व ऐसा अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जब तलाशी लेने ही वाला हो, तलाशी में हाजिर रहने और उसके साक्षी बनने के लिए उस मुहल्ले के, जिसमें तलाशी लिया जाने वाला स्थान है, दो या अधिक स्वतंत्र और प्रतिष्ठित निवासियों को या यदि उक्त मुहल्ले का ऐसा कोई निवासी नहीं मिलता है या उस तलाशी का साक्षी होने के लिए रजामंद नहीं है तो किसी अन्य मुहल्ले के ऐसे निवासियों को बुलाएगा और उनको या उनमें से किसी को ऐसा करने के लिए लिखित आदेश जारी कर सकेगा ।
(5) तलाशी उनकी उपस्थिति में ली जाएगी और ऐसी तलाशी के अनुक्रम में अभिगृहीत सब चीजों की और जिन-जिन स्थानों में वे पाई गई हैं उनकी सूची ऐसे अधिकारी या अन्य व्यक्ति द्वारा तैयार की जाएगी और ऐसे साक्षियों द्वारा उस पर हस्ताक्षर किए जाएंगे, किंतु इस धारा के अधीन तलाशी के साक्षी बनने वाले किसी व्यक्ति से, तलाशी के साक्षी के रूप में न्यायालय में हाजिर होने की अपेक्षा उस दशा में ही की जाएगी जब वह न्यायालय द्वारा विशेष रूप से समन किया गया हो ।
(6) तलाशी लिए जाने वाले स्थान के अधिभोगी को या उसकी ओर से किसी व्यक्ति को तलाशी के दौरान हाजिर रहने की अनुज्ञा प्रत्येक दशा में दी जाएगी और इस धारा के अधीन तैयार की गई उक्त साक्षियों द्वारा हस्ताक्षरित सूची की एक प्रतिलिपि ऐसे अधिभोगी या ऐसे व्यक्ति को परिदत्त की जाएगी ।
(7) जब किसी व्यक्ति की तलाशी उपधारा (3) के अधीन ली जाती है तब कब्जे में ली गई सब चीजों की सूची तैयार की जाएगी और उसकी एक प्रतिलिपि ऐसे व्यक्ति को परिदत्त की जाएगी ।
(8) कोई व्यक्ति जो इस धारा के अधीन तलाशी में हाजिर रहने और साक्षी बनने के लिए ऐसे लिखित आदेश द्वारा, जो उसे परिदत्त या निविदत्त किया गया है, बुलाए जाने पर, ऐसा करने से उचित कारण के बिना इंकार या उसमें उपेक्षा करेगा, उसके बारे में यह समझा जाएगा कि उसने भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 187 के अधीन अपराध किया है ।
101. अधिकारिता के परे तलाशी में पाई गई चीजों का व्ययन-जब तलाशी-वारंट को किसी ऐसे स्थान में निष्पादित करने में, जो उस न्यायालय की जिसने उसे जारी किया है, स्थानीय अधिकारिता से परे है, उन चीजों में से, जिनके लिए तलाशी ली गई है, कोई चीजें पाई जाएं तब वे चीजें, इसमें इसके पश्चात् अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन तैयार की गई, उनकी सूची के सहित उस न्यायालय के समक्ष, जिसने वारंट जारी किया था तुरंत ले जाई जाएंगी किंतु यदि वह स्थान ऐसे न्यायालय की अपेक्षा उस मजिस्ट्रेट के अधिक समीप है, जो वहां अधिकारिता रखता है, तो सूची और चीजें उस मजिस्ट्रेट के समक्ष तुंरत ले जाई जाएंगी और जब तक तत्प्रतिकूल अच्छा कारण न हो, वह मजिस्ट्रेट उन्हें ऐसे न्यायालय के पास ले जाने के लिए प्राधिकृत करने का आदेश देगा ।
घ-प्रकीर्ण
102. कुछ संपत्ति को अभिगृहीत करने की पुलिस अधिकारी की शक्ति-(1) कोई पुलिस अधिकारी किसी ऐसी संपत्ति को, अभिगृहीत कर सकता है जिसके बारे में यह अभिकथन या संदेह है कि वह चुराई हुई है अथवा जो ऐसी परिस्थितियों में पाई जाती है, जिनसे किसी अपराध के किए जाने का संदेह हो ।
(2) यदि ऐसा पुलिस अधिकारी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के अधीनस्थ है तो वह उस अधिग्रहण की रिपोर्ट उस अधिकारी को तत्काल देगा ।
[(3) उपधारा (1) के अधीन कार्य करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट को अभिग्रहण की रिपोर्ट तुरंत देगा और जहां अभिगृहीत संपत्ति ऐसी है कि वह सुगमता से न्यायालय में नहीं लाई जा सकती है [या जहां ऐसी संपत्ति की अभिरक्षा के लिए उचित स्थान प्राप्त करने में कठिनाई है, या जहां अन्वेषण के प्रयोजन के लिए संपत्ति को पुलिस अभिरक्षा में निरंतर रखा जाना आवश्यक नहीं समझा जाता हैट वहां वह उस संपत्ति को किसी ऐसे व्यक्ति की अभिरक्षा में देगा जो यह वचनबंध करते हुए बंधपत्र निष्पादित करे कि वह संपत्ति को जब कभी अपेक्षा की जाए तब न्यायालय के समक्ष पेश करेगा और उसके व्ययन की बाबत न्यायालय के अतिरिक्त आदेशों का पालन करेगा ]
[परंतु जहां उपधारा (1) के अधीन अभिगृहीत की गई संपत्ति शीघ्रतया और प्रकृत्या क्षयशील हो और यदि ऐसी संपत्ति के कब्जे का हकदार व्यक्ति अज्ञात है अथवा अनुपस्थित है और ऐसी संपत्ति का मूल्य पांच सौ रुपए से कम है, तो उसका पुलिस अधीक्षक के आदेश से तत्काल नीलामी द्वारा विक्रय किया जा सकेगा और धारा 457 और धारा 458 के उपबंध, यथासाध्य निकटतम रूप में, ऐसे विक्रय के शुद्ध आगमों को लागू होंगे ।]
103. मजिस्ट्रेट अपनी उपस्थिति में तलाशी ली जाने का निदेश दे सकता है-कोई मजिस्ट्रेट किसी स्थान की, जिसकी तलाशी के लिए वह तलाशी वारंट जारी करने के लिए सक्षम है, अपनी उपस्थिति में तलाशी ली जाने का निदेश दे सकता है ।
104. पेश की गई दस्तावेज आदि, को परिबद्ध करने की शक्ति-यदि कोई न्यायालय ठीक समझता है, तो वह किसी दस्तावेज या चीज को, जो इस संहिता के अधीन उसके समक्ष पेश की गई है, परिबद्ध कर सकता है ।
105. आदेशिकाओं के बारे में व्यतिकारी व्यवस्था-(1) जहां उन राज्यक्षेत्रों का कोई न्यायालय, जिन पर इस संहिता का विस्तार है (जिन्हें इसके पश्चात् इस धारा में उक्त राज्यक्षेत्र कहा गया है) यह चाहता है कि-
(क) किसी अभियुक्त व्यक्ति के नाम किसी समन की अथवा
(ख) किसी अभियुक्त व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए किसी वारंट की अथवा
(ग) किसी व्यक्ति के नाम यह अपेक्षा करने वाले ऐसे किसी समन की कि वह किसी दस्तावेज या अन्य चीज को पेश करे, अथवा हाजिर हो और उसे पेश करे अथवा
(घ) किसी तलाशी-वारंट की,
[जो उस न्यायालय द्वारा जारी किया गया है, तामील या निष्पादन किसी ऐसे स्थान में किया जाए जो-
(i) उक्त राज्यक्षेत्रों के बाहर भारत में किसी राज्य या क्षेत्र के न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता के अंदर है, वहां वह ऐसे समन या वारंट की तामील या निष्पादन के लिए, दो प्रतियों में, उस न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के पास डाक द्वारा या अन्यथा भेज सकता है और जहां खंड (क) या खंड (ग) में निर्दिष्ट किसी समन की तामील इस प्रकार कर दी गई है वहां धारा 68 के उपबंध उस समन के संबंध में ऐसे लागू होंगे, मानो जिस न्यायालय को वह भेजा गया है उसका पीठासीन अधिकारी उक्त राज्यक्षेत्रों में मजिस्ट्रेट है
(ii) भारत के बाहर किसी ऐसे देश या स्थान में है, जिसकी बाबत केंद्रीय सरकार द्वारा, दांडिक मामलों के संबंध में समन या वारंट की तामील या निष्पादन के लिए ऐसे देश या स्थान की सरकार के (जिसे इस धारा में इसके पश्चात् संविदाकारी राज्य कहा गया है) साथ व्यवस्था की गई है, वहां वह ऐसे न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को निर्दिष्ट ऐसे समन या वारंट को, दो प्रतियों में, ऐसे प्ररूप में और पारेषण के लिए ऐसे प्राधिकारी को भेजेगा, जो केंद्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे ।]
(2) जहां उक्त राज्यक्षेत्रों के न्यायालय को-
(क) किसी अभियुक्त व्यक्ति के नाम कोई समन अथवा
(ख) किसी अभियुक्त व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए कोई वारंट अथवा
(ग) किसी व्यक्ति से यह अपेक्षा करने वाला ऐसा कोई समन कि वह कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करे अथवा हाजिर हो और उसे पेश करे अथवा
(घ) कोई तलाशी-वारंट,
1[जो निम्नलिखित में से किसी के द्वारा जारी किया गया है -
(1) उक्त राज्यक्षेत्रों के बाहर भारत में किसी राज्य या क्षेत्र के न्यायालय
(2) किसी संविदाकारी राज्य का कोई न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट,
तामील या निष्पादन के लिए प्राप्त होता है, वहां वह उसकी तामील या निष्पादन ऐसे कराएगाट मानो वह ऐसा समन या वारंट है जो उसे उक्त राज्यक्षेत्रों के किसी अन्य न्यायालय से अपनी स्थानीय अधिकारिता के अंदर तामील या निष्पादन के लिए प्राप्त हुआ है और जहां-
(i) गिरफ्तारी का वारंट निष्पादित कर दिया जाता है, वहां गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के बारे में कार्यवाही यथासंभव धारा 80 और 81 द्वारा विहित क्रिया के अनुसार की जाएगी,
(ii) तलाशी-वारंट निष्पादित कर दिया जाता है वहां तलाशी में पाई गई चीजों के बारे में कार्यवाही यथासंभव धारा 101 में विहित प्रक्रिया के अनुसार की जाएगी
[परंतु उस मामले में, जहां संविदाकारी राज्य से प्राप्त समन या तलाशी वारंट का निष्पादन कर दिया गया है, तलाशी में पेश किए गए दस्तावेज या चीजें या पाई गई चीजें, समन या तलाशी वारंट जारी करने वाले न्यायालय की, ऐसे प्राधिकारी की मार्फत अग्रेषित की जाएंगी जो केंद्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे । ]
[अध्याय 7क
कुछ मामलों में सहायता के लिए व्यतिकारी व्यवस्था तथा संपत्ति की कुर्की और समपहरण के लिए प्रक्रिया
105क. परिभाषाएं-इस अध्याय में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,-
(क) संविदाकारी राज्य" से भारत के बाहर कोई देश या स्थान अभिप्रेत है जिसके संबंध में केंद्रीय सरकार द्वारा संधि के माध्यम से या अन्यथा ऐसे देश की सरकार के साथ कोई व्यवस्था की गई है
(ख) पहचान करना" के अंतर्गत यह सबूत स्थापित करना है कि संपत्ति किसी अपराध के किए जाने से व्युत्पन्न हुई है या उसमें उपयोग की गई है
(ग) अपराध के आगम" से आपराधिक क्रियाकलापों के (जिनके अंतर्गत मुद्रा अंतरणों को अंतर्वलित करने वाले अपराध हैं) परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्युत्पन्न या अभिप्राप्त कोई संपत्ति या ऐसी किसी संपत्ति का मूल्य अभिप्रेत है
(घ) संपत्ति से भौतिक या अभौतिक", जंगम या स्थावर, मूर्त या अमूर्त हर प्रकार की संपत्ति और आस्ति तथा ऐसी संपत्ति या आस्ति में हक या हित को साक्ष्यित करने वाला विलेख और लिखत अभिप्रेत है जो किसी अपराध के किए जाने से व्युत्पन्न होती है या उसमें उपयोग की जाती है और इसके अंतर्गत अपराध के आगम के माध्यम से अभिप्राप्त संपत्ति है
(ङ) पता लगाना" से किसी संपत्ति की प्रकृति, उसका स्रोत, व्ययन, संचलन, हक या स्वामित्व का अवधारण करना अभिप्रेत है ।
105ख. व्यक्तियों का अंतरण सुनिश्चित करने में सहायता-(1) जहां भारत का कोई न्यायालय, किसी आपराधिक मामले के संबंध में यह चाहता है कि हाजिर होने अथवा किसी दस्तावेज या अन्य चीज को पेश करने के लिए, किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए किसी वारंट का, जो उस न्यायालय द्वारा जारी किया गया है, निष्पादन किसी संविदाकारी राज्य के किसी स्थान में किया जाए वहां वह ऐसे वारंट को दो प्रतियों में और ऐसे प्ररूप में ऐसे न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को, ऐसे प्राधिकारी के माध्यम से भेजेगा, जो केंद्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, और, यथास्थिति, वह न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट उसका निष्पादन कराएगा ।
(2) इस संहिता में किसी बात के होते हुए भी, यदि, किसी अपराध के किसी अन्वेषण या किसी जांच के दौरान अन्वेषण अधिकारी या अन्वेषण अधिकारी से पंक्ति में वरिष्ठ किसी अधिकारी द्वारा यह आवेदन किया जाता है कि किसी ऐसे व्यक्ति की, जो किसी संविदाकारी राज्य के किसी स्थान में है, ऐसे अन्वेषण या जांच के संबंध में हाजिरी अपेक्षित है और न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी हाजिरी अपेक्षित है तो वह उक्त व्यक्ति के विरुद्ध ऐसे समन या वारंट को तामील और निष्पादन कराने के लिए, दो प्रतियों में, ऐसे न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को ऐसे प्ररूप में जारी करेगा, जो केंद्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे ।
(3) जहां भारत के किसी न्यायालय को, किसी आपराधिक मामले के संबंध में, किसी संविदाकारी राज्य के किसी न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किया गया कोई वारंट किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए प्राप्त होता है जिसमें ऐसे व्यक्ति से उस न्यायालय में या किसी अन्य अन्वेषण अभिकरण के समक्ष हाजिर होने अथवा हाजिर होने और कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने की अपेक्षा की गई है वहां वह उसका निष्पादन इस प्रकार कराएगा मानो यह ऐसा वारंट हो जो उसे भारत के किसी अन्य न्यायालय से अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर निष्पादन के लिए प्राप्त हुआ है ।
(4) जहां उपधारा (3) के अनुसरण में किसी संविदाकारी राज्य को अंतरित कोई व्यक्ति भारत में बंदी है वहां भारत का न्यायालय या केंद्रीय सरकार ऐसी शर्तें अधिरोपित कर सकेगी जो वह न्यायालय या सरकार ठीक समझे ।
(5) जहां उपधारा (1) या उपधारा (2) के अनुसरण में भारत को अंतरित कोई व्यक्ति किसी संविदाकारी राज्य में बंदी है वहां भारत का न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि उन शर्तों का, जिनके अधीन बंदी भारत को अंतरित किया जाता है, अनुपालन किया जाए और ऐसे बंदी को ऐसी शर्तों के अधीन अभिरक्षा में रखा जाएगा, जो केंद्रीय सरकार लिखित रूप में निर्दिष्ट करे ।
105ग. संपत्ति की कुर्की या समपहरण के आदेशों के संबंध में सहायता-(1) जहां भारत के किसी न्यायालय के पास यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार हैं कि किसी व्यक्ति द्वारा अभिप्राप्त कोई संपत्ति ऐसे व्यक्ति को किसी अपराध के किए जाने से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्युत्पन्न या अभिप्राप्त हुई है वहां वह ऐसी संपत्ति की कुर्की या समपहरण का कोई आदेश दे सकेगा जो वह धारा 105घ से धारा 105ञ (दोनों सहित) के उपबंधों के अधीन ठीक समझे ।
(2) जहां न्यायालय ने उपधारा (1) के अधीन किसी संपत्ति की कुर्की या समपहरण का कोई आदेश दिया है और ऐसी संपत्ति के किसी संविदाकारी राज्य में होने का संदेह है वहां न्यायालय, संविदाकारी राज्य के न्यायालय या प्राधिकारी को ऐसे आदेश के निष्पादन के लिए अनुरोध-पत्र जारी कर सकेगा ।
(3) जहां केंद्रीय सरकार को किसी संविदाकारी राज्य के किसी न्यायालय या किसी प्राधिकारी से अनुरोध-पत्र प्राप्त होता है जिसमें किसी ऐसी संपत्ति की भारत में कुर्की या समपहरण करने का अनुरोध किया गया है जो किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऐसे अपराध के किए जाने से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्युत्पन्न या अभिप्राप्त की गई है जो उस संविदाकारी राज्य में किया गया है वहां केंद्रीय सरकार, ऐसा अनुरोध-पत्र ऐसे किसी न्यायालय को, जिसे वह ठीक समझे, यथास्थिति, धारा 105घ से धारा 105ञ (दोनों सहित) के या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों के अनुसार निष्पादन के लिए अग्रेषित कर सकेगी ।
105घ. विधिविरुद्धतया अर्जित संपत्ति की पहचान करना-(1) न्यायालय, धारा 105ग की उपधारा (1) के अधीन या उसकी उपधारा (3) के अधीन अनुरोध-पत्र प्राप्त होने पर पुलिस उप-निरीक्षक से अनिम्न पंक्ति के किसी पुलिस अधिकारी को ऐसी संपत्ति का पता लगाने और पहचान करने के लिए सभी आवश्यक कार्रवाई करने के लिए निदेश देगा ।
(2) उपधारा (1) में निर्दिष्ट कार्रवाई के अंतर्गत, किसी व्यक्ति, स्थान, संपत्ति, आस्ति, दस्तावेज, किसी बैंक या सार्वजनिक वित्तीय संस्था की लेखाबही या किसी अन्य सुसंगत विषय की बाबत जांच, अन्वेषण या सर्वेक्षण भी हो सकेगा ।
(3) उपधारा (2) में निर्दिष्ट कोई जांच, अन्वेषण या सर्वेक्षण, उक्त न्यायालय द्वारा इस निमित्त दिए गए निदेशों के अनुसार उपधारा (1) में उल्लिखित अधिकारी द्वारा किया जाएगा ।
105ङ. सम्पत्ति का अभिग्रहण या कुर्की-(1) जहां धारा 105घ के अधीन जांच या अन्वेषण करने वाले किसी अधिकारी के पास यह विश्वास करने का कारण है कि किसी संपत्ति के, जिसके संबंध में ऐसी जांच या अन्वेषण किया जा रहा है, छिपाए जाने, अंतरित किए जाने या उसके विषय में किसी रीति से व्यवहार किए जाने की संभावना है जिसका परिणाम ऐसी संपत्ति का व्ययन होगा वहां वह उक्त संपत्ति का अभिग्रहण करने का आदेश कर सकेगा और जहां ऐसी संपत्ति का अभिग्रहण करना साध्य नहीं है वहां वह कुर्की का आदेश यह निदेश देते हुए कर सकेगा कि ऐसी संपत्ति ऐसा आदेश करने वाले अधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना अंतरित नहीं की जाएगी या उसके विषय में अन्यथा व्यवहार नहीं किया जाएगा और ऐसे आदेश की एक प्रति की तामील संबंधित व्यक्ति पर की जाएगी ।
(2) उपधारा (1) के अधीन किए गए किसी आदेश का तब तक कोई प्रभाव नहीं होगा, जब तक उक्त आदेश की, उसके किए जाने से तीस दिन की अवधि के भीतर उक्त न्यायालय के आदेश द्वारा पुष्टि नहीं कर दी जाती है ।
105च. इस अध्याय के अधीन अभिगृहीत या समपहृत संपत्ति का प्रबंध-(1) न्यायालय उस क्षेत्र के, जहां संपत्ति स्थित है, जिला मजिस्ट्रेट को, या अन्य किसी अधिकारी को, जो जिला मजिस्ट्रेट द्वारा नामनिर्देशित किया जाए, ऐसी संपत्ति के प्रशासक के कृत्यों का पालन करने के लिए नियुक्त कर सकेगा ।
(2) उपधारा (1) के अधीन नियुक्त किया गया प्रशासक, उस संपत्ति को, जिसके संबंध में धारा 105ङ की उपधारा (1) के अधीन या धारा 105ज के अधीन आदेश किया गया है, ऐसी रीति से और ऐसी शर्तों के अधीन रहते हुए, जो केंद्रीय सरकार द्वारा विनिर्दिष्ट की जाएं, प्राप्त करेगा और उसका प्रबंध करेगा ।
(3) प्रशासक, केंद्रीय सरकार को समपहृत संपत्ति के व्ययन के लिए ऐसे उपाय भी करेगा, जो केंद्रीय सरकार निदिष्ट करे ।
105छ. संपत्ति के समपहरण की सूचना-(1) यदि, धारा 105घ के अधीन जांच, अन्वेषण या सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप, न्यायालय के पास यह विश्वास करने का कारण है कि सभी या कोई संपत्ति, अपराध का आगम है तो वह ऐसे व्यक्ति पर (जिसे इसमें इसके पश्चात् प्रभावित व्यक्ति कहा गया है) ऐसी सूचना की तामील कर सकेगा जिसमें उससे यह अपेक्षा की गई हो कि वह उस सूचना में विनिर्दिष्ट तीस दिन की अवधि के भीतर उस आय, उपार्जन या आस्तियों के वे स्रोत, जिनसे या जिनके द्वारा उसने ऐसी संपत्ति अर्जित की है, वह साक्ष्य जिस पर वह निर्भर करता है तथा अन्य सुसंगत जानकारी और विशिष्टियां उपदर्शित करे और यह कारण बताए कि, यथास्थिति, ऐसी सभी या किसी संपत्ति को अपराध का आगम क्यों न घोषित किया जाए और उसे केंद्रीय सरकार को क्यों न समपहृत कर लिया जाए ।
(2) जहां किसी व्यक्ति को उपधारा (1) के अधीन सूचना में यह विनिर्दिष्ट किया जाता है कि कोई संपत्ति ऐसे व्यक्ति की ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा धारित है वहां सूचना की एक प्रति की ऐसे अन्य व्यक्ति पर भी तामील की जाएगी ।
105ज. कतिपय मामलों में संपत्ति का समपहरण-(1) न्यायालय, धारा 105छ के अधीन जारी की गई कारण बताओ सूचना के स्पष्टीकरण पर, यदि कोई हो, और उसके समक्ष उपलब्ध सामग्रियों पर विचार करने के पश्चात् तथा प्रभावित व्यक्ति को (और ऐसे मामले में जहां प्रभावित व्यक्ति सूचना में विनिर्दिष्ट कोई संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से धारित करता है वहां ऐसे अन्य व्यक्ति को भी) सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर देने के पश्चात्, आदेश द्वारा, अपना यह निष्कर्ष अभिलिखित करेगा कि प्रश्नगत सभी या कोई संपत्ति अपराध का आगम है या नहीं :
परंतु यदि प्रभावित व्यक्ति (और मामले में जहां प्रभावित व्यक्ति सूचना में विनिर्दिष्ट कोई संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से धारित करता है वहां ऐसा अन्य व्यक्ति भी) न्यायालय के समक्ष हाजिर नहीं होता है या कारण बताओ सूचना में विनिर्दिष्ट तीस दिन की अवधि के भीतर उसके समक्ष अपना मामला अभ्यावेदित नहीं करता है तो न्यायालय, अपने समक्ष उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर इस उपधारा के अधीन एकपक्षीय निष्कर्ष अभिलिखित करने के लिए अग्रसर हो सकेगा ।
(2) जहां न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि कारण बताओ सूचना में निर्दिष्ट संपत्ति में से कुछ अपराध का आगम है किंतु ऐसी संपत्ति की विनिर्दिष्ट रूप से पहचान करना संभव नहीं है वहां न्यायालय के लिए ऐसी संपत्ति को विनिर्दिष्ट करना जो उसके सर्वोत्तम निर्णय में अपराध का आगम है और तद्नुसार उपधारा (1) के अधीन निष्कर्ष अभिलिखित करना विधिपूर्ण होगा ।
(3) जहां न्यायालय इस धारा के अधीन इस आशय का निष्कर्ष अभिलिखित करता है कि कोई संपत्ति अपराध का आगम है वहां ऐसी संपत्ति सभी विल्लंगमों से मुक्त होकर केंद्रीय सरकार को समपहृत हो जाएगी ।
(4) जहां किसी कंपनी के कोई शेयर इस धारा के अधीन केंद्रीय सरकार को समपहृत हो जाते हैं वहां कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) में या कंपनी के संगम-अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, कंपनी केंद्रीय सरकार को ऐसे शेयरों के अंतरिती के रूप में तुरंत रजिस्टर करेगी ।
105झ. समपहरण के बदले जुर्माना-(1) जहां न्यायालय यह घोषणा करता है कि कोई संपत्ति धारा 105ज के अधीन केंद्रीय सरकार को समपहृत हो गई है और यह ऐसा मामला है जहां ऐसी संपत्ति के केवल कुछ भाग का स्रोत न्यायालय को समाधानप्रद रूप में साबित नहीं किया गया है वहां वह प्रभावित व्यक्ति को, समपहरण के बदले में ऐसे भाग के बाजार मूल्य के बराबर जुर्माने का संदाय करने का विकल्प देते हुए, आदेश देगा ।
(2) उपधारा (1) के अधीन जुर्माना अधिरोपित करने का आदेश देने के पूर्व, प्रभावित व्यक्ति को सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दिया जाएगा ।
(3) जहां प्रभावित व्यक्ति, उपधारा (1) के अधीन देय जुर्माने का ऐसे समय के भीतर, जो उस निमित्त अनुज्ञात किया जाए, संदाय कर देता है वहां न्यायालय, आदेश द्वारा, धारा 105ज के अधीन की गई समपहरण की घोषणा का प्रतिसंहरण कर सकेगा और तब ऐसी संपत्ति निर्मुक्त हो जाएगी ।
105ञ. कुछ अंतरणों का अकृत और शून्य होना-जहां धारा 105ङ की उपधारा (1) के अधीन कोई आदेश करने या धारा 105छ के अधीन कोई सूचना जारी करने के पश्चात्, उक्त आदेश या सूचना में निर्दिष्ट कोई संपत्ति किसी भी रीति से अंतरित कर दी जाती है वहां इस अध्याय के अधीन कार्यवाहियों के प्रयोजनों के लिए, ऐसे अंतरणों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा और यदि ऐसी संपत्ति बाद में धारा 105ज के अधीन केंद्रीय सरकार को समपहृत हो जाती है तो ऐसी संपत्ति का अंतरण अकृत और शून्य समझा जाएगा ।
105ट. अनुरोध-पत्र की बाबत प्रक्रिया-इस अध्याय के अधीन केंद्रीय सरकार को किसी संविदाकारी राज्य से प्राप्त प्रत्येक अनुरोध-पत्र, समन या वारंट और किसी संविदाकारी राज्य को पारेषित किया जाने वाला प्रत्येक अनुरोध-पत्र, समन या वारंट केंद्रीय सरकार द्वारा, ऐसे प्ररूप में और ऐसी रीति से जो केंद्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, यथास्थिति, संविदाकारी राज्य को पारेषित किया जाएगा या भारत के संबंधित न्यायालय को भेजा जाएगा ।
105ठ. इस अध्याय का लागू होना-केंद्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, यह निदेश दे सकेगी कि ऐसे संविदाकारी राज्य के संबंध में, जिसके साथ व्यतिकारी व्यवस्था की गई है, इस अध्याय का लागू होना ऐसी शर्तों, अपवादों या अर्हताओं के अधीन होगा जो उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाएं ।]
अध्याय 8
परिशांति कायम रखने के लिए और सदाचार के लिए प्रतिभूति
106. दोषसिद्धि पर परिशांति कायम रखने के लिए प्रतिभूति-(1) जब सेशन न्यायालय या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट का न्यायालय किसी व्यक्ति को उपधारा (2) में विनिर्दिष्ट अपराधों में से किसी अपराध के लिए या किसी ऐसे अपराध के दुष्प्रेरण के लिए सिद्धदोष ठहराता है और उसकी यह राय है कि यह आवश्यक है कि परिशांति कायम रखने के लिए ऐसे व्यक्ति से प्रतिभूति ली जाए, तब न्यायालय ऐसे व्यक्ति को दंडादेश देते समय उसे आदेश दे सकता है कि वह तीन वर्ष से अनधिक इतनी अवधि के लिए, जितनी वह ठीक समझे, परिशांति कायम रखने के लिए प्रतिभुओं सहित या रहित, बंधपत्र निष्पादित करे ।
(2) उपधारा (1) में निर्दिष्ट अपराध निम्नलिखित हैं -
(क) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 8 के अधीन दंडनीय कोई अपराध जो धारा 153क या धारा 153ख या धारा 154 के अधीन दंडनीय अपराध से भिन्न है ;
(ख) कोई ऐसा अपराध जो, या जिसके अंतर्गत, हमला या आपराधिक बल का प्रयोग या रिष्टि करना है ;
(ग) आपराधिक अभित्रास का कोई अपराध ;
(घ) कोई अन्य अपराध, जिससे परिशांति भंग हुई है या जिससे परिशांति भंग आशयित है, या जिसके बारे में ज्ञात था कि उससे परिशांति भंग संभाव्य है ।
(3) यदि दोषसिद्धि अपील पर या अन्यथा अपास्त कर दी जाती है तो बंधपत्र, जो ऐसे निष्पादित किया गया था, शून्य हो जाएगा ।
(4) इस धारा के अधीन आदेश अपील न्यायालय द्वारा या किसी न्यायालय द्वारा भी जब वह पुनरीक्षण की अपनी शक्तियों का प्रयोग कर रहा हो, किया जा सकेगा ।
107. अन्य दशाओं में परिशांति कायम रखने के लिए प्रतिभूति-(1) जब किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट को इत्तिला मिलती है कि संभाव्य है कि कोई व्यक्ति परिशांति भंग करेगा या लोक प्रशांति विक्षुब्ध करेगा या कोई ऐसा सदोष कार्य करेगा जिससे संभाव्यतः परिशांति भंग हो जाएगी या लोक प्रशांति विक्षुब्ध हो जाएगी तब यदि उसकी राय में कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है तो वह, ऐसे व्यक्ति से इसमें इसके पश्चात् उपबंधित रीति से अपेक्षा कर सकता है कि वह कारण दर्शित करे कि एक वर्ष से अनधिक की इतनी अवधि के लिए, जितनी मजिस्ट्रेट नियत करना ठीक समझे, परिशांति कायम रखने के लिए उसे [प्रतिभुओं सहित या रहितट बंधपत्र निष्पादित करने के लिए आदेश क्यों न दिया जाए ।
(2) इस धारा के अधीन कार्यवाही किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट के समक्ष तब की जा सकती है जब या तो वह स्थान जहां परिशांति भंग या विक्षोभ की आशंका है, उसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर है या ऐसी अधिकारिता के अंदर कोई ऐसा व्यक्ति है, जो ऐसी अधिकारिता के परे संभाव्यतः परिशांति भंग करेगा या लोक प्रशांति विक्षुब्ध करेगा या यथापूर्वोक्त कोई सदोष कार्य करेगा ।
108. राजद्रोहात्मक बातों को फैलाने वाले व्यक्तियों से सदाचार के लिए प्रतिभूति-(1) जब किसी [कार्यपालक मजिस्ट्रेटट को इत्तिला मिलती है कि उसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर कोई ऐसा व्यक्ति है जो ऐसी अधिकारिता के अंदर या बाहर-
(i) या तो मौखिक रूप से या लिखित रूप से या किसी अन्य रूप से निम्नलिखित बातें साशय फैलाता है या फैलाने का प्रयत्न करता है या फैलाने का दुष्प्रेरण करता है, अर्थात् :-
(क) कोई ऐसी बात, जिसका प्रकाशन भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 124क या धारा 153क या धारा 153ख या धारा 295क के अधीन दंडनीय है ; अथवा
(ख) किसी न्यायाधीश से, जो अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में कार्य कर रहा है या कार्य करने का तात्पर्य रखता है, संबद्ध कोई बात जो भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अधीन आपराधिक अभित्रास या मानहानि की कोटि में आती है ; अथवा
(ii) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 292 में यथानिर्दिष्ट कोई अश्लील वस्तु विक्रय के लिए बनाता, उत्पादित करता, प्रकाशित करता या रखता है, आयात करता है, निर्यात करता है, प्रवहण करता है, विक्रय करता है, भाड़े पर देता है, वितरित करता है, सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करता है या किसी अन्य प्रकार से परिचालित करता है,
और उस मजिस्ट्रेट की राय में कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है तब ऐसा मजिस्ट्रेट, ऐसे व्यक्ति से इसमें इसके पश्चात् उपबंधित रीति से अपेक्षा कर सकता है कि वह कारण दर्शित करे कि एक वर्ष से अनधिक की इतनी अवधि के लिए, जितनी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे, उसे अपने सदाचार के लिए प्रतिभुओं सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित करने के लिए आदेश क्यों न दिया जाए ।
(2) प्रेस और पुस्तक रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1867 (1867 का 25) में दिए गए नियमों के अधीन रजिस्ट्रीकृत, और उनके अनुरूप संपादित, मुद्रित और प्रकाशित किसी प्रकाशन में अंतर्विष्ट किसी बात के बारे में कोई कार्यवाही ऐसे प्रकाशन के संपादक, स्वत्वधारी, मुद्रक या प्रकाशक के विरुद्ध राज्य सरकार के, या राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त सशक्त किए गए किसी अधिकारी के आदेश से या उसके प्राधिकार के अधीन ही की जाएगी, अन्यथा नहीं ।
109. संदिग्ध व्यक्तियों से सदाचार के लिए प्रतिभूति-जब किसी 2[कार्यपालक मजिस्ट्रेटट को इत्तिला मिलती है कि कोई व्यक्ति उसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर अपनी उपस्थिति छिपाने के लिए पूर्वावधानियां बरत रहा है और यह विश्वास करने का कारण है कि वह कोई संज्ञेय अपराध करने की दृष्टि से ऐसा कर रहा है, तब वह मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति से इसमें इसके पश्चात् उपबंधित रीति से अपेक्षा कर सकता है कि वह कारण दर्शित करे कि एक वर्ष से अनधिक की इतनी अवधि के लिए, जितनी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे, उसे अपने सदाचार के लिए प्रतिभुओं सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित करने के लिए आदेश क्यों न दिया जाए ।
110. आभ्यासिक अपराधियों से सदाचार के लिए प्रतिभूति-जब किसी 2[कार्यपालक मजिस्ट्रेटट को यह इत्तिला मिलती है कि उसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर कोई ऐसा व्यक्ति है, जो-
(क) अभ्यासतः लुटेरा, गृहभेदक, चोर या कूटरचयिता है ; अथवा
(ख) चुराई हुई संपत्ति का, उसे चुराई हुई जानते हुए, अभ्यासतः प्रापक है ; अथवा
(ग) अभ्यासतः चोरों की संरक्षा करता है या चोरों को संश्रय देता है या चुराई हुई संपत्ति को छिपाने या उसके व्ययन में सहायता देता है ; अथवा
(घ) व्यपहरण, अपहरण, उद्दापन, छल या रिष्टि का अपराध या भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 12 के अधीन या उस संहिता की धारा 489क, धारा 489ख, धारा 489ग या धारा 489घ के अधीन दंडनीय कोई अपराध अभ्यासतः करता है या करने का प्रयत्न करता है या करने का दुष्प्रेरण करता है ; अथवा
(ङ) ऐसे अपराध अभ्यासतः करता है या करने का प्रयत्न करता है या करने का दुष्प्रेरण करता है, जिनमें परिशांति भंग समाहित है ; अथवा
(च) कोई ऐसा अपराध अभ्यासतः करता है या करने का प्रयत्न करता है या करने का दुष्प्रेरण करता है जो -
(i) निम्नलिखित अधिनियमों में से एक या अधिक के अधीन कोई अपराध है, अर्थात् :-
(क) औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 (1940 का 23) ;
[(ख) विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 (1973 का 46) ;]
(ग) कर्मचारी भविष्य-निधि [और कुटुंब पेंशन निधिट अधिनियम, 1952 (1952 का 19) ;
(घ) खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1954 (1954 का 37) ;
(ङ) आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 (1955 का 10) ;
(च) अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 (1955 का 22) ;
(छ) सीमाशुल्क अधिनियम, 1962 (1962 का 52), । । ।
[(ज) विदेशियों विषयक अधिनियम, 1946 (1946 का 31) ; या ट
(ii) जमाखोरी या मुनाफाखोरी अथवा खाद्य या औषधि के अपमिश्रण या भ्रष्टाचार के निवारण के लिए उपबंध करने वाली किसी अन्य विधि के अधीन दंडनीय कोई अपराध है ; या
(झ) ऐसा दुःसाहसिक और भयंकर है कि उसका प्रतिभूति के बिना स्वच्छन्द रहना समाज के लिए परिसंकटमय है,
तब ऐसा मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति से इसमें इसके पश्चात् उपबंधित रीति से अपेक्षा कर सकता है कि वह कारण दर्शित करे कि तीन वर्ष से अनधिक की इतनी अवधि के लिए, जितनी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझता है, उसे अपने सदाचार के लिए प्रतिभुओं सहित बंधपत्र निष्पादित करने का आदेश क्यों न दिया जाए ।
111. आदेश का दिया जाना-जब कोई मजिस्ट्रेट, जो धारा 107, धारा 108, धारा 109 या धारा 110 के अधीन कार्य कर रहा है, यह आवश्यक समझता है कि किसी व्यक्ति से अपेक्षा की जाए कि वह उस धारा के अधीन कारण दर्शित करे तब वह मजिस्ट्रेट प्राप्त इत्तिला का सार, उस बंधपत्र की रकम, जो निष्पादित किया जाना है, वह अवधि जिसके लिए वह प्रवर्तन में रहेगा और प्रतिभुओं की (यदि कोई हो) अपेक्षित संख्या, प्रकार और वर्ग बताते हुए लिखित आदेश देगा ।
112. न्यायालय में उपस्थित व्यक्ति के बारे में प्रक्रिया-यदि वह व्यक्ति, जिसके बारे में ऐसा आदेश दिया जाता है, न्यायालय में उपस्थित है तो वह उसे पढ़कर सुनाया जाएगा या यदि वह ऐसा चाहे तो उसका सार उसे समझाया जाएगा ।
113. ऐसे व्यक्ति के बारे में समन या वारंट जो उपस्थित नहीं है-यदि ऐसा व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित नहीं है तो मजिस्ट्रेट उससे हाजिर होने की अपेक्षा करते हुए समन, या जब ऐसा व्यक्ति अभिरक्षा में है तब जिस अधिकारी की अभिरक्षा में वह है उस अधिकारी को उसे न्यायालय के समक्ष लाने का निदेश देते हुए वारंट, जारी करेगा :
परंतु जब कभी ऐसे मजिस्ट्रेट को पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट पर या अन्य इत्तिला पर (जिस रिपोर्ट या इत्तिला का सार मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित किया जाएगा), यह प्रतीत होता है कि परिशांति भंग होने के डर के लिए कारण है और ऐसे व्यक्ति की तुरंत गिरफ्तारी के बिना ऐसे परिशांति भंग करने का निवारण नहीं किया जा सकता है तब वह मजिस्ट्रेट उसकी गिरफ्तारी के लिए किसी समय वारंट जारी कर सकेगा ।
114. समन या वारंट के साथ आदेश की प्रति होगी-धारा 113 के अधीन जारी किए गए प्रत्येक समन या वारंट के साथ धारा 111 के अधीन दिए गए आदेश की प्रति होगी और उस समन या वारंट की तामील या निष्पादन करने वाला अधिकारी वह प्रति उस व्यक्ति को परिदत्त करेगा जिस पर उसकी तामील की गई है या जो उसके अधीन गिरफ्तार किया गया है ।
115. वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति देने की शक्ति-यदि मजिस्ट्रेट को पर्याप्त कारण दिखाई देता है तो वह ऐसे किसी व्यक्ति को, जिससे इस बात का कारण दर्शित करने की अपेक्षा की गई है कि उसे परिशांति कायम रखने या सदाचार के लिए बंधपत्र निष्पादित करने के लिए आदेश क्यों न दिया जाए, वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकता है और प्लीडर द्वारा हाजिर होने की अनुज्ञा दे सकता है ।
116. इत्तिला की सच्चाई के बारे में जांच-(1) जब धारा 111 के अधीन आदेश किसी व्यक्ति को, जो न्यायालय में उपस्थित है, धारा 112 के अधीन पढ़कर सुना या समझा दिया गया है अथवा, जब कोई व्यक्ति धारा 113 के अधीन जारी किए गए समन या वारंट के अनुपालन या निष्पादन में मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर है या लाया जाता है तब मजिस्ट्रेट उस इत्तिला की सच्चाई के बारे में जांच करने के लिए अग्रसर होगा जिसके आधार पर वह कार्रवाई की गई है और ऐसा अतिरिक्त साक्ष्य ले सकता है जो उसे आवश्यक प्रतीत हो ।
(2) ऐसी जांच यथासाध्य, उस रीति से की जाएगी जो समन-मामलों के विचारण और साक्ष्य के अभिलेखन के लिए इसमें इसके पश्चात् विहित है ।
(3) उपधारा (1) के अधीन जांच प्रारंभ होने के पश्चात् और उसकी समाप्ति से पूर्व यदि मजिस्ट्रेट समझता है कि परिशांति भंग का या लोक प्रशांति विक्षुब्ध होने का या किसी अपराध के किए जाने का निवारण करने के लिए, या लोक सुरक्षा के लिए तुरंत उपाय करने आवश्यक हैं, तो वह ऐसे कारणों से, जिन्हें लेखबद्ध किया जाएगा, उस व्यक्ति को, जिसके बारे में धारा 111 के अधीन आदेश दिया गया है, निदेश दे सकता है कि वह जांच समाप्त होने तक परिशांति कायम रखने और सदाचारी बने रहने के लिए प्रतिभुओं सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित करे और जब तक ऐसा बंधपत्र निष्पादित नहीं कर दिया जाता है, या निष्पादन में व्यतिक्रम होने की दशा में जब तक जांच समाप्त नहीं हो जाती है, उसे अभिरक्षा में निरुद्ध रख सकता है :
परंतु-
(क) किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध धारा 108, धारा 109 या धारा 110 के अधीन कार्यवाही नहीं की जा रही है, सदाचारी बने रहने के लिए बंधपत्र निष्पादित करने के लिए निदेश नहीं दिया जाएगा ;
(ख) ऐसे बंधपत्र की शर्तें, चाहे वे उसकी रकम के बारे में हों या प्रतिभू उपलब्ध करने के या उनकी संख्या के, या उनके दायित्व की धन संबंधी सीमा के बारे में हों, उनसे अधिक दुर्भर न होंगी जो धारा 111 के अधीन आदेश में विनिर्दिष्ट हैं ।
(4) इस धारा के प्रयोजनों के लिए यह तथ्य कि कोई व्यक्ति आभ्यासिक अपराधी है या ऐसा दुःसाहसिक और भयंकर है कि उसका प्रतिभूति के बिना स्वच्छन्द रहना समाज के लिए परिसंकटमय है, साधारण ख्याति के साक्ष्य से या अन्यथा साबित किया जा सकता है ।
(5) जहां दो या अधिक व्यक्ति जांच के अधीन विषय में सहयुक्त रहे हैं वहां मजिस्ट्रेट एक ही जांच या पृथक् जांचों में, जैसा वह न्यायसंगत समझे, उनके बारे में कार्यवाही कर सकता है ।
(6) इस धारा के अधीन जांच उसके आरंभ की तारीख से छह मास की अवधि के अंदर पूरी की जाएगी, और यदि जांच इस प्रकार पूरी नहीं की जाती है तो इस अध्याय के अधीन कार्यवाही उक्त अवधि की समाप्ति पर, पर्यवसित हो जाएगी जब तक विशेष कारणों के आधार पर, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, मजिस्ट्रेट अन्यथा निदेश नहीं करता है :
परंतु जहां कोई व्यक्ति, ऐसी जांच के लंबित रहने के दौरान निरुद्ध रखा गया है वहां उस व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही, यदि पहले ही पर्यवसित नहीं हो जाती है तो ऐसे निरोध के छह मास की अवधि की समाप्ति पर पर्यवसित हो जाएगी ।
(7) जहां कार्यवाहियों को चालू रखने की अनुज्ञा देते हुए उपधारा (6) के अधीन निदेश किया जाता है, वहां सेशन न्यायाधीश व्यथित पक्षकार द्वारा उसे किए गए आवेदन पर ऐसे निदेश को रद्द कर सकता है, यदि उसका समाधान हो जाता है कि वह किसी विशेष कारण पर आधारित नहीं था या अनुचित था ।
117. प्रतिभूति देने का आदेश-यदि ऐसी जांच से यह साबित हो जाता है कि, यथास्थिति, परिशांति कायम रखने के लिए या सदाचार बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि वह व्यक्ति, जिसके बारे में वह जांच की गई है, प्रतिभुओं सहित या रहित, बंधपत्र निष्पादित करे तो मजिस्ट्रेट तद्नुसार आदेश देगा :
परंतु-
(क) किसी व्यक्ति को उस प्रकार से भिन्न प्रकार की या उस रकम से अधिक रकम की या उस अवधि से दीर्घतर अवधि के लिए प्रतिभूति देने के लिए आदिष्ट न किया जाएगा, जो धारा 111 के अधीन दिए गए आदेश में विनिर्दिष्ट है ;
(ख) प्रत्येक बंधपत्र की रकम मामले की परिस्थितियों का सम्यक् ध्यान रख कर नियत की जाएगी और अत्यधिक न होगी ;
(ग) जब वह व्यक्ति, जिसके बारे में जांच की जाती है, अवयस्क है, तब बंधपत्र केवल उसके प्रतिभुओं द्वारा निष्पादित किया जाएगा ।
118. उस व्यक्ति का उन्मोचन जिसके विरुद्ध इत्तिला दी गई है-यदि धारा 116 के अधीन जांच पर यह साबित नहीं होता है कि, यथास्थिति, परिशांति कायम रखने के लिए या सदाचार बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि वह व्यक्ति, जिसके बारे में जांच की गई है, बंधपत्र निष्पादित करे तो मजिस्ट्रेट उस अभिलेख में उस भाव की प्रविष्टि करेगा और यदि ऐसा व्यक्ति केवल उस जांच के प्रयोजनों के लिए ही अभिरक्षा में है तो उसे छोड़ देगा अथवा यदि ऐसा व्यक्ति अभिरक्षा में नहीं है तो उसे उन्मोचित कर देगा ।
119. जिस अवधि के लिए प्रतिभूति अपेक्षित की गई है उसका प्रारंभ-(1) यदि कोई व्यक्ति, जिसके बारे में प्रतिभूति की अपेक्षा करने वाला आदेश धारा 106 या धारा 117 के अधीन दिया गया है, ऐसा आदेश दिए जाने के समय कारावास के लिए दंडादिष्ट है या दंडादेश भुगत रहा है तो वह अवधि, जिसके लिए ऐसी प्रतिभूति की अपेक्षा की गई है, ऐसे दंडादेश के अवसान पर प्रारंभ होगी ।
(2) अन्य दशाओं में ऐसी अवधि, ऐसे आदेश की तारीख से प्रारंभ होगी, जब तक कि मजिस्ट्रेट पर्याप्त कारण से कोई बाद की तारीख नियत न करे ।
120. बंधपत्र की अंतर्वस्तुएं-ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा निष्पादित किया जाने वाला बंधपत्र उसे, यथास्थिति, परिशांति कायम रखने या सदाचारी रहने के लिए आबद्ध करेगा और बाद की दशा में कारावास से दंडनीय कोई अपराध करना या करने का प्रयत्न या दुष्प्रेरण करना चाहे, वह कहीं भी किया जाए, बंधपत्र का भंग है ।
121. प्रतिभुओं को अस्वीकार करने की शक्ति-(1) मजिस्ट्रेट किसी पेश किए गए प्रतिभू को स्वीकार करने से इंकार कर सकता है या अपने द्वारा, या अपने पूर्ववर्ती द्वारा, इस अध्याय के अधीन पहले स्वीकार किए गए किसी प्रतिभू को इस आधार पर अस्वीकार कर सकता है कि ऐसा प्रतिभू बंधपत्र के प्रयोजनों के लिए अनुपयुक्त व्यक्ति है :
परंतु किसी ऐसे प्रतिभू को इस प्रकार स्वीकार करने से इंकार करने या उसे अस्वीकार करने के पहले वह प्रतिभू की उपयुक्तता के बारे में या तो स्वयं शपथ पर जांच करेगा या अपने अधीनस्थ मजिस्ट्रेट से ऐसी जांच और उसके बारे में रिपोर्ट करवाएगा ।
(2) ऐसा मजिस्ट्रेट जांच करने के पहले प्रतिभू को और ऐसे व्यक्ति को, जिसने वह प्रतिभू पेश किया है, उचित सूचना देगा और जांच करने में अपने सामने दिए गए साक्ष्य के सार को अभिलिखित करेगा ।
(3) यदि मजिस्ट्रेट को अपने समक्ष या उपधारा (1) के अधीन प्रतिनियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष ऐसे दिए गए साक्ष्य पर और ऐसे मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट पर (यदि कोई हो), विचार करने के पश्चात् समाधान हो जाता है कि वह प्रतिभू बंधपत्र के प्रयोजनों के लिए अनुपयुक्त व्यक्ति है तो वह उस प्रतिभू को, यथास्थिति, स्वीकार करने से इंकार करने का या उसे अस्वीकार करने का आदेश करेगा और ऐसा करने के लिए अपने कारण अभिलिखित करेगा :
परंतु किसी प्रतिभू को, जो पहले स्वीकार किया जा चुका है, अस्वीकार करने का आदेश देने के पहले मजिस्ट्रेट अपना समन या वारंट, जिसे वह ठीक समझे, जारी करेगा और उस व्यक्ति को, जिसके लिए प्रतिभू आबद्ध है, अपने समक्ष हाजिर कराएगा या बुलवाएगा ।
122. प्रतिभूति देने में व्यतिक्रम होने पर कारावास-(1) (क) यदि कोई व्यक्ति, जिसे धारा 106 या धारा 117 के अधीन प्रतिभूति देने के लिए आदेश दिया गया है, ऐसी प्रतिभूति उस तारीख को या उस तारीख के पूर्व, जिसको वह अवधि, जिसके लिए ऐसी प्रतिभूति दी जानी है, प्रारंभ होती है, नहीं देता है, तो वह इसमें इसके पश्चात् ठीक आगे वर्णित दशा के सिवाय कारागार में भेज दिया जाएगा अथवा यदि वह पहले से ही कारागार में है तो वह कारागार में तब तक निरुद्ध रखा जाएगा जब तक ऐसी अवधि समाप्त न हो जाए या जब तक ऐसी अवधि के भीतर वह उस न्यायालय या मजिस्ट्रेट को प्रतिभूति न दे दे जिसने उसकी अपेक्षा करने वाला आदेश दिया था ।
(ख) यदि किसी व्यक्ति द्वारा धारा 117 के अधीन मजिस्ट्रेट के आदेश के अनुसरण में परिशांति बनाए रखने के लिए [प्रतिभुओं सहित या रहित बंधपत्र] निष्पादित कर दिए जाने के पश्चात्, उसके बारे में ऐसे मजिस्ट्रेट या उसके पद-उत्तरवर्ती को समाधानप्रद रूप में यह साबित कर दिया जाता है कि उसने बंधपत्र का भंग किया है तो ऐसा मजिस्ट्रेट या पद-उत्तरवर्ती, ऐसे सबूत के आधारों को लेखबद्ध करने के पश्चात्, आदेश कर सकता है कि उस व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाए और बंधपत्र की अवधि की समाप्ति तक कारागार में निरुद्ध रखा जाए तथा ऐसा आदेश ऐसे किसी अन्य दंड या समपहरण पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगा जिससे कि उक्त विधि के अनुसार दायित्वाधीन हो ।
(2) जब ऐसे व्यक्ति को एक वर्ष से अधिक की अवधि के लिए प्रतिभूति देने का आदेश मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया है, तब यदि ऐसा व्यक्ति यथापूर्वोक्त प्रतिभूति नहीं देता है तो वह मजिस्ट्रेट यह निदेश देते हुए वारंट जारी करेगा कि सेशन न्यायालय का आदेश होने तक, वह व्यक्ति कारागार में निरुद्ध रखा जाए और वह कार्यवाही सुविधानुसार शीघ्र ऐसे न्यायालय के समक्ष रखी जाएगी ।
(3) ऐसा न्यायालय ऐसी कार्यवाही की परीक्षा करने के और उस मजिस्ट्रेट से किसी और इत्तिला या साक्ष्य की, जिसे वह आवश्यक समझे, अपेक्षा करने के पश्चात् और संबद्ध व्यक्ति को सुने जाने का उचित अवसर देने के पश्चात् मामले में ऐसे आदेश पारित कर सकता है जो वह ठीक समझे :
परंतु वह अवधि (यदि कोई हो) जिसके लिए कोई व्यक्ति प्रतिभूति देने में असफल रहने के कारण कारावासित किया जाता है, तीन वर्ष से अधिक की न होगी ।
(4) यदि एक ही कार्यवाही में ऐसे दो या अधिक व्यक्तियों से प्रतिभूति की अपेक्षा की गई है, जिनमें से किसी एक के बारे में कार्यवाही सेशन न्यायालय को उपधारा (2) के अधीन निर्देशित की गई है, तो ऐसे निर्देश में ऐसे व्यक्तियों में से किसी अन्य व्यक्ति का भी, जिसे प्रतिभूति देने के लिए आदेश दिया गया है, मामला शामिल किया जाएगा और उपधारा (2) और (3) के उपबंध उस दशा में ऐसे अन्य व्यक्ति के मामले को भी इस बात के सिवाय लागू होंगे कि वह अवधि (यदि कोई हो) जिसके लिए वह कारावासित किया जा सकता है, उस अवधि से अधिक न होगी, जिसके लिए प्रतिभूति देने के लिए उसे आदेश दिया गया था ।
(5) सेशन न्यायाधीश उपधारा (2) या उपधारा (4) के अधीन उसके समक्ष रखी गई किसी कार्यवाही को स्वविवेकानुसार अपर सेशन न्यायाधीश या सहायक सेशन न्यायाधीश को अंतरित कर सकता है और ऐसे अंतरण पर ऐसा अपर सेशन न्यायाधीश या सहायक सेशन न्यायाधीश ऐसी कार्यवाही के बारे में इस धारा के अधीन सेशन न्यायाधीश की शक्तियों का प्रयोग कर सकता है ।
(6) यदि प्रतिभूति जेल के भारसाधक अधिकारी को निविदत्त की जाती है तो वह उस मामले को उस न्यायालय या मजिस्ट्रेट को, जिसने आदेश किया, तत्काल निर्देशित करेगा और ऐसे न्यायालय या मजिस्ट्रेट के आदेशों की प्रतीक्षा करेगा ।
(7) परिशांति कायम रखने के लिए प्रतिभूति देने में असफलता के कारण कारावास सादा होगा ।
(8) सदाचार के लिए प्रतिभूति देने में असफलता के कारण कारावास, जहां कार्यवाही धारा 108 के अधीन की गई है, वहां सादा होगा और, जहां कार्यवाही धारा 109 या धारा 110 के अधीन की गई है वहां, जैसा प्रत्येक मामले में न्यायालय या मजिस्ट्रेट निदेश दे, कठिन या सादा होगा ।
123. प्रतिभूति देने में असफलता के कारण कारावासित व्यक्तियों को छोड़ने की शक्ति-(1) जब कभी [धारा 117 के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किसी आदेश के मामले में जिला मजिस्ट्रेट या किसी अन्य मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटट की यह राय है कि कोई व्यक्ति जो इस अध्याय के अधीन प्रतिभूति देने में असफल रहने के कारण कारावासित है, समाज या किसी अन्य व्यक्ति को परिसंकट में डाले बिना छोड़ा जा सकता है तब वह ऐसे व्यक्ति के उन्मोचित किए जाने का आदेश दे सकता है ।
(2) जब कभी कोई व्यक्ति इस अध्याय के अधीन प्रतिभूति देने में असफल रहने के कारण कारावासित किया गया हो तब उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय या जहां आदेश किसी अन्य न्यायालय द्वारा किया गया है वहां 1[धारा 117 के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किसी आदेश के मामले में जिला मजिस्ट्रेट या किसी अन्य मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटट प्रतिभूति की रकम को या प्रतिभुओं की संख्या को या उस समय को, जिसके लिए प्रतिभूति की अपेक्षा की गई है, कम करते हुए आदेश दे सकता है ।
(3) उपधारा (1) के अधीन आदेश ऐसे व्यक्ति का उन्मोचन या तो शर्तों के बिना या ऐसी शर्तों पर, जिन्हें वह व्यक्ति स्वीकार करे, निदिष्ट कर सकता है :
परंतु अधिरोपित की गई कोई शर्त उस अवधि की समाप्ति पर, प्रवृत्त न रहेगी जिसके लिए प्रतिभूति देने का आदेश दिया गया है ।
(4) राज्य सरकार उन शर्तों को विहित कर सकती है जिन पर सशर्त उन्मोचन किया जा सकता है ।
(5) यदि कोई शर्त, जिस पर ऐसा कोई व्यक्ति उन्मोचित किया गया है, 1[धारा 117 के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किसी आदेश के मामले में जिला मजिस्ट्रेट या किसी अन्य मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटट की राय में, जिसने उन्मोचन का आदेश दिया था या उसके उत्तरवर्ती की राय में पूरी नहीं की गई है, तो वह उस आदेश को रद्द कर सकता है ।
(6) जब उन्मोचन का सशर्त आदेश उपधारा (5) के अधीन रद्द कर दिया जाता है तब ऐसा व्यक्ति किसी पुलिस अधिकारी द्वारा वारंट के बिना गिरफ्तार किया जा सकेगा और फिर 1[धारा 117 के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किसी आदेश के मामले में जिला मजिस्ट्रेट या किसी अन्य मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटट के समक्ष पेश किया जाएगा ।
(7) उस दशा के सिवाय जिसमें ऐसा व्यक्ति मूल आदेश के निबंधनों के अनुसार उस अवधि के शेष भाग के लिए, जिसके लिए उसे प्रथम बार कारागार सुपुर्द किया गया था या निरुद्ध किए जाने का आदेश दिया गया था (और ऐसा भाग उस अवधि के बराबर समझा जाएगा, जो उन्मोचन की शर्तों के भंग होने की तारीख और उस तारीख के बीच की है जिसको यह ऐसे सशर्त उन्मोचन के अभाव में छोड़े जाने का हकदार होता) प्रतिभूति दे देता है, 1[धारा 117 के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किसी आदेश के मामले में जिला मजिस्ट्रेट या किसी अन्य मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटट उस व्यक्ति को ऐसा शेष भाग भुगतने के लिए कारागार भेज सकता है ।
(8) उपधारा (7) के अधीन कारागार भेजा गया व्यक्ति, ऐसे न्यायालय या मजिस्ट्रेट को, जिसने ऐसा आदेश किया था या उसके उत्तरवर्ती को, पूर्वोक्त शेष भाग के लिए मूल आदेश के निबंधनों के अनुसार प्रतिभूति देने पर, धारा 122 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी भी समय छोड़ा जा सकता है ।
(9) उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय परिशांति कायम रखने के लिए या सदाचार के लिए बंधपत्र को, जो उसके द्वारा किए गए किसी आदेश से इस अध्याय के अधीन निष्पादित किया गया है, पर्याप्त कारणों से, जो अभिलिखित किए जाएंगे, किसी समय भी रद्द कर सकता है और जहां ऐसा बंधपत्र 1[धारा 117 के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किसी आदेश के मामले में जिला मजिस्ट्रेट या किसी अन्य मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटट के या उसके जिले के किसी न्यायालय के आदेश के अधीन निष्पादित किया गया है वहां वह उसे ऐसे रद्द कर सकता है ।
(10) कोई प्रतिभू जो किसी अन्य व्यक्ति के शांतिमय आचरण या सदाचार के लिए इस अध्याय के अधीन बंधपत्र के निष्पादित करने के लिए आदिष्ट है, ऐसा आदेश करने वाले न्यायालय से बंधपत्र को रद्द करने के लिए किसी भी समय आवेदन कर सकता है और ऐसा आवेदन किए जाने पर न्यायालय यह अपेक्षा करते हुए कि वह व्यक्ति, जिसके लिए ऐसा प्रतिभू आबद्ध है, हाजिर हो या उसके समक्ष लाया जाए, समन या वारंट, जो भी वह ठीक समझे, जारी करेगा ।
124. बंधपत्र की शेष अवधि के लिए प्रतिभूति-(1) जब वह व्यक्ति, जिसको हाजिरी के लिए धारा 121 की उपधारा (3) के परंतुक के अधीन या धारा 123 की उपधारा (10) के अधीन समन या वारंट जारी किया गया है, मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है तब वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय ऐसे व्यक्ति द्वारा निष्पादित बंधपत्र को रद्द कर देगा और उस व्यक्ति को ऐसे बंधपत्र की अवधि के शेष भाग के लिए उसी भांति की, जैसी मूल प्रतिभूति थी, नई प्रतिभूति देने के लिए आदेश देगा ।
(2) ऐसा प्रत्येक आदेश धारा 120 से धारा 123 तक की धाराओं के (जिसके अंतर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं) प्रयोजनों के लिए, यथास्थिति, धारा 106 या धारा 117 के अधीन दिया गया आदेश समझा जाएगा ।
अध्याय 9
पत्नी, संतान और माता-पिता के भरणपोषण के लिए आदेश
125. पत्नी, संतान और माता-पिता के भरणपोषण के लिए आदेश-(1) यदि पर्याप्त साधनों वाला कोई व्यक्ति-
(क) अपनी पत्नी का, जो अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है, या
(ख) अपनी धर्मज या अधर्मज अवयस्क संतान का चाहे विवाहित हो या न हो, जो अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है, या
(ग) अपनी धर्मज या अधर्मज संतान का (जो विवाहित पुत्री नहीं है), जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है, जहां ऐसी संतान किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है, या
(घ) अपने पिता या माता का, जो अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है,
भरणपोषण करने में उपेक्षा करता है या भरणपोषण करने से इंकार करता है तो प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट, ऐसी उपेक्षा या इंकार के साबित हो जाने पर, ऐसे व्यक्ति को यह निदेश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी या ऐसी संतान, पिता या माता के भरणपोषण के लिए ॥। ऐसी मासिक दर पर, जिसे मजिस्ट्रेट ठीक समझे, मासिक भत्ता दे और उस भत्ते का संदाय ऐसे व्यक्ति को करे जिसको संदाय करने का मजिस्ट्रेट समय-समय पर निदेश दे :
परंतु मजिस्ट्रेट खंड (ख) में निर्दिष्ट अवयस्क पुत्री के पिता को निदेश दे सकता है कि वह उस समय तक ऐसा भत्ता दे जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती है यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि ऐसी अवयस्क पुत्री के, यदि वह विवाहित हो, पति के पास पर्याप्त साधन नहीं है :
[परंतु यह और कि मजिस्ट्रेट, इस उपधारा के अधीन भरणपोषण के लिए मासिक भत्ते के संबंध में कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, ऐसे व्यक्ति को यह आदेश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी या ऐसी संतान, पिता या माता के अंतरिम भरणपोषण के लिए मासिक भत्ता और ऐसी कार्यवाही का व्यय दे जिसे मजिस्ट्रेट उचित समझे और ऐसे व्यक्ति को उसका संदाय करे जिसको संदाय करने का मजिस्ट्रेट समय-समय पर निदेश दे :
परंतु यह भी कि दूसरे परंतुक के अधीन अंतरिम भरणपोषण के लिए मासिक भत्ते और कार्यवाही के व्ययों का कोई आवेदन, यथासंभव, ऐसे व्यक्ति पर आवेदन की सूचना की तामील की तारीख से साठ दिन के भीतर निपटाया जाएगा ।]
स्पष्टीकरण-इस अध्याय के प्रयोजनों के लिए -
(क) अवयस्क" से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जिसके बारे में भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 (1875 का 9) के उपबंधों के अधीन यह समझा जाता है कि उसने वयस्कता प्राप्त नहीं की है ;
(ख) पत्नी" के अंतर्गत ऐसी स्त्री भी है जिसके पति ने उससे विवाह-विच्छेद कर लिया है या जिसने अपने पति से विवाह-विच्छेद कर लिया है और जिसने पुनर्विवाह नहीं किया है ।
[(2) भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिए ऐसा कोई भत्ता और कार्यवाही के लिए व्यय, आदेश की तारीख से, या, यदि ऐसा आदेश दिया जाता है तो, यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण और कार्यवाही के व्ययों के लिए आवेदन की तारीख से संदेय होंगे ।]
(3) यदि कोई व्यक्ति जिसे आदेश दिया गया हो, उस आदेश का अनुपालन करने में पर्याप्त कारण के बिना असफल रहता है तो उस आदेश के प्रत्येक भंग के लिए ऐसा कोई मजिस्ट्रेट देय रकम के ऐसी रीति से उद्गृहीत किए जाने के लिए वारंट जारी कर सकता है जैसी रीति जुर्माने उद्गृहीत करने के लिए उपबंधित है, और उस वारंट के निष्पादन के पश्चात् प्रत्येक मास के न चुकाए गए [यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिए पूरे भत्ते और कार्यवाही के व्ययट या उसके किसी भाग के लिए ऐसे व्यक्ति को एक मास तक की अवधि के लिए, अथवा यदि वह उससे पूर्व चुका दिया जाता है तो चुका देने के समय तक के लिए, कारावास का दंडादेश दे सकता है :
परंतु इस धारा के अधीन देय किसी रकम की वसूली के लिए कोई वारंट तब तक जारी न किया जाएगा जब तक उस रकम को उद्गृहीत करने के लिए, उस तारीख से जिसको वह देय हुई एक वर्ष की अवधि के अंदर न्यायालय से आवेदन नहीं किया गया है :
परंतु यह और कि यदि ऐसा व्यक्ति इस शर्त पर भरणपोषण करने की प्रस्थापना करता है कि उसकी पत्नी उसके साथ रहे और वह पति के साथ रहने से इंकार करती है तो ऐसा मजिस्ट्रेट उसके द्वारा कथित इंकार के किन्हीं आधारों पर विचार कर सकता है और ऐसी प्रस्थापना के किए जाने पर भी वह इस धारा के अधीन आदेश दे सकता है यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा आदेश देने के लिए न्यायसंगत आधार है ।
स्पष्टीकरण-यदि पति ने अन्य स्त्री से विवाह कर लिया है या वह रखेल रखता है तो यह उसकी पत्नी द्वारा उसके साथ रहने से इंकार का न्यायसंगत आधार माना जाएगा ।
(4) कोई पत्नी अपने पति से इस आधार के अधीन [यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिए भत्ता और कार्यवाही के व्यय] प्राप्त करने की हकदार न होगी, यदि वह जारता की दशा में रह रही है अथवा यदि वह पर्याप्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है अथवा यदि वे पारस्परिक सम्मति से पृथक् रह रहे हैं ।
(5) मजिस्ट्रेट यह साबित होने पर आदेश को रद्द कर सकता है कि कोई पत्नी, जिसके पक्ष में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया है जारता की दशा में रह रही है अथवा पर्याप्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है अथवा वे पारस्परिक सम्मति से पृथक् रह रहे हैं ।
126. प्रक्रिया-(1) किसी व्यक्ति के विरुद्ध धारा 125 के अधीन कार्यवाही किसी ऐसे जिले में की जा सकती है-
(क) जहां वह है, अथवा
(ख) जहां वह या उसकी पत्नी निवास करती है, अथवा
(ग) जहां उसने अंतिम बार, यथास्थिति, अपनी पत्नी के साथ या अधर्मज संतान की माता के साथ निवास किया है ।
(2) ऐसी कार्यवाही में सब साक्ष्य, ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति में, जिसके विरुद्ध भरणपोषण के लिए संदाय का आदेश देने की प्रस्थापना है, अथवा जब उसकी वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे दी गई है तब उसके प्लीडर की उपस्थिति में लिया जाएगा और उस रीति से अभिलिखित किया जाएगा जो समन-मामलों के लिए विहित है :
परंतु यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाए कि ऐसा व्यक्ति जिसके विरुद्ध भरणपोषण के लिए संदाय का आदेश देने की प्रस्थापना है, तामील से जानबूझकर बच रहा है अथवा न्यायालय में हाजिर होने में जानबूझकर उपेक्षा कर रहा है तो मजिस्ट्रेट मामले को एकपक्षीय रूप में सुनने और अवधारण करने के लिए अग्रसर हो सकता है और ऐसे दिया गया कोई आदेश उसकी तारीख से तीन मास के अंदर किए गए आवेदन पर दर्शित अच्छे कारण से ऐसे निबंधनों के अधीन जिनके अंतर्गत विरोधी पक्षकार को खर्चे के संदाय के बारे में ऐसे निबंधन भी हैं जो मजिस्ट्रेट न्यायोचित और उचित समझें, अपास्त किया जा सकता है ।
(3) धारा 125 के अधीन आवेदनों पर कार्यवाही करने में न्यायालय को शक्ति होगी कि वह खर्चों के बारे में ऐसा आदेश दे जो न्यायसंगत है ।
127. भत्ते में परिवर्तन- [(1) धारा 125 के अधीन भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिए मासिक भत्ता पाने वाले या, यथास्थिति, अपनी पत्नी, संतान, पिता या माता को भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिए मासिक भत्ता देने के लिए उसी धारा के अधीन आदिष्ट किसी व्यक्ति की परिस्थितियों में तब्दीली साबित हो जाने पर मजिस्ट्रेट, यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिए भत्ते में ऐसा परिवर्तन कर सकता है जो वह ठीक समझे ।]
(2) जहां मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि धारा 125 के अधीन दिया गया कोई आदेश किसी सक्षम सिविल न्यायालय के किसी विनिश्चय के परिणामस्वरूप रद्द या परिवर्तित किया जाना चाहिए वहां वह, यथास्थिति, उस आदेश को तद्नुसार रद्द कर देगा या परिवर्तित कर देगा ।
(3) जहां धारा 125 के अधीन कोई आदेश ऐसी स्त्री के पक्ष में दिया गया है जिसके पति ने उससे विवाह-विच्छेद कर लिया है या जिसने अपने पति से विवाह-विच्छेद प्राप्त कर लिया है वहां यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि-
(क) उस स्त्री ने ऐसे विवाह-विच्छेद की तारीख के पश्चात् पुनः विवाह कर लिया है, तो वह ऐसे आदेश को उसके पुनर्विवाह की तारीख से रद्द कर देगा ;
(ख) उस स्त्री के पति ने उससे विवाह-विच्छेद कर लिया है और उस स्त्री ने उक्त आदेश के पूर्व या पश्चात् वह पूरी धनराशि प्राप्त कर ली है जो पक्षकारों को लागू किसी रूढ़िजन्य या स्वीय विधि के अधीन ऐसे विवाह-विच्छेद पर देय थी तो वह ऐसे आदेश को,-
(i) उस दशा में जिसमें ऐसी धनराशि ऐसे आदेश से पूर्व दे दी गई थी उस आदेश के दिए जाने की तारीख से रद्द कर देगा ;
(ii) किसी अन्य दशा में उस अवधि की, यदि कोई हो, जिसके लिए पति द्वारा उस स्त्री को वास्तव में भरणपोषण दिया गया है, समाप्ति की तारीख से रद्द कर देगा ;
(ग) उस स्त्री ने अपने पति से विवाह-विच्छेद प्राप्त कर लिया है और उसने अपने विवाह-विच्छेद के पश्चात् अपने [यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण] के आधारों का स्वेच्छा से अभ्यर्पण कर दिया था, तो वह आदेश को उसकी तारीख से रद्द कर देगा ।
(4) किसी भरणपोषण या दहेज की, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिसे धारा 125 के अधीन [भरणपोषण और अंतरिम भरणपोषण या उनमें से किसी के लिए कोई मासिक भत्ता संदाय किए जाने का आदेश दिया गया है,] वसूली के लिए डिक्री करने के समय सिविल न्यायालय उस राशि की भी गणना करेगा जो ऐसे आदेश के 2[अनुसरण में, यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण या उनमें से किसी के लिए मासिक भत्ते के रूप में] उस व्यक्ति को संदाय की जा चुकी है या उस व्यक्ति द्वारा वसूल की जा चुकी है ।
128. भरणपोषण के आदेश का प्रवर्तन- [यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण और कार्यवाहियों के व्ययों] के आदेश की प्रति, उस व्यक्ति को, जिसके पक्ष में वह दिया गया है या उसके संरक्षक को, यदि कोई हो, या उस व्यक्ति को, [जिसे, यथास्थिति, भरणपोषण के लिए भत्ता या अंतरिम भरणपोषण के लिए भत्ता और कार्यवाही के लिए व्यय दिया जाना है] निःशुल्क दी जाएगी और ऐसे आदेश का प्रवर्तन किसी ऐसे स्थान में, जहां वह व्यक्ति है, जिसके विरुद्ध वह आदेश दिया गया था, किसी मजिस्ट्रेट द्वारा पक्षकारों को पहचान के बारे में और, [यथास्थिति, देय भत्ते या व्ययोंट के न दिए जाने के बारे में ऐसे मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाने पर किया जा सकता है ।
अध्याय 10
लोक व्यवस्था और प्रशांति बनाए रखना
क-विधिविरुद्ध जमाव
129. सिविल बल के प्रयोग द्वारा जमाव को तितर-बितर करना-(1) कोई कार्यपालक मजिस्ट्रेट या पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या ऐसे भारसाधक अधिकारी की अनुपस्थिति में उप निरीक्षक की पंक्ति से अनिम्न कोई पुलिस अधिकारी किसी विधिविरुद्ध जमाव को, या पांच या अधिक व्यक्तियों के किसी ऐसे जमाव को, जिससे लोकशांति विक्षुब्ध होने की संभाव्यता है, तितर-बितर होने का समादेश दे सकता है और तब ऐसे जमाव के सदस्यों का यह कर्तव्य होगा कि वे तद्नुसार तितर-बितर हो जाएं ।
(2) यदि ऐसा समादेश दिए जाने पर ऐसा कोई जमाव तितर-बितर नहीं होता है या यदि ऐसे समादिष्ट हुए बिना वह इस प्रकार से आचरण करता है, जिससे उसका तितर-बितर न होने का निश्चय दर्शित होता है, तो उपधारा (1) में निर्दिष्ट कोई कार्यपालक मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी उस जमाव को बल द्वारा तितर-बितर करने की कार्यवाही कर सकता है और किसी पुरुष से जो सशस्त्र बल का अधिकारी या सदस्य नहीं है और उस नाते कार्य नहीं कर रहा है, ऐसे जमाव को तितर-बितर करने के प्रयोजन के लिए और यदि आवश्यक हो तो उन व्यक्तियों को, जो उसमें सम्मिलित हैं, इसलिए गिरफ्तार करने और परिरुद्ध करने के लिए कि ऐसा जमाव तितर-बितर किया जा सके या उन्हें विधि के अनुसार दंड दिया जा सके, सहायता की अपेक्षा कर सकता है ।
130. जमाव को तितर-बितर करने के लिए सशस्त्र बल का प्रयोग-(1) यदि कोई ऐसा जमाव अन्यथा तितर-बितर नहीं किया जा सकता है और यदि लोक सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उसको तितर-बितर किया जाए तो उच्चतम पंक्ति का कार्यपालक मजिस्ट्रेट, जो उपस्थित हो, सशस्त्र बल द्वारा उसे तितर-बितर करा सकता है ।
(2) ऐसा मजिस्ट्रेट किसी ऐसे अधिकारी से, जो सशस्त्र बल के व्यक्तियों की किसी टुकड़ी का समादेशन कर रहा है, यह अपेक्षा कर सकता है कि वह अपने समादेशाधीन सशस्त्र बल की मदद से जमाव को तितर-बितर कर दे और उसमें सम्मिलित ऐसे व्यक्तियों को, जिनकी बाबत मजिस्ट्रेट निदेश दे या जिन्हें जमाव को तितर-बितर करने या विधि के अनुसार दंड देने के लिए गिरफ्तार और परिरुद्ध करना आवश्यक है, गिरफ्तार और परिरुद्ध करे ।
(3) सशस्त्र बल का प्रत्येक ऐसा अधिकारी ऐसी अध्यपेक्षा का पालन ऐसी रीति से करेगा जैसी वह ठीक समझे, किंतु ऐसा करने में केवल इतने ही बल का प्रयोग करेगा और शरीर और संपत्ति को केवल इतनी ही हानि पहुंचाएगा जितनी उस जमाव को तितर-बितर करने और ऐसे व्यक्तियों को गिरफ्तार और निरुद्ध करने के लिए आवश्यक है ।
131. जमाव को तितर-बितर करने की सशस्त्र बल के कुछ अधिकारियों की शक्ति-जब कोई ऐसा जमाव लोक सुरक्षा को स्पष्टतया संकटापन्न कर देता है और किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट से संपर्क नहीं किया जा सकता है तब सशस्त्र बल का कोई आयुक्त या राजपत्रित अधिकारी ऐसे जमाव को अपने समादेशाधीन सशस्त्र बल की मदद से तितर-बितर कर सकता है और ऐसे किन्हीं व्यक्तियों को, जो उसमें सम्मिलित हों, ऐसे जमाव को तितर-बितर करने के लिए या इसलिए कि उन्हें विधि के अनुसार दंड दिया जा सके, गिरफ्तार और परिरुद्ध कर सकता है, किंतु यदि उस समय, जब वह इस धारा के अधीन कार्य कर रहा है, कार्यपालक मजिस्ट्रेट से संपर्क करना उसके लिए साध्य हो जाता है तो वह ऐसा करेगा और तदनन्तर इस बारे में कि वह ऐसी कार्यवाही चालू रखे या न रखे, मजिस्ट्रेट के अनुदेशों का पालन करेगा ।
132. पूर्ववर्ती धाराओं के अधीन किए गए कार्यों के लिए अभियोजन से संरक्षण-(1) किसी कार्य के लिए, जो धारा 129, धारा 130 या धारा 131 के अधीन किया गया तात्पर्यित है, किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई अभियोजन किसी दंड न्यायालय में-
(क) जहां ऐसा व्यक्ति सशस्त्र बल का कोई अधिकारी या सदस्य है, वहां केंद्रीय सरकार की मंजूरी के बिना संस्थित नहीं किया जाएगा ;
(ख) किसी अन्य मामले में राज्य सरकार की मंजूरी के बिना संस्थित नहीं किया जाएगा ।
(2) (क) उक्त धाराओं में से किसी के अधीन सद्भावपूर्वक कार्य करने वाले किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी के बारे में ;
(ख) धारा 129 या धारा 130 के अधीन अपेक्षा के अनुपालन में सद्भावपूर्वक कार्य करने वाले किसी व्यक्ति के बारे में ;
(ग) धारा 131 के अधीन सद्भावपूर्वक कार्य करने वाले सशस्त्र बल के किसी अधिकारी के बारे में ;
(घ) सशस्त्र बल का कोई सदस्य जिस आदेश का पालन करने के लिए आबद्ध हो उसके पालन में किए गए किसी कार्य के लिए उस सदस्य के बारे में,
यह न समझा जाएगा कि उसने उसके द्वारा कोई अपराध किया है ।
(3) इस धारा में और इस अध्याय की पूर्ववर्ती धाराओं में-
(क) सशस्त्र बल" पद से भूमि बल के रूप में क्रियाशील सेना, नौसेना और वायुसेना अभिप्रेत हैं और इसके अंतर्गत इस प्रकार क्रियाशील संघ के अन्य सशस्त्र बल भी हैं ;
(ख) सशस्त्र बल के संबंध में अधिकारी" से सशस्त्र बल के आफिसर के रूप में आयुक्त, राजपत्रित या वेतनभोगी व्यक्ति अभिप्रेत हैं और इसके अंतर्गत कनिष्ठ आयुक्त आफिसर, वारंट आफिसर, पेटी आफिसर, अनायुक्त आफिसर तथा अराजपत्रित आफिसर भी हैं ;
(ग) सशस्त्र बल के संबंध में सदस्य" से सशस्त्र बल के अधिकारी से भिन्न उसका कोई सदस्य अभिप्रेत है ।
ख-लोक न्यूसेन्स
133. न्यूसेन्स हटाने के लिए सशर्त आदेश-(1) जब किसी जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट का या राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट का किसी पुलिस अधिकारी से रिपोर्ट या अन्य इत्तिला प्राप्त होने पर और ऐसा साक्ष्य (यदि कोई हो) लेने पर, जैसा वह ठीक समझे, यह विचार है कि-
(क) किसी लोक स्थान या किसी मार्ग, नदी या जलसरणी से, जो जनता द्वारा विधिपूर्वक उपयोग में लाई जाती है या लाई जा सकती है, कोई विधिविरुद्ध बाधा या न्यूसेन्स हटाया जाना चाहिए ; अथवा
(ख) किसी व्यापार या उपजीविका को चलाना या किसी माल या पण्य वस्तु को रखना समाज के स्वास्थ्य या शारीरिक सुख के लिए हानिकर है और परिणामतः ऐसा व्यापार या उपजीविका प्रतिषिद्ध या विनियमित की जानी चाहिए या ऐसा माल या पण्य वस्तु हटा दी जानी चाहिए या उसको रखना विनियमित किया जाना चाहिए ; अथवा
(ग) किसी भवन का निर्माण या किसी पदार्थ का व्ययन, जिससे सम्भाव्य है कि अग्निकांड या विस्फोट हो जाए, रोक दिया या बंद कर दिया जाना चाहिए ; अथवा
(घ) कोई भवन, तंबू, संरचना या कोई वृक्ष ऐसी दशा में है कि संभाव्य है कि वह गिर जाए और पड़ोस में रहने या कारबार करने वाले या पास से निकलने वाले व्यक्तियों को उससे हानि हो, और परिणामतः ऐसे भवन, तम्बू या संरचना को हटाना, या उसकी मरम्मत करना या उसमें आलंब लगाना, या ऐसे वृक्ष को हटाना या उसमें आलंब लगाना आवश्यक है ;
(ङ) ऐसे किसी मार्ग या लोक स्थान के पार्श्वस्थ किसी तालाब, कुएं या उत्खात को इस प्रकार से बाड़ लगा दी जानी चाहिए कि जनता को होने वाले खतरे का निवारण हो सके ; अथवा
(च) किसी भयानक जीवजंतु को नष्ट, परिरुद्ध या उसका अन्यथा व्ययन किया जाना चाहिए,
तब ऐसा मजिस्ट्रेट ऐसी बाधा या न्यूसेंस पैदा करने वाले या ऐसा व्यापार या उपजीविका चलाने वाले या किसी ऐसे माल या पण्य वस्तु को रखने वाले या ऐसे भवन, तंबू, संरचना, पदार्थ, तालाब, कुएं या उत्खात का स्वामित्व या कब्जा या नियंत्रण रखने वाले या ऐसे जीवजंतु या वृक्ष का स्वामित्व या कब्जा रखने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षा करते हुए सशर्त आदेश दे सकता है कि उतने समय के अंदर, जितना उस आदेश में नियत किया जाएगा, वह-
(i) ऐसी बाधा या न्यूसेन्स को हटा दे ; अथवा
(ii) ऐसा व्यापार या उपजीविका चलाना छोड़ दे या उसे ऐसी रीति से बंद कर दे या विनियमित करे, जैसी निदिष्ट की जाए अथवा ऐसे मामले या पण्य वस्तु को हटाए या उसको रखना ऐसी रीति से विनियमित करे जैसी निदिष्ट की जाए ; अथवा
(iii) ऐसे भवन का निर्माण रोके या बंद करे, या ऐसे पदार्थ के व्ययन में परिवर्तन करे ; अथवा
(iv) ऐसे भवन, तंबू या संरचना को हटाए, उसकी मरम्मत कराए या उसमें आलम्ब लगाए अथवा ऐसे वृक्षों को हटाए या उनमें आलंब लगाए ; अथवा
(v) ऐसे तालाब, कुएं या उत्खात को बाढ़ लगाए ; अथवा
(vi) ऐसे भयानक जीवजंतु को उस रीति से नष्ट करे, परिरुद्ध करे या उसका व्ययन करे, जो उस आदेश में उपबंधित है,
अथवा यदि वह ऐसा करने में आपत्ति करता है तो वह स्वयं उसके समक्ष या उसके अधीनस्थ किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट के समक्ष उस समय और स्थान पर, जो उस आदेश द्वारा नियत किया जाएगा, हाजिर हो और इसमें इसके पश्चात् उपबंधित प्रकार से कारण दर्शित करे कि उस आदेश को अंतिम क्यों न कर दिया जाए ।
(2) मजिस्ट्रेट द्वारा इस धारा के अधीन सम्यक् रूप से दिए गए किसी भी आदेश को किसी सिविल न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जाएगा ।
स्पष्टीकरण-लोक स्थान" के अंतर्गत राज्य की संपत्ति, पड़ाव के मैदान और स्वच्छता या आमोद-प्रमोद के प्रयोजन के लिए खाली छोड़े गए मैदान भी हैं ।
134. आदेश की तामील या अधिसूचना-(1) आदेश की तामील उस व्यक्ति पर, जिसके विरुद्ध वह किया गया है, यदि साध्य हो तो उस रीति से की जाएगी जो समन की तामील के लिए इसमें उपबंधित है ।
(2) यदि ऐसे आदेश की तामील इस प्रकार नहीं की जा सकती है तो उसकी अधिसूचना ऐसी रीति से प्रकाशित उद्घोषणा द्वारा की जाएगी जैसी राज्य सरकार नियम द्वारा निदिष्ट करे और उसकी एक प्रति ऐसे स्थान या स्थानों पर चिपका दी जाएगी जो उस व्यक्ति को इत्तिला पहुंचाने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त हैं ।
135. जिस व्यक्ति को आदेश संबोधित है वह उसका पालन करे या कारण दर्शित करे-वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध ऐसा आदेश दिया गया है-
(क) उस आदेश द्वारा निदिष्ट कार्य उस समय के अंदर और उस रीति से करेगा जो आदेश में विनिर्दिष्ट है, अथवा
(ख) उस आदेश के अनुसार हाजिर होगा और उसके विरुद्ध कारण दर्शित करेगा ।
136. उसके ऐसा करने में असफल रहने का परिणाम-यदि ऐसा व्यक्ति ऐसे कार्य को नहीं करता है या हाजिर होकर कारण दर्शित नहीं करता है, तो वह भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 188 में उस निमित्त विहित शास्ति का दायी होगा और आदेश अंतिम कर दिया जाएगा ।
137. जहां लोक अधिकार के अस्तित्व से इंकार किया जाता है वहां प्रक्रिया-(1) जहां किसी मार्ग, नदी, जलसरणी या स्थान के उपयोग में जनता को होने वाली बाधा, न्यूसेन्स या खतरे का निवारण करने के प्रयोजन के लिए कोई आदेश धारा 133 के अधीन किया जाता है वहां मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के जिसके विरुद्ध वह आदेश किया गया है अपने समक्ष हाजिर होने पर, उससे प्रश्न करेगा कि क्या वह उस मार्ग, नदी, जलसरणी या स्थान के बारे में किसी लोक अधिकार के अस्तित्व से इंकार करता है और यदि वह ऐसा करता है तो मजिस्ट्रेट धारा 138 के अधीन कार्यवाही करने के पहले उस बात की जांच करेगा ।
(2) यदि ऐसी जांच में मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि ऐसे इंकार के समर्थन में कोई विश्वसनीय साक्ष्य है तो वह कार्यवाही को तब तक के लिए रोक देगा जब तक ऐसे अधिकार के अस्तित्व का मामला सक्षम न्यायालय द्वारा विनिश्चित नहीं कर दिया जाता है ; और यदि वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है तो वह धारा 138 के अनुसार कार्यवाही करेगा ।
(3) मजिस्ट्रेट द्वारा उपधारा (1) के अधीन प्रश्न किए जाने पर, जो व्यक्ति उसमें निर्दिष्ट प्रकार के लोक अधिकार के अस्तित्व से इंकार नहीं करता है या ऐसा इंकार करने पर उसके समर्थन में विश्वसनीय साक्ष्य देने में असफल रहता है उसे पश्चात्वर्ती कार्यवाहियों में ऐसा कोई इंकार नहीं करने दिया जाएगा ।
138. जहां वह कारण दर्शित करने के लिए हाजिर है वहां प्रक्रिया-(1) यदि वह व्यक्ति, जिसके विरुद्ध धारा 133 के अधीन आदेश दिया गया है, हाजिर है और आदेश के विरुद्ध कारण दर्शित करता है तो मजिस्ट्रेट उस मामले में उस प्रकार साक्ष्य लेगा जैसे समन मामले मे लिया जाता है ।
(2) यदि मजिस्ट्रेट का यह समाधान हो जाता है कि आदेश या तो जैसा मूलतः किया गया था उस रूप में या ऐसे परिवर्तन के साथ, जिसे वह आवश्यक समझे, युक्तियुक्त और उचित है तो वह आदेश, यथास्थिति, परिवर्तन के बिना या ऐसे परिवर्तन के सहित अंतिम कर दिया जाएगा ।
(3) यदि मजिस्ट्रेट का ऐसा समाधान नहीं होता है तो उस मामले में आगे कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी ।
139. स्थानीय अन्वेषण के लिए निदेश देने और विशेषज्ञ की परीक्षा करने की मजिस्ट्रेट की शक्ति-मजिस्ट्रेट धारा 137 या धारा 138 के अधीन किसी जांच के प्रयोजनों के लिए,-
(क) ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिसे वह ठीक समझे, स्थानीय अन्वेषण किए जाने के लिए निदेश दे सकता है, अथवा
(ख) किसी विशेषज्ञ को समन कर सकता है और उसकी परीक्षा कर सकता है ।
140. मजिस्ट्रेट की लिखित अनुदेश आदि देने की शक्ति-(1) जहां मजिस्ट्रेट धारा 139 के अधीन किसी व्यक्ति द्वारा स्थानीय अन्वेषण किए जाने के लिए निदेश देता है वहां मजिस्ट्रेट-
(क) उस व्यक्ति को ऐसे लिखित अनुदेश दे सकता है जो उसके मार्गदर्शन के लिए आवश्यक प्रतीत हों,
(ख) यह घोषित कर सकता है कि स्थानीय अन्वेषण का सब आवश्यक व्यय, या उसका कोई भाग, किसके द्वारा दिया जाएगा ।
(2) ऐसे व्यक्ति की रिपोर्ट को मामले में साक्ष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है ।
(3) जहां मजिस्ट्रेट धारा 139 के अधीन किसी विशेषज्ञ को समन करता है और उसकी परीक्षा करता है वहां मजिस्ट्रेट निदेश दे सकता है कि ऐसे समन करने और परीक्षा करने के खर्चे किसके द्वारा दिए जाएंगे ।
141. आदेश अंतिम कर दिए जाने पर प्रक्रिया और उसकी अवज्ञा के परिणाम-(1) जब धारा 136 या धारा 138 के अधीन आदेश अंतिम कर दिया जाता है तब मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध वह आदेश दिया गया है, उसकी सूचना देगा और उससे यह भी अपेक्षा करेगा कि वह उस आदेश द्वारा निदिष्ट कार्य इतने समय के अंदर करे, जितना सूचना में नियत किया जाएगा और उसे इत्तिला देगा कि अवज्ञा करने पर वह भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 188 द्वारा उपबंधित शास्ति का भागी होगा ।
(2) यदि ऐसा कार्य नियत समय के अंदर नहीं किया जाता है तो मजिस्ट्रेट उसे करा सकता है और उसके किए जाने में हुए खर्चों को किसी भवन, माल या अन्य संपत्ति के, जो उसके आदेश द्वारा हटाई गई है, विक्रय द्वारा अथवा ऐसे मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता के अंदर या बाहर स्थित उस व्यक्ति की अन्य जंगम संपत्ति के करस्थम् और विक्रय द्वारा वसूल कर सकता है और यदि ऐसी अन्य संपत्ति ऐसी अधिकारिता के बाहर है तो उस आदेश से ऐसी कुर्की और विक्रय तब प्राधिकृत होगा जब वह उस मजिस्ट्रेट द्वारा पृष्ठांकित कर दिया जाता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर कुर्क की जाने वाली संपत्ति पाई जाती है ।
(3) इस धारा के अधीन सद्भावपूर्वक की गई किसी बात के बारे में कोई वाद न होगा ।
142. जांच के लंबित रहने तक व्यादेश-(1) यदि धारा 133 के अधीन आदेश देने वाला मजिस्ट्रेट यह समझता है कि जनता को आसन्न खतरे या गंभीर किस्म की हानि का निवारण करने के लिए तुरंत उपाय किए जाने चाहिएं तो वह, उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध आदेश दिया गया था, ऐसा व्यादेश देगा जैसा उस खतरे या हानि को, मामले का अवधारण होने तक, दूर या निवारित करने के लिए अपेक्षित है ।
(2) यदि ऐसे व्यादेश के तत्काल पालन में उस व्यक्ति द्वारा व्यतिक्रम किया जाता है तो मजिस्ट्रेट स्वयं ऐसे साधनों का उपयोग कर सकता है या करवा सकता है जो वह उस खतरे को दूर करने या हानि का निवारण करने के लिए ठीक समझे ।
(3) मजिस्ट्रेट द्वारा इस धारा के अधीन सद्भावपूर्वक की गई किसी बात के बारे में कोई वाद न होगा ।
143. मजिस्ट्रेट लोक न्यूसेंस की पुनरावृत्ति या उसे चालू रखने का प्रतिषेध कर सकता है-कोई जिला मजिस्ट्रेट अथवा उपखंड मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त सशक्त किया गया कोई अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को आदेश दे सकता है कि वह भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) में या किसी अन्य विशेष या स्थानीय विधि में यथापरिभाषित लोक न्यूसेंस की न तो पुनरावृत्ति करे और न उसे चालू रखे ।
ग-न्यूसेंस या आशंकित खतरे के अर्जेंट मामले
144. न्यूसेंस या आशंकित खतरे के अर्जेंट मामलों में आदेश जारी करने की शक्ति-(1) उन मामलों में, जिनमें जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट अथवा राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त किए गए किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट की राय में इस धारा के अधीन कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है और तुरंत निवारण या शीघ्र उपचार करना वांछनीय है, वह मजिस्ट्रेट ऐसे लिखित आदेश द्वारा जिसमें मामले के तात्त्विक तथ्यों का कथन होगा और जिसकी तामील धारा 134 द्वारा उपबंधित रीति से कराई जाएगी, किसी व्यक्ति को कार्य-विशेष न करने या अपने कब्जे की या अपने प्रबंधाधीन किसी विशिष्ट संपत्ति की कोई विशिष्ट व्यवस्था करने का निदेश उस दशा में दे सकता है जिसमें ऐसा मजिस्ट्रेट समझता है कि ऐसे निदेश से यह संभाव्य है, या ऐसे निदेश की यह प्रवृत्ति है कि विधिपूर्वक नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा, क्षोभ या क्षति का, या मानव जीवन, स्वास्थ्य या क्षेम को खतरे का, या लोक प्रशांति विक्षुब्ध होने का, या बलवे या दंगे का निवारण हो जाएगा ।
(2) इस धारा के अधीन आदेश, आपात की दशाओं में या उन दशाओं में जब परिस्थितियां ऐसी हैं कि उस व्यक्ति पर, जिसके विरुद्ध वह आदेश निदिष्ट है, सूचना की तामील सम्यक् समय में करने की गुंजाइश न हो, एक पक्षीय रूप में पारित किया जा सकता है ।
(3) इस धारा के अधीन आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति को, या किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को अथवा आम जनता को, जब वे किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में जाते रहते हैं या जाएं, निदिष्ट किया जा सकता है ।
(4) इस धारा के अधीन कोई आदेश उस आदेश के दिए जाने की तारीख से दो मास से आगे प्रवृत्त न रहेगा :
परंतु यदि राज्य सरकार मानव जीवन, स्वास्थ्य या क्षेम को खतरे का निवारण करने के लिए अथवा बलवे या किसी दंगे का निवारण करने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझती है तो वह अधिसूचना द्वारा यह निदेश दे सकती है कि मजिस्ट्रेट द्वारा इस धारा के अधीन किया गया कोई आदेश उतनी अतिरिक्त अवधि के लिए, जितनी वह उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट करे, प्रवृत्त रहेगा ; किंतु वह अतिरिक्त अवधि उस तारीख से छह मास से अधिक की न होगी जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया आदेश ऐसे निदेश के अभाव में समाप्त हो गया होता ।
(5) कोई मजिस्ट्रेट या तो स्वप्रेरणा से या किसी व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर किसी ऐसे आदेश को विखंडित या परिवर्तित कर सकता है जो स्वयं उसने या उसके अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट ने या उसके पद-पूर्ववर्ती ने इस धारा के अधीन दिया है ।
(6) राज्य सरकार उपधारा (4) के परंतुक के अधीन अपने द्वारा दिए गए किसी आदेश को या तो स्वप्रेरणा से या किसी व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर विखंडित या परिवर्तित कर सकती है ।
(7) जहां उपधारा (5) या उपधारा (6) के अधीन आवेदन प्राप्त होता है वहां, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार आवेदक को या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा उसके समक्ष हाजिर होने और आदेश के विरुद्ध कारण दर्शित करने का शीघ्र अवसर देगी ; और यदि, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार आवेदन को पूर्णतः या अंशतः नामंजूर कर दे तो वह ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगी ।
।[144क.-परिशिष्ट 1 देखिए ।]
घ-स्थावर संपत्ति के बारे में विवाद
145. जहां भूमि या जल से संबद्ध विवादों से परिशांति भंग होना संभाव्य है वहां प्रक्रिया-(1) जब कभी किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट का, पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट से या अन्य इत्तिला पर समाधान हो जाता है कि उसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर किसी भूमि या जल या उसकी सीमाओं से संबद्ध ऐसा विवाद विद्यमान है, जिससे परिशांति भंग होना संभाव्य है, तब वह अपना ऐसा समाधान होने के आधारों का कथन करते हुए और ऐसे विवाद से संबद्ध पक्षकारों से यह अपेक्षा करते हुए लिखित आदेश देगा कि वे विनिर्दिष्ट तारीख और समय पर स्वयं या प्लीडर द्वारा उसके न्यायालय में हाजिर हों और विवाद की विषयवस्तु पर वास्तविक कब्जे के तथ्य के बारे में अपने-अपने दावों का लिखित कथन पेश करें ।
(2) इस धारा के प्रयोजनों के लिए भूमि या जल" पद के अंतर्गत भवन, बाजार, मीनक्षेत्र, फसलें, भूमि की अन्य उपज और ऐसी किसी संपत्ति के भाटक या लाभ भी हैं ।
(3) इस आदेश की एक प्रति की तामील इस संहिता द्वारा समनों की तामील के लिए उपबंधित रीति से ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों पर की जाएगी, जिन्हें मजिस्ट्रेट निदिष्ट करे और कम से कम एक प्रति विवाद की विषयवस्तु पर या उसके निकट किसी सहजदृश्य स्थान पर लगाकर प्रकाशित की जाएगी ।
(4) मजिस्ट्रेट तब विवाद की विषयवस्तु को पक्षकारों में से किसी के भी कब्जे में रखने के अधिकार के गुणागुण या दावे के प्रति निर्देश किए बिना उन कथनों का, जो ऐसे पेश किए गए हैं, परिशीलन करेगा, पक्षकारों को सुनेगा और ऐसा सभी साक्ष्य लेगा जो उनके द्वारा प्रस्तुत किया जाए, ऐसा अतिरिक्त साक्ष्य, यदि कोई हो ; लेगा जैसा वह आवश्यक समझे और यदि संभव हो तो यह विनिश्चित करेगा कि क्या उन पक्षकारों में से कोई उपधारा (1) के अधीन उसके द्वारा दिए गए आदेश की तारीख पर विवाद की विषयवस्तु पर कब्जा रखता था और यदि रखता था तो वह कौन सा पक्षकार था :
परंतु यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि कोई पक्षकार उस तारीख के, जिसको पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट या अन्य इत्तिला मजिस्ट्रेट को प्राप्त हुई, ठीक पूर्व दो मास के अंदर या उस तारीख के पश्चात् और उपधारा (1) के अधीन उसके आदेश की तारीख के पूर्व बलात् और सदोष रूप से बेकब्जा किया गया है तो वह यह मान सकेगा कि उस प्रकार बेकब्जा किया गया पक्षकार उपधारा (1) के अधीन उसके आदेश की तारीख को कब्जा रखता था ।
(5) इस धारा की कोई बात, हाजिर होने के लिए ऐसे अपेक्षित किसी पक्षकार को या किसी अन्य हितबद्ध व्यक्ति को यह दर्शित करने से नहीं रोकेगी कि कोई पूर्वोक्त प्रकार का विवाद वर्तमान नहीं है या नहीं रहा है और ऐसी दशा में मजिस्ट्रेट अपने उक्त आदेश को रद्द कर देगा और उस पर आगे की सब कार्यवाहियां रोक दी जाएंगी किंतु उपधारा (1) के अधीन मजिस्ट्रेट का आदेश ऐसे रद्दकरण के अधीन रहते हुए अंतिम होगा ।
(6) (क) यदि मजिस्ट्रेट यह विनिश्चय करता है कि पक्षकारों में से एक का उक्त विषयवस्तु पर ऐसा कब्जा था या उपधारा (4) के परंतुक के अधीन ऐसा कब्जा माना जाना चाहिए, तो वह यह घोषणा करने वाला कि ऐसा पक्षकार उस पर तब तक कब्जा रखने का हकदार है जब तक उसे विधि के सम्यक् अनुक्रम में बेदखल न कर दिया जाए और यह निषेध करने वाला कि जब तक ऐसी बेदखली न कर दी जाए तब तक ऐसे कब्जे में कोई विघ्न न डाला जाए, आदेश जारी करेगा ; और जब वह उपधारा (4) के परंतुक के अधीन कार्यवाही करता है तब उस पक्षकार को, जो बलात् और सदोष बेकब्जा किया गया है, कब्जा लौटा सकता है ।
(ख) इस उपधारा के अधीन दिया गया आदेश उपधारा (3) में अधिकथित रीति से तामील और प्रकाशित किया जाएगा ।
(7) जब किसी ऐसी कार्यवाही के पक्षकार की मृत्यु हो जाती है तब मजिस्ट्रेट मृत पक्षकार के विधिक प्रतिनिधि को कार्यवाही का पक्षकार बनवा सकेगा और फिर जांच चालू रखेगा और यदि इस बारे में कोई प्रश्न उत्पन्न होता है कि मृत पक्षकार का ऐसी कार्यवाही के प्रयोजन के लिए विधिक प्रतिनिधि कौन है तो मृत पक्षकार का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले सब व्यक्तियों को उस कार्यवाही का पक्षकार बना लिया जाएगा ।
(8) यदि मजिस्ट्रेट की यह राय है कि उस संपत्ति की, जो इस धारा के अधीन उसके समक्ष लंबित कार्यवाही में विवाद की विषयवस्तु है, कोई फसल या अन्य उपज शीघ्रतया और प्रकृत्या क्षयशील है तो वह ऐसी संपत्ति की उचित अभिरक्षा या विक्रय के लिए आदेश दे सकता है और जांच के समाप्त होने पर ऐसी संपत्ति के या उसके विक्रय के आगमों के व्ययन के लिए ऐसा आदेश दे सकता है जो वह ठीक समझे ।
(9) यदि मजिस्ट्रेट ठीक समझे तो वह इस धारा के अधीन कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम में पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर किसी साक्षी के नाम समन यह निदेश देते हुए जारी कर सकता है कि वह हाजिर हो या कोई दस्तावेज या चीज पेश करे ।
(10) इस धारा की कोई बात धारा 107 के अधीन कार्यवाही करने की मजिस्ट्रेट की शक्तियों का अल्पीकरण करने वाली नहीं समझी जाएगी ।
146. विवाद की विषयवस्तु का कुर्क करने की और रिसीवर नियुक्त करने की शक्ति-(1) यदि धारा 145 की उपधारा (1) के अधीन आदेश करने के पश्चात् किसी समय मजिस्ट्रेट मामले को आपातिक समझता है अथवा यदि वह विनिश्चय करता है कि पक्षकारों में से किसी का धारा 145 में यथानिर्दिष्ट कब्जा उस समय नहीं था, अथवा यदि वह अपना समाधान नहीं कर पाता है कि उस समय उनमें से किसका ऐसा कब्जा विवाद की विषयवस्तु पर था तो वह विवाद की विषयवस्तु को तब तक के लिए कुर्क कर सकता है जब तक कोई सक्षम न्यायालय उसके कब्जे का हकदार व्यक्ति होने के बारे में उसके पक्षकारों के अधिकारों का अवधारण नहीं कर देता है :
परंतु यदि ऐसे मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि विवाद की विषयवस्तु के बारे में परिशांति भंग होने की कोई संभाव्यता नहीं रही तो वह किसी समय भी कुर्की वापस ले सकता है ।
(2) जब मजिस्ट्रेट विवाद की विषयवस्तु को कुर्क करता है तब यदि ऐसी विवाद की विषयवस्तु के संबंध में कोई रिसीवर किसी सिविल न्यायालय द्वारा नियुक्त नहीं किया गया है तो, वह उसके लिए ऐसा इंतजाम कर सकता है जो वह उस संपत्ति की देखभाल के लिए उचित समझता है अथवा यदि वह ठीक समझता है तो, उसके लिए रिसीवर नियुक्त कर सकता है जिसको मजिस्ट्रेट के नियंत्रण के अधीन रहते हुए वे सब शक्तियां प्राप्त होंगी जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के अधीन रिसीवर की होती हैं :
परंतु यदि विवाद की विषयवस्तु के संबंध में कोई रिसीवर किसी सिविल न्यायालय द्वारा बाद में नियुक्त कर दिया जाता है तो मजिस्ट्रेट-
(क) अपने द्वारा नियुक्त रिसीवर को आदेश देगा कि वह विवाद की विषयवस्तु का कब्जा सिविल न्यायालय द्वारा नियुक्त रिसीवर को दे दे और तत्पश्चात् वह अपने द्वारा नियुक्त रिसीवर को उन्मोचित कर देगा,
(ख) ऐसे अन्य आनुषंगिक या पारिणामिक आदेश कर सकेगा जो न्यायसंगत हैं ।
147. भूमि या जल के उपयोग के अधिकार से संबद्ध विवाद-(1) जब किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट का, पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट से या अन्य इत्तिला पर, समाधान हो जाता है कि उसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर किसी भूमि या जल के उपयोग के किसी अभिकथित अधिकार के बारे में, चाहे ऐसे अधिकार का दावा सुखाचार के रूप में किया गया हो या अन्यथा, विवाद वर्तमान है जिससे परिशांति भंग होनी संभाव्य है, तब वह अपना ऐसा समाधान होने के आधारों का कथन करते हुए और विवाद से संबद्ध पक्षकारों से यह अपेक्षा करते हुए लिखित आदेश दे सकता है कि वे विनिर्दिष्ट तारीख और समय पर स्वयं या प्लीडर द्वारा उसके न्यायालय में हाजिर हों और अपने-अपने दावों का लिखित कथन पेश करें ।
स्पष्टीकरण-भूमि या जल" पद का वही अर्थ होगा जो धारा 145 की उपधारा (2) में दिया गया है ।
(2) मजिस्ट्रेट तब इस प्रकार पेश किए गए कथनों का परिशीलन करेगा, पक्षकारों को सुनेगा, ऐसा सब साक्ष्य लेगा जो उनके द्वारा पेश किया जाए, ऐसे साक्ष्य के प्रभाव पर विचार करेगा, ऐसा अतिरिक्त साक्ष्य, यदि कोई हो, लेगा जो वह आवश्यक समझे और, यदि संभव हो तो विनिश्चय करेगा कि क्या ऐसा अधिकार वर्तमान है ; और ऐसी जांच के मामले में धारा 145 के उपबंध यावत्शक्य लागू होंगे ।
(3) यदि उस मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि ऐसे अधिकार वर्तमान हैं तो वह ऐसे अधिकार के प्रयोग में किसी भी हस्तक्षेप का प्रतिषेध करने का और यथोचित मामले में ऐसे किसी अधिकार के प्रयोग में किसी बाधा को हटाने का भी आदेश दे सकता है :
परंतु जहां ऐसे अधिकार का प्रयोग वर्ष में हर समय किया जा सकता है वहां जब तक ऐसे अधिकार का प्रयोग उपधारा (1) के अधीन पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट या अन्य इत्तिला की, जिसके परिणामस्वरूप जांच संस्थित की गई है, प्राप्ति के ठीक पहले तीन मास के अंदर नहीं किया गया है अथवा जहां ऐसे अधिकार का प्रयोग विशिष्ट मौसमों में ही या विशिष्ट अवसरों पर ही किया जा सकता है वहां जब तक ऐसे अधिकार का प्रयोग ऐसी प्राप्ति के पूर्व के ऐसे मौसमों में से अंतिम मौसम के दौरान या ऐसे अवसरों में से अंतिम अवसर पर नहीं किया गया है, ऐसा कोई आदेश नहीं दिया जाएगा ।
(4) जब धारा 145 की उपधारा (1) के अधीन प्रारंभ की गई किसी कार्यवाही में मजिस्ट्रेट को यह मालूम पड़ता है कि विवाद भूमि या जल के उपयोग के किसी अभिकथित अधिकार के बारे में है, तो वह, अपने कारण अभिलिखित करने के पश्चात् कार्यवाही को ऐसे चालू रख सकता है, मानो वह उपधारा (1) के अधीन प्रारंभ की गई हो ;
और जब उपधारा (1) के अधीन प्रारंभ की गई किसी कार्यवाही में मजिस्ट्रेट को यह मालूम पड़ता है कि विवाद के संबंध में धारा 145 के अधीन कार्यवाही की जानी चाहिए तो वह अपने कारण अभिलिखित करने के पश्चात् कार्यवाही को ऐसे चालू रख सकता है, मानो वह धारा 145 की उपधारा (1) के अधीन प्रारंभ की गई हो ।
148. स्थानीय जांच-(1) जब कभी धारा 145 या धारा 146 या धारा 147 के प्रयोजनों के लिए स्थानीय जांच आवश्यक हो तब कोई जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट अपने अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट को जांच करने के लिए प्रतिनियुक्त कर सकता है और उसे ऐसे लिखित अनुदेश दे सकता है जो उसके मार्गदर्शन के लिए आवश्यक प्रतीत हों और घोषित कर सकता है कि जांच के सब आवश्यक व्यय या उसका कोई भाग, किसके द्वारा दिया जाएगा ।
(2) ऐसे प्रतिनियुक्त व्यक्ति की रिपोर्ट को मामले में साक्ष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है ।
(3) जब धारा 145, धारा 146 या धारा 147 के अधीन कार्यवाही के किसी पक्षकार द्वारा कोई खर्चे किए गए हैं तब विनिश्चय करने वाला मजिस्ट्रेट यह निदेश दे सकता है कि ऐसे खर्चे किसके द्वारा दिए जाएंगे, ऐसे पक्षकार द्वारा दिए जाएंगे या कार्यवाही के किसी अन्य पक्षकार द्वारा और पूरे के पूरे दिए जाएंगे अथवा भाग या अनुपात में ; और ऐसे खर्चों के अंतर्गत साक्षियों के और प्लीडरों की फीस के बारे में वे व्यय भी हो सकते है, जिन्हें न्यायालय उचित समझे ।
अध्याय 11
पुलिस का निवारक कार्य
149. पुलिस का संज्ञेय अपराधों का निवारण करना-प्रत्येक पुलिस अधिकारी किसी संज्ञेय अपराध के किए जाने का निवारण करने के प्रयोजन से अन्तःक्षेप कर सकेगा और अपनी पूरी सामर्थ्य से उसे निवारित करेगा ।
150. संज्ञेय अपराधों के किए जाने की परिकल्पना की इत्तिला-प्रत्येक पुलिस अधिकारी, जिसे किसी संज्ञेय अपराध को करने की परिकल्पना की इत्तिला प्राप्त होती है, ऐसी इत्तिला की संसूचना उस पुलिस अधिकारी को, जिसके वह अधीनस्थ है, और किसी ऐसे अन्य अधिकारी को देगा जिसका कर्तव्य किसी ऐसे अपराध के किए जाने का निवारण या संज्ञान करना है ।
151. संज्ञेय अपराधों का किया जाना रोकने के लिए गिरफ्तारी-(1) कोई पुलिस अधिकारी जिसे कोई संज्ञेय अपराध करने की परिकल्पना का पता है, ऐसी परिकल्पना करने वाले व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेशों के बिना और वारंट के बिना उस दशा में गिरफ्तार कर सकता है जिसमें ऐसे अधिकारी को प्रतीत होता है कि उस अपराध का किया जाना अन्यथा नहीं रोका जा सकता ।
(2) उपधारा (1) के अधीन गिरफ्तार किए गए किसी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के समय से चौबीस घंटे की अवधि से अधिक के लिए अभिरक्षा में उस दशा के सिवाय निरुद्ध नहीं रखा जाएगा जिसमें उसका और आगे निरुद्ध रखा जाना इस संहिता के या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के किन्हीं अन्य उपबंधों के अधीन अपेक्षित या प्राधिकृत है ।
152. लोक संपत्ति की हानि का निवारण-किसी पुलिस अधिकारी की दृष्टिगोचरता में किसी भी जंगम या स्थावर लोक संपत्ति को हानि पहुंचाने का प्रयत्न किए जाने पर वह उसका, या किसी लोक भूमि-चिह्न या बोया या नौपरिवहन के लिए प्रयुक्त अन्य चिह्न के हटाए जाने या उसे हानि पहुंचाए जाने का, निवारण करने के लिए अपने ही प्राधिकार से अंतःक्षेप कर सकता है ।
153. बाटों और मापों का निरीक्षण-(1) कोई पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी उस थाने की सीमाओं के अंदर किसी स्थान में, जब कभी उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे स्थान में कोई बाट, माप या तोलने के उपकरण हैं जो खोटे हैं, वहां प्रयुक्त या रखे हुए किन्हीं बाटों या मापों या तोलने के उपकरणों के निरीक्षण या तलाशी के प्रयोजन के लिए वारंट के बिना प्रवेश कर सकता है ।
(2) यदि वह उस स्थान में कोई ऐसे बाट, माप या तोलने के उपकरण पाता है जो खोटे हैं तो वह उन्हें अभिगृहीत कर सकता है और ऐसे अभिग्रहण की इत्तिला अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट को तत्काल देगा ।
अध्याय 12
पुलिस को इत्तिला और उनकी अन्वेषण करने की शक्तियां
154. संज्ञेय मामलों में इत्तिला-(1) संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तिला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गई है तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इत्तिला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करे, प्रविष्ट किया जाएगा :
[परंतु यदि किसी स्त्री द्वारा, जिसके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 326क, धारा 326ख, धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ, धारा 376ङ या धारा 509 के अधीन किसी अपराध के किए जाने या किए जाने का प्रयत्न किए जाने का अभिकथन किया गया है, कोई इत्तिला दी जाती है तो ऐसी इत्तिला किसी महिला पुलिस अधिकारी या किसी महिला अधिकारी द्वारा अभिलिखित की जाएगी :
परन्तु यह और कि-
(क) यदि वह व्यक्ति, जिसके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ, धारा 376ङ या धारा 509 के अधीन किसी अपराध के किए जाने का या किए जाने का प्रयत्न किए जाने का अभिकथन किया गया है, अस्थायी या स्थायी रूप से मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त है, तो ऐसी इत्तिला किसी पुलिस अधिकारी द्वारा उस व्यक्ति के, जो ऐसे अपराध की रिपोर्ट करने की ईप्सा करता है, निवास-स्थान पर या उस व्यक्ति के विकल्प के किसी सुगम स्थान पर, यथास्थिति, किसी द्विभाषिए या किसी विशेष प्रबोधक की उपस्थिति में अभिलिखित की जाएगी ;
(ख) ऐसी इत्तिला के अभिलेखन की वीडियो फिल्म तैयार की जाएगी ;
(ग) पुलिस अधिकारी धारा 164 की उपधारा (5क) के खंड (क) के अधीन किसी न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा उस व्यक्ति का कथन यथासंभवशीघ्र अभिलिखित कराएगा ।]
(2) उपधारा (1) के अधीन अभिलिखित इत्तिला की प्रतिलिपि, इत्तिला देने वाले को तत्काल निःशुल्क दी जाएगी ।
(3) कोई व्यक्ति जो किसी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के उपधारा (1) में निर्दिष्ट इत्तिला को अभिलिखित करने से इंकार करने से व्यथित है, ऐसी इत्तिला का सार लिखित रूप में और डाक द्वारा संबद्ध पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है जो, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि ऐसी इत्तिला से किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है तो, या तो स्वयं मामले का अन्वेषण करेगा या अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी द्वारा इस संहिता द्वारा उपबंधित रीति में अन्वेषण किए जाने का निदेश देगा और उस अधिकारी को उस अपराध के संबंध में पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी की सभी शक्तियां होंगी ।
155. असंज्ञेय मामलों के बारे में इत्तिला और ऐसे मामलों का अन्वेषण-(1) जब पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को उस थाने की सीमाओं के अंदर असंज्ञेय अपराध के किए जाने की इत्तिला दी जाती है तब वह ऐसी इत्तिला का सार, ऐसी पुस्तक में, जो ऐसे अधिकारी द्वारा ऐसे प्ररूप में रखी जाएगी जो राज्य सरकार इस निमित्त विहित करे, प्रविष्ट करेगा या प्रविष्ट कराएगा और इत्तिला देने वाले को मजिस्ट्रेट के पास जाने को निर्देशित करेगा ।
(2) कोई पुलिस अधिकारी किसी असंज्ञेय मामले का अन्वेषण ऐसे मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना नहीं करेगा जिसे ऐसे मामले का विचारण करने की या मामले को विचारणार्थ सुपुर्द करने की शक्ति है ।
(3) कोई पुलिस अधिकारी ऐसा आदेश मिलने पर (वारंट के बिना गिरफ्तारी करने की शक्ति के सिवाय) अन्वेषण के बारे में वैसी ही शक्तियों का प्रयोग कर सकता है जैसी पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी संज्ञेय मामले में कर सकता है ।
(4) जहां मामले का संबंध ऐसे दो या अधिक अपराधों से है, जिनमें से कम से कम एक संज्ञेय है, वहां इस बात के होते हुए भी कि अन्य अपराध असंज्ञेय हैं, वह मामला संज्ञेय मामला समझा जाएगा ।
156. संज्ञेय मामलों का अन्वेषण करने की पुलिस अधिकारी की शक्ति-(1) कोई पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी ऐसे संज्ञेय मामले का अन्वेषण कर सकता है, जिसकी जांच या विचारण करने की शक्ति उस थाने की सीमाओं के अंदर के स्थानीय क्षेत्र पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय को अध्याय 13 के उपबंधों के अधीन है ।
(2) ऐसे किसी मामले में पुलिस अधिकारी की किसी कार्यवाही को किसी भी प्रक्रम में इस आधार पर प्रश्नगत न किया जाएगा कि वह मामला ऐसा था जिसमें ऐसा अधिकारी इस धारा के अधीन अन्वेषण करने के लिए सशक्त न था ।
(3) धारा 190 के अधीन सशक्त किया गया कोई मजिस्ट्रेट पूर्वोक्त प्रकार के अन्वेषण का आदेश कर सकता है ।
157. अन्वेषण के लिए प्रक्रिया-(1) यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को, इत्तिला प्राप्त होने पर या अन्यथा, यह संदेह करने का कारण है कि ऐसा अपराध किया गया है जिसका अन्वेषण करने के लिए धारा 156 के अधीन वह सशक्त है तो वह उस अपराध की रिपोर्ट उस मजिस्ट्रेट को तत्काल भेजेगा जो ऐसे अपराध का पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान करने के लिए सशक्त है और मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का अन्वेषण करने के लिए, और यदि आवश्यक हो तो अपराधी का पता चलाने और उसकी गिरफ्तारी के उपाय करने के लिए, उस स्थान पर या तो स्वयं जाएगा या अपने अधीनस्थ अधिकारियों में से एक को भेजेगा जो ऐसी पंक्ति से निम्नतर पंक्ति का न होगा जिसे राज्य सरकार साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त विहित करे :
परंतु-
(क) जब ऐसे अपराध के किए जाने की कोई इत्तिला किसी व्यक्ति के विरुद्ध उसका नाम देकर की गई है और मामला गंभीर प्रकार का नहीं है तब यह आवश्यक न होगा कि पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी उस स्थान पर अन्वेषण करने के लिए स्वयं जाए या अधीनस्थ अधिकारी को भेजे ;
(ख) यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को यह प्रतीत होता है कि अन्वेषण करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो वह उस मामले का अन्वेषण न करेगा :
[परंतु यह और कि बलात्संग के अपराध के संबंध में, पीड़ित का कथन, पीड़ित के निवास पर या उसकी पसंद के स्थान पर और यथासाध्य, किसी महिला पुलिस अधिकारी द्वारा उसके माता-पिता या संरक्षक या नजदीकी नातेदार या परिक्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता की उपस्थिति में अभिलिखित किया जाएगा ।]
(2) उपधारा (1) के परंतुक के खंड (क) और (ख) में वर्णित दशाओं में से प्रत्येक दशा में पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी अपनी रिपोर्ट में उस उपधारा की अपेक्षाओं का पूर्णतया अनुपालन न करने के अपने कारणों का कथन करेगा और उक्त परंतुक के खंड (ख) में वर्णित दशा में ऐसा अधिकारी इत्तिला देने वाले को, यदि कोई हो, ऐसी रीति से, जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाए तत्काल इस बात की सूचना दे देगा कि वह उस मामले में अन्वेषण न तो करेगा और न कराएगा ।
158. रिपोर्टें कैसे दी जाएंगी-(1) धारा 157 के अधीन मजिस्ट्रेट को भेजी जाने वाली प्रत्येक रिपोर्ट, यदि राज्य सरकार ऐसा निदेश देती है, तो पुलिस के ऐसे वरिष्ठ अधिकारी के माध्यम से दी जाएगी, जिसे राज्य सरकार साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त नियत करे ।
(2) ऐसा वरिष्ठ अधिकारी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को ऐसे अनुदेश दे सकता है जो वह ठीक समझे और उस रिपोर्ट पर उन अनुदेशों को अभिलिखित करने के पश्चात् उसे अविलंब मजिस्ट्रेट के पास भेज देगा ।
159. अन्वेषण या प्रारंभिक जांच करने की शक्ति-ऐसा मजिस्ट्रेट ऐसी रिपोर्ट प्राप्त होने पर अन्वेषण के लिए आदेश दे सकता है, या यदि वह ठीक समझे तो वह इस संहिता में उपबंधित रीति से मामले की प्रारंभिक जांच करने के लिए या उसको अन्यथा निपटाने के लिए तुरंत कार्यवाही कर सकता है, या अपने अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट को कार्यवाही करने के लिए प्रतिनियुक्त कर सकता है ।
160. साक्षियों की हाजिरी की अपेक्षा करने की पुलिस अधिकारी की शक्ति-(1) कोई पुलिस अधिकारी, जो इस अध्याय के अधीन अन्वेषण कर रहा है, अपने थाने की या किसी पास के थाने की सीमाओं के अंदर विद्यमान किसी ऐसे व्यक्ति से, जिसका दी गई इत्तिला से या अन्यथा उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित होना प्रतीत होता है, अपने समक्ष हाजिर होने की अपेक्षा लिखित आदेश द्वारा कर सकता है और वह व्यक्ति अपेक्षानुसार हाजिर होगा :
परंतु किसी पुरुष से [जो पंद्रह वर्ष से कम आयु का या पैंसठ वर्ष से अधिक आयु का है या किसी स्त्री से या किसी मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त व्यक्ति से] ऐसे स्थान से जिसमें ऐसा पुरुष या स्त्री निवास करती है, भिन्न किसी स्थान पर हाजिर होने की अपेक्षा नहीं की जाएगी ।
(2) अपने निवास-स्थान से भिन्न किसी स्थान पर उपधारा (1) के अधीन हाजिर होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के उचित खर्चों का पुलिस अधिकारी द्वारा संदाय कराने के लिए राज्य सरकार इस निमित्त बनाए गए नियमों द्वारा उपबंध कर सकती है ।
161. पुलिस द्वारा साक्षियों की परीक्षा-(1) कोई पुलिस अधिकारी, जो इस अध्याय के अधीन अन्वेषण कर रहा है या ऐसे अधिकारी की अपेक्षा पर कार्य करने वाला पुलिस अधिकारी, जो ऐसी पंक्ति से निम्नतर पंक्ति का नहीं है जिसे राज्य सरकार साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त विहित करे, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित समझे जाने वाले किसी व्यक्ति की मौखिक परीक्षा कर सकता है ।
(2) ऐसा व्यक्ति उन प्रश्नों के सिवाय, जिनके उत्तरों की प्रवृत्ति उसे आपराधिक आरोप या शास्ति या समपहरण की आशंका में डालने की है, ऐसे मामले से संबंधित उन सब प्रश्नों का सही-सही उत्तर देने के लिए आबद्ध होगा जो ऐसा अधिकारी उससे पूछता है ।
(3) पुलिस अधिकारी इस धारा के अधीन परीक्षा के दौरान उसके समक्ष किए गए किसी भी कथन को लेखबद्ध कर सकता है और यदि वह ऐसा करता है, तो वह प्रत्येक ऐसे व्यक्ति के कथन का पृथक् और सही अभिलेख बनाएगा, जिसका कथन वह अभिलिखित करता है :
[परंतु इस उपधारा के अधीन किया गया कथन श्रव्य-दृश्य इलैक्ट्रानिक साधनों द्वारा भी अभिलिखित किया जा सकेगा :]
[परंतु यह और कि किसी ऐसी स्त्री का कथन, जिसके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग धारा 376घ, धारा 376ङ या धारा 509, के अधीन किसी अपराध के किए जाने या किए जाने का प्रयत्न किए जाने का अधिकथन किया गया है, किसी महिला पुलिस अधिकारी या किसी महिला अधिकारी द्वारा अभिलिखित किया जाएगा ।]
162. पुलिस से किए गए कथनों का हस्ताक्षरित न किया जाना ; कथनों का साक्ष्य में उपयोग-(1) किसी व्यक्ति द्वारा किसी पुलिस अधिकारी से इस अध्याय के अधीन अन्वेषण के दौरान किया गया कोई कथन, यदि लेखबद्ध किया जाता है तो कथन करने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित नहीं किया जाएगा, और न ऐसा कोई कथन या उसका कोई अभिलेख, चाहे वह पुलिस डायरी में हो या न हो, और न ऐसे कथन या अभिलेख का कोई भाग ऐसे किसी अपराध की, जो ऐसा कथन किए जाने के समय अन्वेषणाधीन था, किसी जांच या विचारण में, इसमें इसके पश्चात् यथाउपबंधित के सिवाय, किसी भी प्रयोजन के लिए उपयोग में लाया जाएगा :
परंतु जब कोई ऐसा साक्षी, जिसका कथन उपर्युक्त रूप में लेखबद्ध कर लिया गया है, ऐसी जांच या विचारण में अभियोजन की ओर से बुलाया जाता है तब यदि उसके कथन का कोई भाग, सम्यक् रूप से साबित कर दिया गया है तो, अभियुक्त द्वारा और न्यायालय की अनुज्ञा से अभियोजन द्वारा उसका उपयोग ऐसे साक्षी का खंडन करने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 145 द्वारा उपबंधित रीति से किया जा सकता है और जब ऐसे कथन का कोई भाग इस प्रकार उपयोग में लाया जाता है तब उसका कोई भाग ऐसे साक्षी की पुनःपरीक्षा में भी, किंतु उसकी प्रतिपरीक्षा में निर्दिष्ट किसी बात का स्पष्टीकरण करने के प्रयोजन से ही, उपयोग में लाया जा सकता है ।
(2) इस धारा की किसी बात के बारे में यह न समझा जाएगा कि वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 32 के खंड (1) के उपबंधों के अंदर आने वाले किसी कथन को लागू होती है या उस अधिनियम की धारा 27 के उपबंधों पर प्रभाव डालती है ।
स्पष्टीकरण-उपधारा (1) में निर्दिष्ट कथन में किसी तथ्य या परिस्थिति के कथन का लोप या खंडन हो सकता है यदि वह उस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए, जिसमें ऐसा लोप किया गया है महत्वपूर्ण और अन्यथा संगत प्रतीत होता है और कोई लोप किसी विशिष्ट संदर्भ में खंडन है या नहीं यह तथ्य का प्रश्न होगा ।
163. कोई उत्प्रेरणा न दिया जाना-(1) कोई पुलिस अधिकारी या प्राधिकार वाला अन्य व्यक्ति भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 24 में यथावर्णित कोई उत्प्रेरणा, धमकी या वचन न तो देगा और न करेगा तथा न दिलवाएगा और न करवाएगा ।
(2) किंतु कोई पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति इस अध्याय के अधीन किसी अन्वेषण के दौरान किसी व्यक्ति को कोई कथन करने से, जो वह अपनी स्वतंत्र इच्छा से करना चाहे, किसी चेतावनी द्वारा या अन्यथा निवारित न करेगा :
परंतु इस धारा की कोई बात धारा 164 की उपधारा (4) के उपबंधों पर प्रभाव न डालेगी ।
164. संस्वीकृतियों और कथनों को अभिलिखित करना-(1) कोई महानगर मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट, चाहे उसे मामले में अधिकारिता हो या न हो, इस अध्याय के अधीन या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन किसी अन्वेषण के दौरान या तत्पश्चात् जांच या विचारण प्रारंभ होने के पूर्व किसी समय अपने से की गई किसी संस्वीकृति या कथन को अभिलिखित कर सकता है :
[परंतु इस उपधारा के अधीन की गई कोई संस्वीकृति या कथन अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के अधिववक्ता की उपस्थिति में श्रव्य-दृश्य इलैक्ट्रानिक साधनों द्वारा भी अभिलिखित किया जा सकेगा :
परंतु यह और कि किसी पुलिस अधिकारी द्वारा, जिसे तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन मजिस्ट्रेट की कोई शक्ति प्रदत्त की गई है, कोई संस्वीकृति अभिलिखित नहीं की जाएगी ।]
(2) मजिस्ट्रेट किसी ऐसी संस्वीकृति को अभिलिखित करने के पूर्व उस व्यक्ति को, जो संस्वीकृति कर रहा है, यह समझाएगा कि वह ऐसी संस्वीकृति करने के लिए आबद्ध नहीं है और यदि वह उसे करेगा तो वह उसके विरुद्ध साक्ष्य में उपयोग में लाई जा सकती है ; और मजिस्ट्रेट कोई ऐसी संस्वीकृति तब तक अभिलिखित न करेगा जब तक उसे करने वाले व्यक्ति से प्रश्न करने पर उसको यह विश्वास करने का कारण न हो कि वह स्वेच्छा से की जा रही है ।
(3) संस्वीकृति अभिलिखित किए जाने से पूर्व यदि मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होने वाला व्यक्ति यह कथन करता है कि वह संस्वीकृति करने के लिए इच्छुक नहीं है तो मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति के पुलिस की अभिरक्षा में निरोध को प्राधिकृत नहीं करेगा ।
(4) ऐसी संस्वीकृति किसी अभियुक्त व्यक्ति की परीक्षा को अभिलिखित करने के लिए धारा 281 में उपबंधित रीति से अभिलिखित की जाएगी और संस्वीकृति करने वाले व्यक्ति द्वारा उस पर हस्ताक्षर किए जाएंगे ; और मजिस्ट्रेट ऐसे अभिलेख के नीचे निम्नलिखित भाव का एक ज्ञापन लिखेगा :-
मैंने-(नाम)---को यह समझा दिया है कि वह संस्वीकृति करने के लिए आबद्ध नहीं है और यदि वह ऐसा करता है तो कोई संस्वीकृति, जो वह करेगा, उसके विरुद्ध साक्ष्य में उपयोग में लाई जा सकती है और मुझे विश्वास है कि यह संस्वीकृति स्वेच्छा से की गई है । यह मेरी उपस्थिति में और मेरे सुनते हुए लिखी गई है और जिस व्यक्ति ने यह संस्वीकृति की है उसे यह पढ़कर सुना दी गई है और उसने उसका सही होना स्वीकार किया है और उसके द्वारा किए गए कथन का पूरा और सही वृत्तांत इसमें है ।
(हस्ताक्षर क. ख मजिस्ट्रेट) ।"
(5) उपधारा (1) के अधीन किया गया (संस्वीकृति से भिन्न) कोई कथन साक्ष्य अभिलिखित करने के लिए इसमें इसके पश्चात् उपबंधित ऐसी रीति से अभिलिखित किया जाएगा जो मजिस्ट्रेट की राय में, मामले की परिस्थितियों में सर्वाधिक उपयुक्त हो ; तथा मजिस्ट्रेट को उस व्यक्ति को शपथ दिलाने की शक्ति होगी जिसका कथन इस प्रकार अभिलिखित किया जाता है ।
[(5क) (क) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 376 की उपधारा (1) या उपधारा (2), धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ, धारा 376ङ या धारा 509 के अधीन दंडनीय मामलों में न्यायिक मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति का, जिसके विरुद्ध उपधारा (5) में विहित रीति में ऐसा अपराध किया गया है, कथन जैसे ही अपराध का किया जाना पुलिस की जानकारी में लाया जाता है, अभिलिखित करेगा :
परन्तु यदि कथन करने वाला व्यक्ति अस्थायी या स्थायी रूप से मानिसक या शारीरिक रूप से निःशक्त है, तो मजिस्ट्रेट कथन अभिलिखित करने में किसी द्विभाषिए या विशेष प्रबोधक की सहायता लेगा :
परन्तु यह और कि यदि कथन करने वाला व्यक्ति अस्थायी या स्थायी रूप से मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त है तो किसी द्विभाषिए या विशेष प्रबोधक की सहायता से उस व्यक्ति द्वारा किए गए कथन की वीडियो फिल्म तैयार की जाएगी ;
(ख) ऐसे किसी व्यक्ति के, जो अस्थायी या स्थायी रूप से मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त है, खंड (क) के अधीन अभिलिखित कथन को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 137 में यथाविनिर्दिष्ट मुख्य परीक्षा के स्थान पर एक कथन समझा जाएगा और ऐसा कथन करने वाले की, विचारण के समय उसको अभिलिखित करने की आवश्यकता के बिना, ऐसे कथन पर प्रतिपरीक्षा की जा सकेगी ।]
(6) इस धारा के अधीन किसी संस्वीकृति या कथन को अभिलिखित करने वाला मजिस्ट्रेट, उसे उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा जिसके द्वारा मामले की जांच या विचारण किया जाना है ।
[164क. बलात्संग के पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सीय परीक्षा-(1) जहां, ऐसे प्रक्रम के दौरान जब बलात्संग या बलात्संग करने का प्रयत्न करने के अपराध का अन्वेषण किया जा रहा है उस स्त्री के शरीर की, जिसके साथ बलात्संग किया जाना या करने का प्रयत्न करना अभिकथित है, किसी चिकित्सा विशेषज्ञ से परीक्षा कराना प्रस्थापित है वहां ऐसी परीक्षा, सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकारी द्वारा चलाए जा रहे किसी अस्पताल में नियोजित रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी द्वारा, और ऐसे व्यवसायी की अनुपस्थिति में किसी अन्य रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी द्वारा, ऐसी स्त्री की सहमति से या उसकी ओर से ऐसी सहमति देने के लिए सक्षम व्यक्ति की सहमति से की जाएगी और ऐसी स्त्री को, ऐसा अपराध किए जाने से संबंधित इत्तिला प्राप्त होने के समय से चौबीस घंटे के भीतर ऐसे रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी के पास भेजा जाएगा ।
(2) वह रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी, जिसके पास ऐसी स्त्री भेजी जाती है, बिना किसी विलंब के, उसके शरीर की परीक्षा करेगा और एक परीक्षा रिपोर्ट तैयार करेगा जिसमें निम्नलिखित ब्यौरे दिए जाएंगे, अर्थात् :-
(i) स्त्री का, और उस व्यक्ति का, जो उसे लाया है, नाम और पता ;
(ii) स्त्री की आयु ;
(iii) डी. एन. ए. प्रोफाइल करने के लिए स्त्री के शरीर से ली गई सामग्री का वर्णन ;
(iv) स्त्री के शरीर पर क्षति के, यदि कोई हैं, चिह्न ;
(v) स्त्री की साधारण मानसिक दशा ; और
(vi) उचित ब्यौरे सहित अन्य तात्त्विक विशिष्टियां ।
(3) रिपोर्ट में संक्षेप में वे कारण अभिलिखित किए जाएंगे जिनसे प्रत्येक निष्कर्ष निकाला गया है ।
(4) रिपोर्ट में विनिर्दिष्ट रूप से यह अभिलिखित किया जाएगा कि ऐसी परीक्षा के लिए स्त्री की सहमति या उसकी ओर से ऐसी सहमति देने के लिए सक्षम व्यक्ति की सहमति, अभिप्राप्त कर ली गई है ।
(5) रिपोर्ट में परीक्षा प्रारंभ और समाप्त करने का सही समय भी अंकित किया जाएगा ।
(6) रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी, बिना विलंब के, रिपोर्ट अन्वेषण अधिकारी को भेजेगा जो उसे धारा 173 में निर्दिष्ट मजिस्ट्रेट को, उस धारा की उपधारा (5) के खंड (क) में निर्दिष्ट दस्तावेजों के भाग-रूप में भेजेगा ।
(7) इस धारा की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह स्त्री की सहमति के बिना या उसकी ओर से ऐसी सहमति देने के लिए सक्षम किसी व्यक्ति की सहमति के बिना किसी परीक्षा को विधिमान्य बनाती है ।
स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजनों के लिए परीक्षा" और रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी" के वही अर्थ हैं, जो उनके धारा 53 में हैं ।]
165. पुलिस अधिकारी द्वारा तलाशी-(1) जब कभी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी के पास यह विश्वास करने के उचित आधार हैं कि किसी ऐसे अपराध के अन्वेषण के प्रयोजनों के लिए, जिसका अन्वेषण करने के लिए वह प्राधिकृत है, आवश्यक कोई चीज उस पुलिस थाने की, जिसका वह भारसाधक है या जिससे वह संलग्न है, सीमाओं के अंदर किसी स्थान में पाई जा सकती है और उसकी राय में ऐसी चीज अनुचित विलंब के बिना तलाशी से अन्यथा अभिप्राप्त नहीं की जा सकती, तब ऐसा अधिकारी अपने विश्वास के आधारों को लेखबद्ध करने, और यथासंभव उस चीज को, जिसके लिए तलाशी ली जानी है, ऐसे लेख में विनिर्दिष्ट करने के पश्चात् उस थाने की सीमाओं के अंदर किसी स्थान में ऐसी चीज के लिए तलाशी ले सकता है या तलाशी लिवा सकता है ।
(2) उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि साध्य है तो, तलाशी स्वयं लेगा ।
(3) यदि वह तलाशी स्वयं लेने में असमर्थ है और कोई अन्य ऐसा व्यक्ति, जो तलाशी लेने के लिए सक्षम है, उस समय उपस्थित नहीं है तो वह, ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करने के पश्चात्, अपने अधीनस्थ किसी अधिकारी से अपेक्षा कर सकता है कि वह तलाशी ले और ऐसे अधीनस्थ अधिकारी को ऐसा लिखित आदेश देगा जिसमें उस स्थान को जिसकी तलाशी ली जानी है, और यथासंभव उस चीज को, जिसके लिए तलाशी ली जानी है, विनिर्दिष्ट किया जाएगा और तब ऐसा अधीनस्थ अधिकारी उस चीज के लिए तलाशी उस स्थान में ले सकेगा ।
(4) तलाशी-वारंटों के बारे में इस संहिता के उपबंध और तलाशियों के बारे में धारा 100 के साधारण उपबंध इस धारा के अधीन ली जाने वाली तलाशी को, जहां तक हो सके, लागू होंगे ।
(5) उपधारा (1) या उपधारा (3) के अधीन बनाए गए किसी भी अभिलेख की प्रतियां तत्काल ऐसे निकटतम मजिस्ट्रेट के पास भेज दी जाएंगी जो उस अपराध का संज्ञान करने के लिए सशक्त है और जिस स्थान की तलाशी ली गई है, उसके स्वामी या अधिभोगी को, उसके आवेदन पर, उसकी एक प्रतिलिपि मजिस्ट्रेट द्वारा निःशुल्क दी जाएगी ।
166. पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी कब किसी अन्य अधिकारी से तलाशी-वारंट जारी करने की अपेक्षा कर सकता है-(1) पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या उपनिरीक्षक से अनिम्न पंक्ति का पुलिस अधिकारी, जो अन्वेषण कर रहा है, किसी दूसरे पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी से, चाहे वह उस जिले में हो या दूसरे जिले में हो, किसी स्थान में ऐसे मामले में तलाशी लिवाने की अपेक्षा कर सकता है जिसमें पूर्वकथित अधिकारी स्वयं अपने थाने की सीमाओं के अंदर ऐसी तलाशी लिवा सकता है ।
(2) ऐसा अधिकारी ऐसी अपेक्षा किए जाने पर धारा 165 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करेगा और यदि कोई चीज मिले तो उसे उस अधिकारी के पास भेजेगा जिसकी अपेक्षा पर तलाशी ली गई है ।
(3) जब कभी यह विश्वास करने का कारण है कि दूसरे पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी से उपधारा (1) के अधीन तलाशी लिवाने की अपेक्षा करने में जो विलंब होगा उसका परिणाम यह हो सकता है कि अपराध किए जाने का साक्ष्य छिपा दिया जाए या नष्ट कर दिया जाए, तब पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के लिए या उस अधिकारी के लिए जो इस अध्याय के अधीन अन्वेषण कर रहा है, यह विधिपूर्ण होगा कि वह दूसरे पुलिस थाने की स्थानीय सीमाओं के अंदर किसी स्थान की धारा 165 के उपबंधों के अनुसार ऐसी तलाशी ले या लिवाए मानो ऐसा स्थान उसके अपने थाने की सीमाओं के अंदर हो ।
(4) कोई अधिकारी, जो उपधारा (3) के अधीन तलाशी संचालित कर रहा है, उस पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को, जिसकी सीमाओं के अंदर ऐसा स्थान है, तलाशी की सूचना तत्काल भेजेगा और ऐसी सूचना के साथ धारा 100 के अधीन तैयार की गई सूची की (यदि कोई हो) प्रतिलिपि भी भेजेगा और उस अपराध का संज्ञान करने के लिए सशक्त निकटतम मजिस्ट्रेट को धारा 165 की उपधारा (1) और (3) में निर्दिष्ट अभिलेखों की प्रतिलिपियां भी भेजेगा ।
(5) जिस स्थान की तलाशी ली गई है, उसके स्वामी या अधिभोगी को, आवेदन करने पर उस अभिलेख की, जो मजिस्ट्रेट को उपधारा (4) के अधीन भेजा जाए, प्रतिलिपि निःशुल्क दी जाएगी ।
[166क. भारत के बाहर किसी देश या स्थान में अन्वेषण के लिए सक्षम प्राधिकारी को अनुरोध-पत्र-(1) इस संहिता में किसी बात के होते हुए भी, यदि किसी अपराध के अन्वेषण के अनुक्रम में अन्वेषण अधिकारी या अन्वेषण अधिकारी की पंक्ति से वरिष्ठ कोई अधिकारी यह आवेदन करता है कि भारत के बाहर किसी देश या स्थान में साक्ष्य उपलभ्य हो सकता है तो कोई दांडिक न्यायालय अनुरोध-पत्र भेजकर उस देश या स्थान के ऐसे न्यायालय या प्राधिकारी से, जो ऐसे अनुरोध-पत्र पर कार्रवाई करने के लिए सक्षम है, यह अनुरोध कर सकेगा कि वह किसी ऐसे व्यक्ति की मौखिक परीक्षा करे, जिसके बारे में यह अनुमान है कि वह मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से अवगत है, और ऐसी परीक्षा के अनुक्रम में किए गए उसके कथन को अभिलिखित करे और ऐसे व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति से उस मामले से संबंधित ऐसे दस्तावेज या चीज को पेश करने की अपेक्षा करे जो उसके कब्जे में है और इस प्रकार लिए गए या संगृहीत सभी साक्ष्य या उसकी अधिप्रमाणित प्रतिलिपि या इस प्रकार संगृहीत चीज को ऐसा पत्र भेजने वाले न्यायालय को अग्रेषित करे ।
(2) अनुरोध-पत्र ऐसी रीति में पारेषित किया जाएगा जो केंद्रीय सरकार इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे ।
(3) उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन अभिलिखित प्रत्येक कथन या प्राप्त प्रत्येक दस्तावेज या चीज इस अध्याय के अधीन अन्वेषण के दौरान संगृहीत साक्ष्य समझा जाएगा ।
166ख. भारत के बाहर के किसी देश या स्थान से भारत में अन्वेषण के लिए किसी न्यायालय या प्राधिकारी को अनुरोध-पत्र-(1) भारत के बाहर के किसी देश या स्थान के ऐसे न्यायालय या प्राधिकारी से, जो उस देश या स्थान में अन्वेषणाधीन किसी अपराध के संबंध में किसी व्यक्ति की परीक्षा करने के लिए या किसी दस्तावेज या चीज को पेश कराने के लिए उस देश या स्थान में ऐसा पत्र भेजने के लिए सक्षम है, अनुरोध-पत्र की प्राप्ति पर, केंद्रीय सरकार यदि वह उचित समझे तो, -
(i) उसे मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या ऐसे महानगर मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट को, जिसे वह इस निमित्त नियुक्त करे, अग्रेषित कर सकेगी जो तब उस व्यक्ति को अपने समक्ष समन करेगा तथा उसके कथन को अभिलिखित करेगा या दस्तावेज या चीज को पेश करवाएगा ; या
(ii) उस पत्र को अन्वेषण के लिए किसी पुलिस अधिकारी को भेज सकेगा जो तब उसी रीति में अपराध का अन्वेषण करेगा,
मानो वह अपराध भारत के भीतर किया गया हो ।
(2) उपधारा (1) के अधीन लिए गए या संगृहीत सभी साक्ष्य, उसकी अधिप्रमाणित प्रतिलिपियां या इस प्रकार संगृहीत चीज, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी द्वारा उस न्यायालय या प्राधिकारी को, जिसने अनुरोध-पत्र भेजा था, पारेषित करने के लिए केंद्रीय सरकार को ऐसी रीति में, जिसे केंद्रीय सरकार उचित समझे, अग्रेषित करेगा ।]
167. जब चौबीस घंटे के अंदर अन्वेषण पूरा न किया जा सके तब प्रक्रिया-(1) जब कभी कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध है और यह प्रतीत हो कि अन्वेषण धारा 57 द्वारा नियत चौबीस घंटे की अवधि के अंदर पूरा नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के लिए आधार है कि अभियोग या इत्तिला दृढ़ आधार पर है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है तो वह, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले में संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा ।
(2) वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, अभियुक्त का ऐसी अभिरक्षा में, जैसी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे इतनी अवधि के लिए, जो कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक न होगी, निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है तथा यदि उसे मामले के विचारण की या विचारण के लिए सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिए आदेश दे सकता है :
परंतु-
[(क) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध पंद्रह दिन की अवधि से आगे के लिए उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिए पर्याप्त आधार है, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का इस पैरा के अधीन अभिरक्षा में निरोध,-
(i) कुल मिलाकर नब्बे दिन से अधिक की अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं करेगा जहां अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दस वर्ष से अन्यून की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है ;
(ii) कुल मिलाकर साठ दिन से अधिक की अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं करेगा जहां अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध में है,
और, यथास्थिति, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिए तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 33 के प्रयोजनों के लिए उस अध्याय के उपबंधों के अधीन छोड़ा गया है ;]
[(ख) कोई मजिस्ट्रेट इस धारा के अधीन किसी अभियुक्त का पुलिस अभिरक्षा में निरोध तब तक प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक कि अभियुक्त उसके समक्ष पहली बार और तत्पश्चात् हर बार, जब तक अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में रहता है, व्यक्तिगत रूप से पेश नहीं किया जाता है किंतु मजिस्ट्रेट अभियुक्त के या तो व्यक्तिगत रूप से या इलैक्ट्रानिक दृश्य संपर्क के माध्यम से पेश किए जाने पर न्यायिक अभिरक्षा में निरोध को और बढ़ा सकेगा ;]
(ग) कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है, पुलिस की अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत न करेगा ।
[स्पष्टीकरण 1-शंकाएं दूर करने के लिए इसके द्वारा यह घोषित किया जाता है कि पैरा (क) में विनिर्दिष्ट अवधि समाप्त हो जाने पर भी अभियुक्त-व्यक्ति तब तक अभिरक्षा में निरुद्ध रखा जाएगा जब तक कि वह जमानत नहीं दे देता है ।]
[स्पष्टीकरण 2-यदि यह प्रश्न उठता है कि क्या कोई अभियुक्त व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया था, जैसाकि पैरा (ख) के अधीन अपेक्षित है, तो अभियुक्त व्यक्ति की पेशी को, यथास्थिति, निरोध प्राधिकृत करने वाले आदेश पर उसके हस्ताक्षर से या मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त व्यक्ति की इलैक्ट्रानिक दृश्य संपर्क के माध्यम से पेशी के बारे में प्रमाणित आदेश द्वारा साबित किया जा सकता है :]
[परंतु यह और कि अठारह वर्ष से कम आयु की स्त्री की दशा में, किसी प्रतिप्रेषण गृह या मान्यताप्राप्त सामाजिक संस्था की अभिरक्षा में निरोध किए जाने को प्राधिकृत किया जाएगा ।]
2[(2क) उपधारा (1) या उपधारा (2) में किसी बात के होते हुए भी, पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है तो, जहां न्यायिक मजिस्ट्रेट न मिल सकता हो, वहां कार्यपालक मजिस्ट्रेट को जिसको न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट की शक्तियां प्रदान की गई हैं, इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले से संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस कार्यपालक मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा और तब ऐसा कार्यपालक मजिस्ट्रेट लेखबद्ध किए जाने वाले कारणों से किसी अभियुक्त-व्यक्ति का ऐसी अभिरक्षा में निरोध, जैसा वह ठीक समझे, ऐसी अवधि के लिए प्राधिकृत कर सकता है जो कुल मिलाकर सात दिन से अधिक नहीं हो और ऐसे प्राधिकृत निरोध की अवधि की समाप्ति पर उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा, किंतु उस दशा में नहीं जिसमें अभियुक्त व्यक्ति के आगे और निरोध के लिए आदेश ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया है जो ऐसा आदेश करने के लिए सक्षम है और जहां ऐसे आगे और निरोध के लिए आदेश किया जाता है वहां वह अवधि, जिसके दौरान अभियुक्त-व्यक्ति इस उपधारा के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट के आदेशों के अधीन अभिरक्षा में निरुद्ध किया गया था, उपधारा (2) के परंतुक के पैरा (क) में विनिर्दिष्ट अवधि की संगणना करने में हिसाब में ली जाएगी :
परंतु उक्त अवधि की समाप्ति के पूर्व कार्यपालक मजिस्ट्रेट, मामले के अभिलेख, मामले से संबंधित डायरी की प्रविष्टियों के सहित जो, यथास्थिति, पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाले अधिकारी द्वारा उसे भेजी गई थी, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा ।]
(3) इस धारा के अधीन पुलिस अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत करने वाला मजिस्ट्रेट ऐसा करने के अपने कारण अभिलिखित करेगा ।
(4) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से भिन्न कोई मजिस्ट्रेट जो ऐसा आदेश दे अपने आदेश की एक प्रतिलिपि आदेश देने के अपने कारणों के सहित मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा ।
(5) यदि समन मामले के रूप में मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय किसी मामले में अन्वेषण, अभियुक्त के गिरफ्तार किए जाने की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर समाप्त नहीं होता है तो मजिस्ट्रेट अपराध में आगे और अन्वेषण को रोकने के लिए आदेश करेगा जब तक अन्वेषण करने वाला अधिकारी मजिस्ट्रेट का समाधान नहीं कर देता है कि विशेष कारणों से और न्याय के हित में छह मास की अवधि के आगे अन्वेषण जारी रखना आवश्यक है ।
(6) जहां उपधारा (5) के अधीन किसी अपराध का आगे और अन्वेषण रोकने के लिए आदेश दिया गया है वहां यदि सेशन न्यायाधीश का उसे आवेदन दिए जाने पर या अन्यथा, समाधान हो जाता है कि उस अपराध का आगे और अन्वेषण किया जाना चाहिए तो वह उपधारा (5) के अधीन किए गए आदेश को रद्द कर सकता है और यह निदेश दे सकता है कि जमानत और अन्य मामलों के बारे में ऐसे निदेशों के अधीन रहते हुए जो वह विनिर्दिष्ट करे, अपराध का आगे और अन्वेषण किया जाए ।
168. अधीनस्थ पुलिस अधिकारी द्वारा अन्वेषण की रिपोर्ट-जब कोई अधीनस्थ पुलिस अधिकारी इस अध्याय के अधीन कोई अन्वेषण करता है तब वह उस अन्वेषण के परिणाम की रिपोर्ट पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को करेगा ।
169. जब साक्ष्य अपर्याप्त हो तब अभियुक्त का छोड़ा जाना-यदि इस अध्याय के अधीन अन्वेषण पर पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को प्रतीत होता है कि ऐसा पर्याप्त साक्ष्य या संदेह का उचित आधार नहीं है जिससे अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास भेजना न्यायानुमत है तो ऐसा अधिकारी उस दशा में जिसमें वह व्यक्ति अभिरक्षा में है उसके द्वारा प्रतिभुओं के सहित या रहित, जैसा ऐसा अधिकारी निर्दिष्ट करे, यह बंधपत्र निष्पादित करने पर उसे छोड़ देगा कि यदि और जब अपेक्षा की जाए तो और तब वह ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होगा जो पुलिस रिपोर्ट पर ऐसे अपराध का संज्ञान करने के लिए, और अभियुक्त का विचारण करने या उसे विचारणार्थ सुपुर्द करने के लिए सशक्त है ।
170. जब साक्ष्य पर्याप्त है तब मामलों का मजिस्ट्रेट के पास भेज दिया जाना-(1) यदि इस अध्याय के अधीन अन्वेषण करने पर पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को प्रतीत होता है कि यथापूर्वोक्त पर्याप्त साक्ष्य या उचित आधार है, तो वह अधिकारी पुलिस रिपोर्ट पर उस अपराध का संज्ञान करने के लिए और अभियुक्त का विचारण करने या उसे विचारणार्थ सुपुर्द करने के लिए सशक्त मजिस्ट्रेट के पास अभियुक्त को अभिरक्षा में भेजेगा अथवा यदि अपराध जमानतीय है और अभियुक्त प्रतिभूति देने के लिए समर्थ है तो ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष नियत दिन उसके हाजिर होने के लिए और ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष, जब तक अन्यथा निदेश न दिया जाए तब तक, दिन-प्रतिदिन उसकी हाजिरी के लिए प्रतिभूति लेगा ।
(2) जब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी अभियुक्त को इस धारा के अधीन मजिस्ट्रेट के पास भेजता है या ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष उसके हाजिर होने के लिए प्रतिभूति लेता है तब उस मजिस्ट्रेट के पास वह ऐसा कोई आयुध या अन्य वस्तु जो उसके समक्ष पेश करना आवश्यक हो, भेजेगा और यदि कोई परिवादी हो, तो उससे और ऐसे अधिकारी को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले उतने व्यक्तियों से, जितने वह आवश्यक समझे मजिस्ट्रेट के समक्ष निदिष्ट प्रकार से हाजिर होने के लिए और (यथास्थिति) अभियोजन करने के लिए या अभियुक्त के विरुद्ध आरोप के विषय में साक्ष्य देने के लिए बंधपत्र निष्पादित करने की अपेक्षा करेगा ।
(3) यदि बंधपत्र में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय उल्लिखित है तो उस न्यायालय के अंतर्गत कोई ऐसा न्यायालय भी समझा जाएगा जिसे ऐसा मजिस्ट्रेट मामले की जांच या विचारण के लिए निर्देशित करता है, परंतु यह तब जब ऐसे निर्देश की उचित सूचना उस परिवादी या उन व्यक्तियों को दे दी गई है ।
(4) वह अधिकारी, जिसकी उपस्थिति में बंधपत्र निष्पादित किया जाता है, उस बंधपत्र की एक प्रतिलिपि उन व्यक्तियों में से एक को परिदत्त करेगा जो उसे निष्पादित करता है और तब मूल बंधपत्र को अपनी रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा ।
171. परिवादी और साक्षियों से पुलिस अधिकारी के साथ जाने की अपेक्षा न किया जाना और उनका अवरुद्ध न किया जाना-किसी परिवादी या साक्षी से, जो किसी न्यायालय में जा रहा है, पुलिस अधिकारी के साथ जाने की अपेक्षा न की जाएगी, और न तो उसे अनावश्यक रूप से अवरुद्ध किया जाएगा या असुविधा पहुंचाई जाएगी और न उससे अपनी हाजिरी के लिए उसके अपने बंधपत्र से भिन्न कोई प्रतिभूति देने की अपेक्षा की जाएगी
परंतु यदि कोई परिवादी या साक्षी हाजिर होने से, या धारा 170 में निर्दिष्ट प्रकार का बंधपत्र निष्पादित करने से, इंकार करता है तो पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी उसे मजिस्ट्रेट के पास अभिरक्षा में भेज सकता है, जो उसे तब तक अभिरक्षा में निरुद्ध रख सकता है जब तक वह ऐसा बंधपत्र निष्पादित नहीं कर देता है या जब तक मामले की सुनवाई समाप्त नहीं हो जाती है ।
172. अन्वेषण में कार्यवाहियों की डायरी-(1) प्रत्येक पुलिस अधिकारी, जो इस अध्याय के अधीन अन्वेषण करता है, अन्वेषण में की गई अपनी कार्यवाही को दिन-प्रतिदिन एक डायरी में लिखेगा, जिसमें वह समय जब उसे इत्तिला मिली, वह समय जब उसने अन्वेषण आरंभ किया और जब समाप्त किया, वह स्थान या वे स्थान जहां वह गया और अन्वेषण द्वारा अभिनिश्चित परिस्थितियों का विवरण होगा ।
[(1क) धारा 161 के अधीन अन्वेषण के दौरान अभिलिखित किए गए साक्षियों के कथन केस डायरी में अंतःस्थापित किए जाएंगे ।
(1ख) उपधारा (1) में निर्दिष्ट डायरी जिल्द रूप में होगी और उसके पृष्ठ सम्यक् रूप से संख्यांकित होंगे ।]
(2) कोई दंड न्यायालय ऐसे न्यायालय में जांच या विचारण के अधीन मामले की पुलिस डायरियों को मंगा सकता है और ऐसी डायरियों को मामले में साक्ष्य के रूप में तो नहीं किंतु ऐसी जांच या विचारण में अपनी सहायता के लिए उपयोग में ला सकता है ।
(3) न तो अभियुक्त और न उसके अभिकर्ता ऐसी डायरियों को मंगाने के हकदार होंगे और न वह या वे केवल इस कारण उन्हें देखने के हकदार होंगे कि वे न्यायालय द्वारा देखी गई हैं, किंतु यदि वे उस पुलिस अधिकारी द्वारा, जिसने उन्हें लिखा है, अपनी स्मृति को ताजा करने के लिए उपयोग में लाई जाती है, या यदि न्यायालय उन्हें ऐसे पुलिस अधिकारी की बातों का खंडन करने के प्रयोजन के लिए उपयोग में लाता है तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की, यथास्थिति, धारा 161 या धारा 145 के उपबंध लागू होंगे ।
173. अन्वेषण के समाप्त हो जाने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट-(1) इस अध्याय के अधीन किया जाने वाला प्रत्येक अन्वेषण अनावश्यक विलंब के बिना पूरा किया जाएगा ।
[(1क) बालिका के साथ बलात्संग के संबंध में अन्वेषण उस तारीख से, जिसको पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा इत्तिला अभिलिखित की गई थी, तीन मास के भीतर पूरा किया जा सकेगा ।]
(2) (i) जैसे ही वह पूरा होता है, वैसे ही पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी, पुलिस रिपोर्ट पर उस अपराध का संज्ञान करने के लिए सशक्त मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार द्वारा विहित प्ररूप में एक रिपोर्ट भेजेगा, जिसमें निम्नलिखित बातें कथित होंगी :-
(क) पक्षकारों के नाम ;
(ख) इत्तिला का स्वरूप ;
(ग) मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम ;
(घ) क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है और यदि किया गया प्रतीत होता है, तो किसके द्वारा ;
(ङ) क्या अभियुक्त गिरफ्तार कर लिया गया है ;
(च) क्या वह अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया गया है और यदि छोड़ दिया गया है तो वह बंधपत्र प्रतिभुओं सहित है या प्रतिभुओं रहित ;
(छ) क्या वह धारा 170 के अधीन अभिरक्षा में भेजा जा चुका है ;
1[(ज) जहां अन्वेषण भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376, 376क, धारा 376ख, [धारा 376ग, धारा 376घ या धारा 376ङ] के अधीन किसी अपराध के संबंध में है, वहां क्या स्त्री की चिकित्सा परीक्षा की रिपोर्ट संलग्न की गई है ।]
(ii) वह अधिकारी अपने द्वारा की गई कार्यवाही की संसूचना, उस व्यक्ति को, यदि कोई हो, जिसने अपराध किए जाने के संबंध में सर्वप्रथम इत्तिला दी, उस रीति से देगा, जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाए ।
(3) जहां धारा 158 के अधीन कोई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नियुक्त किया गया है वहां ऐसे किसी मामले में, जिसमें राज्य सरकार साधारण या विशेष आदेश द्वारा ऐसा निदेश देती है, वह रिपोर्ट उस अधिकारी के माध्यम से दी जाएगी और वह, मजिस्ट्रेट का आदेश होने तक के लिए, पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को यह निदेश दे सकता है कि वह आगे और अन्वेषण करे ।
(4) जब कभी इस धारा के अधीन भेजी गई रिपोर्ट से यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त को उसके बंधपत्र पर छोड़ दिया गया है तब मजिस्ट्रेट उस बंधपत्र के उन्मोचन के लिए या अन्यथा ऐसा आदेश करेगा जैसा वह ठीक समझे ।
(5) जब ऐसी रिपोर्ट का संबंध ऐसे मामले से है जिसको धारा 170 लागू होती है, तब पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट के साथ-साथ निम्नलिखित भी भेजेगा :-
(क) वे सब दस्तावेज या उनके सुसंगत उद्धरण, जिन पर निर्भर करने का अभियोजन का विचार है और जो उनसे भिन्न हैं जिन्हें अन्वेषण के दौरान मजिस्ट्रेट को पहले ही भेज दिया गया है ;
(ख) उन सब व्यक्तियों के, जिनकी साक्षियों के रूप में परीक्षा करने का अभियोजन का विचार है, धारा 161 के अधीन अभिलिखित कथन ।
(6) यदि पुलिस अधिकारी की यह राय है कि ऐसे किसी कथन का कोई भाग कार्यवाही की विषयवस्तु से सुसंगत नहीं है या उसे अभियुक्त को प्रकट करना न्याय के हित में आवश्यक नहीं है और लोकहित के लिए असमीचीन है तो वह कथन के उस भाग को उपदर्शित करेगा और अभियुक्त को दी जाने वाली प्रतिलिपि में से उस भाग को निकाल देने के लिए निवेदन करते हुए और ऐसा निवेदन करने के अपने कारणों का कथन करते हुए एक नोट मजिस्ट्रेट को भेजेगा ।
(7) जहां मामले का अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी ऐसा करना सुविधापूर्ण समझता है वहां वह उपधारा (5) में निर्दिष्ट सभी या किन्हीं दस्तावेजों की प्रतियां अभियुक्त को दे सकता है ।
(8) इस धारा की कोई बात किसी अपराध के बारे में उपधारा (2) के अधीन मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेज दी जाने के पश्चात् आगे और अन्वेषण को प्रवारित करने वाली नहीं समझी जाएगी तथा जहां ऐसे अन्वेषण पर पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को कोई अतिरिक्त मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य मिले वहां वह ऐसे साक्ष्य के संबंध में अतिरिक्त रिपोर्ट या रिपोर्टें मजिस्ट्रेट को विहित प्ररूप में भेजेगा, और उपधारा (2) से (6) तक के उपबंध ऐसी रिपोर्ट या रिपोर्टों के बारे में, जहां तक हो सके, ऐसे लागू होंगे, जैसे वे उपधारा (2) के अधीन भेजी गई रिपोर्ट के संबंध में लागू होते हैं ।
174. आत्महत्या, आदि पर पुलिस का जांच करना और रिपोर्ट देना-(1) जब पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी, या राज्य सरकार द्वारा उस निमित्त विशेषतया सशक्त किए गए किसी अन्य पुलिस अधिकारी को यह इत्तिला मिलती है कि किसी व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली है अथवा कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या जीव-जंतु द्वारा या किसी यंत्र द्वारा या दुर्घटना द्वारा मारा गया है, अथवा कोई व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों में मरा है जिनसे उचित रूप से यह संदेह होता है कि किसी अन्य व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तो वह मृत्यु समीक्षाएं करने के लिए सशक्त निकटतम कार्यपालक मजिस्ट्रेट को तुरंत उसकी सूचना देगा और जब तक राज्य सरकार द्वारा विहित किसी नियम द्वारा या जिला या उपखंड मजिस्ट्रेट के किसी साधारण या विशेष आदेश द्वारा अन्यथा निदिष्ट न हो वह उस स्थान को जाएगा जहां ऐसे मृत व्यक्ति का शरीर है और वहां पड़ोस के दो या अधिक प्रतिष्ठित निवासियों की उपस्थिति में अन्वेषण करेगा और मृत्यु के दृश्यमान कारण की रिपोर्ट तैयार करेगा जिसमें ऐसे घावों, अस्थिभंगों, नीलों और क्षति के अन्य चिह्नों का जो शरीर पर पाए जाएं, वर्णन होगा और यह कथन होगा कि ऐसे चिह्न किस प्रकार से और किस आयुध या उपकरण द्वारा (यदि कोई हो) किए गए प्रतीत होते हैं ।
(2) उस रिपोर्ट पर ऐसे पुलिस अधिकारी और अन्य व्यक्तियों द्वारा, या उनमें से इतनों द्वारा जो उससे सहमत हैं, हस्ताक्षर किए जाएंगे और वह जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट को तत्काल भेज दी जाएगी ।
(3) [जब-
(i) मामले में किसी स्त्री द्वारा उसके विवाह की तारीख से सात वर्ष के भीतर आत्महत्या अंतर्वलित है ; या
(ii) मामला किसी स्त्री की उसके विवाह के सात वर्ष के भीतर ऐसी परिस्थितियों में मृत्यु से संबंधित है जो यह युक्तियुक्त संदेह उत्पन्न करती है कि किसी अन्य व्यक्ति ने ऐसी स्त्री के संबंध में कोई अपराध किया है ; या
(iii) मामला किसी स्त्री की उसके विवाह के सात वर्ष के भीतर मृत्यु से संबंधित है और उस स्त्री के किसी नातेदार ने उस निमित्त निवेदन किया है ; या
(iv) मृत्यु के कारण की बाबत कोई संदेह है ; या
(v) किसी अन्य कारण पुलिस अधिकारी ऐसा करना समीचीन समझता है,
तबट ऐसे नियमों के अधीन रहते हुए, जो राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त विहित किए जाएं, वह अधिकारी यदि मौसम ऐसा है और दूरी इतनी है कि रास्ते में शरीर के ऐसे सड़ने की जोखिम के बिना, जिससे उसकी परीक्षा व्यर्थ हो जाए, उसे भिजवाया जा सकता है तो शरीर को उसकी परीक्षा की दृष्टि से, निकटतम सिविल सर्जन के पास या राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त नियुक्त अन्य अर्हित चिकित्सक के पास भेजेगा ।
(4) निम्नलिखित मजिस्ट्रेट मृत्यु-समीक्षा करने के लिए सशक्त हैं, अर्थात् कोई जिला मजिस्ट्रेट या उपखंड मजिस्ट्रेट और राज्य सरकार द्वारा या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त किया गया कोई अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट ।
175. व्यक्तियों को समन करने की शक्ति-(1) धारा 174 के अधीन कार्यवाही करने वाला पुलिस अधिकारी यथापूर्वोक्त दो या अधिक व्यक्तियों को उक्त अन्वेषण के प्रयोजन से और किसी अन्य ऐसे व्यक्ति को, जो मामले के तथ्यों से परिचित प्रतीत होता है, लिखित आदेश द्वारा समन कर सकता है तथा ऐसे समन किया गया प्रत्येक व्यक्ति हाजिर होने के लिए और उन प्रश्नों के सिवाय, जिनके उत्तरों की प्रवृत्ति उसे आपराधिक आरोप या शास्ति या समपहरण की आशंका में डालने की है, सब प्रश्नों का सही-सही उत्तर देने के लिए आबद्ध होगा ।
(2) यदि तथ्यों से ऐसा कोई संज्ञेय अपराध, जिसे धारा 170 लागू है, प्रकट नहीं होता है तो पुलिस अधिकारी ऐसे व्यक्ति से मजिस्ट्रेट के न्यायालय में हाजिर होने की अपेक्षा न करेगा ।
176. मृत्यु के कारण की मजिस्ट्रेट द्वारा जांच -(1) [ ॥। जब मामला धारा 174 की उपधारा (3) के खंड (i) या खंड (ii) में निर्दिष्ट प्रकृति का हैट तब मृत्यु के कारण की जांच, पुलिस अधिकारी द्वारा किए जाने वाले अन्वेषण के बजाय या उसके अतिरिक्त, वह निकटतम मजिस्ट्रेट करेगा जो मृत्यु-समीक्षा करने के लिए सशक्त है और धारा 174 की उपधारा (1) में वर्णित किसी अन्य दशा में इस प्रकार सशक्त किया गया कोई भी मजिस्ट्रेट कर सकेगा; और यदि वह ऐसा करता है तो उसे ऐसी जांच करने में वे सब शक्तियां होंगी जो उसे किसी अपराध की जांच करने में होतीं ।
[(1क) जहां,-
(क) कोई व्यक्ति मर जाता है या गायब हो जाता है, या
(ख) किसी स्त्री के साथ बलात्संग किया गया अभिकथित है,
तो उस दशा में जब कि ऐसा व्यक्ति या स्त्री पुलिस अभिरक्षा या इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा प्राधिकृत किसी अन्य अभिरक्षा में है, वहां पुलिस द्वारा की गई जांच या किए गए अन्वेषण के अतिरिक्त, यथास्थिति, ऐसे न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा, जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर अपराध किया गया है, जांच की जाएगी ।]
(2) ऐसी जांच करने वाला मजिस्ट्रेट उसके संबंध में लिए गए साक्ष्य को इसमें इसके पश्चात् विहित किसी प्रकार से, मामले की परिस्थितियों के अनुसार अभिलिखित करेगा ।
(3) जब कभी ऐसे मजिस्ट्रेट के विचार में यह समीचीन है कि किसी व्यक्ति के, जो पहले ही गाड़ दिया गया है, मृत शरीर की इसलिए परीक्षा की जाए कि उसकी मृत्यु के कारण का पता चले तब मजिस्ट्रेट उस शरीर को निकलवा सकता है और उसकी परीक्षा करा सकता है ।
(4) जहां कोई जांच इस धारा के अधीन की जानी है, वहां मजिस्ट्रेट, जहां कहीं साध्य है, मृतक के उन नातेदारों को, जिनके नाम और पते ज्ञात हैं, इत्तिला देगा और उन्हें जांच के समय उपस्थित रहने की अनुज्ञा देगा ।
[(5) उपधारा (1क) के अधीन, यथास्थिति, जांच या अन्वेषण करने वाला न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट या कार्यपालक मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी, किसी व्यक्ति की मृत्यु के चौबीस घंटे के भीतर उसकी परीक्षा किए जाने की दृष्टि से शरीर को निकटतम सिविल सर्जन या अन्य अर्हित चिकित्सक को, जो इस निमित्त राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया गया हो, भेजेगा जब तक कि लेखबद्ध किए जाने वाले कारणों से ऐसा करना संभव न हो ।]
स्पष्टीकरण-इस धारा में नातेदार" पद से माता-पिता, संतान, भाई, बहिन और पति या पत्नी अभिप्रेत हैं ।
अध्याय 13
जांचों और विचारणों में दंड न्यायालयों की अधिकारिता
177. जांच और विचारण का मामूली स्थान-प्रत्येक अपराध की जांच और विचारण मामूली तौर पर ऐसे न्यायालय द्वारा किया जाएगा जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर वह अपराध किया गया है ।
178. जांच या विचारण का स्थान-(क) जहां यह अनिश्चित है कि कई स्थानीय क्षेत्रों में से किसमें अपराध किया गया है, अथवा
(ख) जहां अपराध अंशतः एक स्थानीय क्षेत्र में और अंशतः किसी दूसरे में किया गया है, अथवा
(ग) जहां अपराध चालू रहने वाला है और उसका किया जाना एक से अधिक स्थानीय क्षेत्रों में चालू रहता है, अथवा
(घ) जहां वह विभिन्न स्थानीय क्षेत्रों में किए गए कई कार्यों से मिलकर बनता है, वहां उसकी जांच या विचारण ऐसे स्थानीय क्षेत्रों में से किसी पर अधिकारिता रखने वाले न्यायालय द्वारा किया जा सकता है ।
179. अपराध वहां विचारणीय होगा जहां कार्य किया गया या जहां परिणाम निकला-जब कोई कार्य किसी की गई बात के और किसी निकले हुए परिणाम के कारण अपराध है तब ऐसे अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसी बात की गई या ऐसा परिणाम निकला ।
180. जहां कार्य अन्य अपराध से संबंधित होने के कारण अपराध है वहां विचारण का स्थान-जब कोई कार्य किसी ऐसे अन्य कार्य से संबंधित होने के कारण अपराध है, जो स्वयं भी अपराध है या अपराध होता यदि कर्ता अपराध करने के लिए समर्थ होता, तब प्रथम वर्णित अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर उन दोनों में से कोई भी कार्य किया गया है ।
181. कुछ अपराधों की दशा में विचारण का स्थान-(1) ठग होने के, या ठग द्वारा हत्या के, डकैती के, हत्या सहित डकैती के, डकैतों की टोली का होने के, या अभिरक्षा से निकल भागने के किसी अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर अपराध किया गया है या अभियुक्त व्यक्ति मिला है ।
(2) किसी व्यक्ति के व्यपहरण या अपहरण के किसी अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर वह व्यक्ति व्यपहृत या अपहृत किया गया या ले जाया गया या छिपाया गया या निरुद्ध किया गया है ।
(3) चोरी, उद्दापन या लूट के किसी अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसा अपराध किया गया है या चुराई हुई संपत्ति को जो कि अपराध का विषय है उसे करने वाले व्यक्ति द्वारा या किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा कब्जे में रखी गई है जिसने उस संपत्ति को चुराई हुई संपत्ति जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए प्राप्त किया या रखे रखा ।
(4) आपराधिक दुर्विनियोग या आपराधिक न्यासभंग के किसी अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर अपराध किया गया है या उस संपत्ति का, जो अपराध का विषय है, कोई भाग अभियुक्त व्यक्ति द्वारा प्राप्त किया गया या रखा गया है अथवा उसका लौटाया जाना या लेखा दिया जाना अपेक्षित है ।
(5) किसी ऐसे अपराध की, जिसमें चुराई हुई संपत्ति का कब्जा भी है, जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसा अपराध किया गया है या चुराई हुई संपत्ति किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा कब्जे में रखी गई है, जिसने उसे चुराई हुई जानते हुए या विश्वास करने का कारण होते हुए प्राप्त किया या रखे रखा ।
182. पत्रों, आदि द्वारा किए गए अपराध-(1) किसी ऐसे अपराध की, जिसमें छल करना भी है, जांच या उनका विचारण, उस दशा में जिसमें ऐसी प्रवंचना पत्रों या दूरसंचार संदेशों के माध्यम से की गई है ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसे पत्र या संदेश भेजे गए हैं या प्राप्त किए गए हैं तथा छल करने और बेईमानी से संपत्ति का परिदान उत्प्रेरित करने वाले किसी अपराध की जांच या उनका विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर संपत्ति, प्रवंचित व्यक्ति द्वारा परिदत्त की गई है या अभियुक्त व्यक्ति द्वारा प्राप्त की गई है ।
(2) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 494 या धारा 495 के अधीन दंडनीय किसी अपराध की जांच या उनका विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर अपराध किया गया है या अपराधी ने प्रथम विवाह की अपनी पत्नी या पति के साथ अंतिम बार निवास किया है [या प्रथम विवाह की पत्नी अपराध के किए जाने के पश्चात् स्थायी रूप से निवास करती हैट ।
183. यात्रा या जलयात्रा में किया गया अपराध-यदि कोई अपराध उस समय किया गया है जब वह व्यक्ति, जिसके द्वारा, या वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध, या वह चीज जिसके बारे में वह अपराध किया गया, किसी यात्रा या जलयात्रा पर है, तो उसकी जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है, जिसकी स्थानीय अधिकारिता में होकर या उसके अंदर वह व्यक्ति या चीज उस यात्रा या जलयात्रा के दौरान गई है ।
184. एक साथ विचारणीय अपराधों के लिए विचारण का स्थान-जहां,-
(क) किसी व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध ऐसे हैं कि प्रत्येक ऐसे अपराध के लिए धारा 219, धारा 220 या धारा 221 के उपबंधों के आधार पर एक ही विचारण में उस पर आरोप लगाया जा सकता है और उसका विचारण किया जा सकता है, अथवा
(ख) कई व्यक्तियों द्वारा किया गया अपराध या किए गए अपराध ऐसे हैं कि उनके लिए उन पर धारा 223 के उपबंधों के आधार पर एक साथ आरोप लगाया जा सकता है और विचारण किया जा सकता है,
वहां अपराध की जांच या विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जो उन अपराधों में से किसी की जांच या विचारण करने के लिए सक्षम है ।
185. विभिन्न सेशन खंडों में मामलों के विचारण का आदेश देने की शक्ति-इस अध्याय के पूर्ववर्ती उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, राज्य सरकार निदेश दे सकती है कि ऐसे किन्हीं मामलों का या किसी वर्ग के मामलों का विचारण, जो किसी जिले में विचारणार्थ सुपुर्द हो चुके हैं, किसी भी सेशन खंड में किया जा सकता है :
परंतु यह तब जब कि ऐसा निदेश उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान के अधीन या इस संहिता के या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन पहले ही जारी किए गए किसी निदेश के विरुद्ध नहीं है ।
186. संदेह की दशा में उच्च न्यायालय का वह जिला विनिश्चित करना जिसमें जांच या विचारण होगा-जहां दो या अधिक न्यायालय एक ही अपराध का संज्ञान कर लेते हैं और यह प्रश्न उठता है कि उनमें से किसे उस अपराध की जांच या विचारण करना चाहिए, वहां वह प्रश्न-
(क) यदि वे न्यायालय एक ही उच्च न्यायालय के अधीनस्थ हैं तो उस उच्च न्यायालय द्वारा ;
(ख) यदि वे न्यायालय एक ही उच्च न्यायालय के अधीनस्थ नहीं हैं, तो उस उच्च न्यायालय द्वारा जिसकी अपीली दांडिक अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के अंदर कार्यवाही पहले प्रारंभ की गई है,
विनिश्चित किया जाएगा, और तब उस अपराध के संबंध में अन्य सब कार्यवाहियां बंद कर दी जाएंगी ।
187. स्थानीय अधिकारिता के परे किए गए अपराध के लिए समन या वारंट जारी करने की शक्ति-(1) जब किसी प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने का कारण दिखाई देता है कि उसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर के किसी व्यक्ति ने ऐसी अधिकारिता के बाहर, (चाहे भारत के अंदर या बाहर) ऐसा अपराध किया है जिसकी जांच या विचारण 177 से 185 तक की धाराओं के (जिनके अंतर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं), उपबंधों के अधीन या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन ऐसी अधिकारिता के अंदर नहीं किया जा सकता है किंतु जो तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन भारत में विचारणीय है तब ऐसा मजिस्ट्रेट उस अपराध की जांच ऐसे कर सकता है मानो वह ऐसी स्थानीय अधिकारिता के अंदर किया गया है और ऐसे व्यक्ति को अपने समक्ष हाजिर होने के लिए इसमें इसके पूर्व उपबंधित प्रकार से विवश कर सकता है और ऐसे व्यक्ति को ऐसे अपराध की जांच या विचारण करने की अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट के पास भेज सकता है या यदि ऐसा अपराध मृत्यु से या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं है और ऐसा व्यक्ति इस धारा के अधीन कार्रवाई करने वाले मजिस्ट्रेट को समाधानप्रद रूप में जमानत देने के लिए तैयार और इच्छुक है तो ऐसी अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष उसकी हाजिरी के लिए प्रतिभुओं सहित या रहित बंधपत्र ले सकता है ।
(2) जब ऐसी अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट एक से अधिक हैं और इस धारा के अधीन कार्य करने वाला मजिस्ट्रेट अपना समाधान नहीं कर पाता है कि किस मजिस्ट्रेट के पास या समक्ष ऐसा व्यक्ति भेजा जाए या हाजिर होने के लिए आबद्ध किया जाए, तो मामले की रिपोर्ट उच्च न्यायालय के आदेश के लिए की जाएगी ।
188. भारत से बाहर किया गया अपराध-जब कोई अपराध भारत से बाहर-
(क) भारत के किसी नागरिक द्वारा चाहे खुले समुद्र पर या अन्यत्र ; अथवा
(ख) किसी व्यक्ति द्वारा, जो भारत का नागरिक नहीं है, भारत में रजिस्ट्रीकृत किसी पोत या विमान पर,
किया जाता है तब उस अपराध के बारे में उसके विरुद्ध ऐसी कार्यवाही की जा सकती है मानो वह अपराध भारत के अंदर उस स्थान में किया गया है जहां वह पाया गया है :
परंतु इस अध्याय की पूर्ववर्ती धाराओं में से किसी बात के होते हुए भी, ऐसे किसी अपराध की भारत में जांच या उसका विचारण केंद्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी के बिना नहीं किया जाएगा ।
189. भारत के बाहर किए गए अपराधों के बारे में साक्ष्य लेना-जब किसी ऐसे अपराध की, जिसका भारत से बाहर किसी क्षेत्र में किया जाना अभिकथित है, जांच या विचारण धारा 188 के उपबंधों के अधीन किया जा रहा है तब, यदि केंद्रीय सरकार उचित समझे तो यह निदेश दे सकती है कि उस क्षेत्र में या उस क्षेत्र के लिए न्यायिक अधिकारी के समक्ष या उस क्षेत्र में या उस क्षेत्र के लिए भारत के राजनयिक या कौंसलीय प्रतिनिधि के समक्ष दिए गए अभिसाक्ष्यों की या पेश किए गए प्रदर्शों की प्रतियों को ऐसी जांच या विचारण करने वाले न्यायालय द्वारा किसी ऐसे मामले में साक्ष्य के रूप में लिया जाएगा जिसमें ऐसा न्यायालय ऐसी किन्हीं बातों के बारे में, जिनसे ऐसे अभिसाक्ष्य या प्रदर्श संबंधित हैं साक्ष्य लेने के लिए कमीशन जारी कर सकता है ।
अध्याय 14
कार्यवाहियां शुरू करने के लिए अपेक्षित शर्तें
190. मजिस्ट्रेटों द्वारा अपराधों का संज्ञान-(1) इस अध्याय के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अधीन विशेषतया सशक्त किया गया कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, किसी भी अपराध का संज्ञान निम्नलिखित दशाओं में कर सकता है :-
(क) उन तथ्यों का, जिनसे ऐसा अपराध बनता है परिवाद प्राप्त होने पर ;
(ख) ऐसे तथ्यों के बारे में पुलिस रिपोर्ट पर ;
(ग) पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त इस इत्तिला पर या स्वयं अपनी इस जानकारी पर कि ऐसा अपराध किया गया है ।
(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट को ऐसे अपराधों का, जिनकी जांच या विचारण करना उसकी क्षमता के अंदर है, उपधारा (1) के अधीन संज्ञान करने के लिए सशक्त कर सकता है ।
191. अभियुक्त के आवेदन पर अंतरण-जब मजिस्ट्रेट किसी अपराध का संज्ञान धारा 190 की उपधारा (1) के खंड (ग) के अधीन करता है तब अभियुक्त को, कोई साक्ष्य लेने से पहले, इत्तिला दी जाएगी कि वह मामले की किसी अन्य मजिस्ट्रेट से जांच या विचारण कराने का हकदार है और यदि अभियुक्त, या यदि एक से अधिक अभियुक्त हैं तो उनमें से कोई, संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष आगे कार्यवाही किए जाने पर आपत्ति करता है तो मामला उस अन्य मजिस्ट्रेट को अंतरित कर दिया जाएगा जो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट किया जाए ।
192. मामले मजिस्ट्रेटों के हवाले करना - (1) कोई मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अपराध का संज्ञान करने के पश्चात् मामले को जांच या विचारण के लिए अपने अधीनस्थ किसी सक्षम मजिस्ट्रेट के हवाले कर सकता है ।
(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त सशक्त किया गया कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट, अपराध का संज्ञान करने के पश्चात्, मामले को जांच या विचारण के लिए अपने अधीनस्थ किसी ऐसे सक्षम मजिस्ट्रेट के हवाले कर सकता है जिसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट साधारण या विशेष आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे, और तब ऐसा मजिस्ट्रेट जांच या विचारण कर सकता है ।
193. अपराधों का सेशन न्यायालयों द्वारा संज्ञान-इस संहिता द्वारा या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय, कोई सेशन न्यायालय आरंभिक अधिकारिता वाले न्यायालय के रूप में किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं करेगा जब तक मामला इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा उसके सुपुर्द नहीं कर दिया गया है ।
194. अपर और सहायक सेशन न्यायाधीशों को हवाले किए गए मामलों पर उनके द्वारा विचारण-अपर सेशन न्यायाधीश या सहायक सेशन न्यायाधीश ऐसे मामलों का विचारण करेगा जिन्हें विचारण के लिए उस खंड का सेशन न्यायाधीश साधारण या विशेष आदेश द्वारा उसके हवाले करता है या जिनका विचारण करने के लिए उच्च न्यायालय विशेष आदेश द्वारा उसे निदेश देता है ।
195. लोक न्याय के विरुद्ध अपराधों के लिए और साक्ष्य में दिए गए दस्तावेजों से संबंधित अपराधों के लिए लोक सेवकों के विधिपूर्ण प्राधिकार के अवमान के लिए अभियोजन-(1) कोई न्यायालय,-
(क) (i) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 172 से धारा 188 तक की धाराओं के (जिनके अंतर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं) अधीन दंडनीय किसी अपराध का, अथवा
(ii) ऐसे अपराध के किसी दुष्प्रेरण या ऐसा अपराध करने के प्रयत्न का, अथवा
(iii) ऐसा अपराध करने के लिए किसी आपराधिक षड्यंत्र का,
संज्ञान संबद्ध लोक सेवक के, या किसी अन्य ऐसे लोक सेवक के, जिसके वह प्रशासनिक तौर पर अधीनस्थ है, लिखित परिवाद पर ही करेगा, अन्यथा नहीं ;
(ख) (i) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की निम्नलिखित धाराओं अर्थात् 193 से 196 (जिनके अंतर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं ), 199, 200, 205 से 211 (जिनके अंतर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं) और 228 में से किन्हीं के अधीन दंडनीय किसी अपराध का, जब ऐसे अपराध के बारे में यह अभिकथित है कि वह किसी न्यायालय में की कार्यवाही में या उसके संबंध में किया गया है ; अथवा
(ii) उसी संहिता की धारा 463 में वर्णित या धारा 471, धारा 475 या धारा 476 के अधीन दंडनीय अपराध का, जब ऐसे अपराध के बारे में यह अभिकथित है कि वह किसी न्यायालय में की कार्यवाही में पेश की गई साक्ष्य में दी गई किसी दस्तावेज के बारे में किया गया है ; अथवा
(iii) उपखंड (i) या उपखंड (ii) में विनिर्दिष्ट किसी अपराध को करने के लिए आपराधिक षड्यंत्र या उसे करने के प्रयत्न या उसके दुष्प्रेरण के अपराध का,
[संज्ञान ऐसे न्यायालय के, या न्यायालय के ऐसे अधिकारी के, जिसे वह न्यायालय इस निमित्त लिखित रूप में प्राधिकृत करे या किसी अन्य न्यायालय के, जिसके वह न्यायालय अधीनस्थ है लिखित परिवाद पर ही] करेगा अन्यथा नहीं ।]
(2) जहां किसी लोक सेवक द्वारा उपधारा (1) के खंड (क) के अधीन कोई परिवाद किया गया है वहां ऐसा कोई प्राधिकारी, जिसके वह प्रशासनिक तौर पर अधीनस्थ है, उस परिवाद को वापस लेने का आदेश दे सकता है और ऐसे आदेश की प्रति न्यायालय को भेजेगा ; और न्यायालय द्वारा उसकी प्राप्ति पर उस परिवाद के संबंध में आगे कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी :
परंतु ऐसे वापस लेने का कोई आदेश उस दशा में नहीं दिया जाएगा जिसमें विचारण प्रथम बार के न्यायालय में समाप्त हो चुका है ।
(3) उपधारा (1) के खंड (ख) में न्यायालय" शब्द से कोई सिविल, राजस्व या दंड न्यायालय अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन गठित कोई अधिकरण भी है यदि वह उस अधिनियम द्वारा इस धारा के प्रयोजनार्थ न्यायालय घोषित किया गया है ।
(4) उपधारा (1) के खंड (ख) के प्रयोजनों के लिए कोई न्यायालय उस न्यायालय के जिसमें ऐसे पूर्वकथित न्यायालय की अपीलनीय डिक्रियों या दंडादेशों की साधारणतया अपील होती है, अधीनस्थ समझा जाएगा या ऐसा सिविल न्यायालय, जिसकी डिक्रियों की साधारणतया कोई अपील नहीं होती है, उस मामूली आरंभिक सिविल अधिकारिता वाले प्रधान न्यायालय के अधीनस्थ समझा जाएगा जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अंदर ऐसा सिविल न्यायालय स्थित है :
परन्तु-
(क) जहां अपीलें एक से अधिक न्यायालय में होती हैं वहां अवर अधिकारिता वाला अपील न्यायालय वह न्यायालय होगा जिसके अधीनस्थ ऐसा न्यायालय समझा जाएगा ;
(ख) जहां अपीलें सिविल न्यायालय में और राजस्व न्यायालय में भी होती हैं वहां ऐसा न्यायालय उस मामले या कार्यवाही के स्वरूप के अनुसार, जिसके संबंध में उस अपराध का किया जाना अभिकथित है, सिविल या राजस्व न्यायालय के अधीनस्थ समझा जाएगा ।
[195क. धमकी देने आदि की दशा में साक्षियों के लिए प्रक्रिया-कोई साक्षी या कोई अन्य व्यक्ति भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 195क के अधीन अपराध के संबंध में परिवाद फाइल कर सकेगा ।]
196. राज्य के विरुद्ध अपराधों के लिए और ऐसे अपराध करने के लिए आपराधिक षड्यंत्र के लिए अभियोजना-(1) कोई न्यायालय,-
(क) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 6 के अधीन या धारा 153क, [धारा 295क या धारा 505 की उपधारा (1)] के अधीन दंडनीय किसी अपराध का ; अथवा
(ख) ऐसा अपराध करने के लिए आपराधिक षड्यंत्र का ; अथवा
(ग) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 108क में यथावर्णित किसी दुष्प्रेरण का,
संज्ञान केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं ।
[(1क) कोई न्यायालय,-
(क) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 153ख या धारा 505 की उपधारा (2) या उपधारा (3) के अधीन दंडनीय किसी अपराध का, अथवा
(ख) ऐसा अपराध करने के लिए आपराधिक षड्यंत्र का,
संज्ञान केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट की पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं ।]
(2) कोई न्यायालय भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 120ख के अधीन दंडनीय किसी आपराधिक षड्यंत्र के किसी ऐसे अपराध का, जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दो वर्ष या उससे अधिक की अवधि के कठिन कारावास से दंडनीय [अपराध] करने के आपराधिक षड्यंत्र से भिन्न है, संज्ञान तब तक नहीं करेगा जब तक राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट ने कार्यवाही शुरू करने के लिए लिखित सम्मति नहीं दे दी है :
परंतु जहां आपराधिक षड्यंत्र ऐसा है जिसे धारा 195 के उपबंध लागू हैं वहां ऐसी कोई सम्मति आवश्यक न होगी ।
(3) केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार, [उपधारा (1) या उपधारा (1क) के अधीन मंजूरी देने के पूर्व और जिला मजिस्ट्रेट, उपधारा (1क) के अधीन मंजूरी देने से पूर्व,ट और राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट, उपधारा (2) के अधीन सम्मति देने के पूर्व, ऐसे पुलिस अधिकारी द्वारा जो निरीक्षक की पंक्ति से नीचे का नहीं है, प्रारंभिक अन्वेषण किए जाने का आदेश दे सकता है और उस दशा में ऐसे पुलिस अधिकारी की वे शक्तियां होंगी जो धारा 155 की उपधारा (3) में निर्दिष्ट हैं ।
197. न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन-(1) जब किसी व्यक्ति पर, जो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या ऐसा लोक सेवक है या था जिसे सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से ही उसके पद से हटाया जा सकता है, अन्यथा नहीं, किसी ऐसे अपराध का अभियोग है जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था जब वह अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, तब कोई भी न्यायालय ऐसे अपराध का संज्ञान, [जैसा लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 (2014 का 1) में अन्यथा उपबन्धित हे, उसके सिवाय]-
(क) ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो संघ के कार्यकलाप के संबंध में, यथास्थिति, नियोजित है या अभिकथित अपराध के किए जाने के समय नियोजित था, केंद्रीय सरकार की ;
(ख) ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो किसी राज्य के कार्यकलाप के संबंध में, यथास्थिति, नियोजित है या अभिकथित अपराध के किए जाने के समय नियोजित था, उस राज्य सरकार की,
पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं :
[परंतु जहां अभिकथित अपराध खंड (ख) में निर्दिष्ट किसी व्यक्ति द्वारा उस अवधि के दौरान किया गया था जब राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा प्रवृत्त थी, वहां खंड (ख) इस प्रकार लागू होगा मानो उसमें आने वाले राज्य सरकार" पद के स्थान पर केंद्रीय सरकार" पद रख दिया गया है ।]
[स्पष्टीकरण-शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि ऐसे किसी लोक सेवक की दशा में, जिसके बारे में यह अभिकथन किया गया है कि उसने भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 166क, धारा 166ख, धारा 354, धारा 354क, धारा 354ख, धारा 354ग, धारा 354घ, धारा 370, धारा 375, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ग, धारा 376घ या धारा 509 के अधीन कोई अपराध किया है, कोई पूर्व मंजूरी अपेक्षित नहीं होगी ।]
(2) कोई भी न्यायालय संघ के सशस्त्र बल के किसी सदस्य द्वारा किए गए किसी अपराध का संज्ञान, जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था, जब वह अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, केंद्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं ।
(3) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निदेश दे सकती है कि उसमें यथाविनिर्दिष्ट बल के ऐसे वर्ग या प्रवर्ग के सदस्यों को जिन्हें लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्य-भार सौंपा गया है, जहां कहीं भी वे सेवा कर रहे हों, उपधारा (2) के उपबंध लागू होंगे और तब उस उपधारा के उपबंध इस प्रकार लागू होंगे मानो उसमें आने वाले केंद्रीय सरकार" पद के स्थान पर राज्य सरकार" पद रख दिया गया है ।
[(3क) उपधारा (3) में किसी बात के होते हुए भी कोई भी न्यायालय ऐसे बलों के किसी सदस्य द्वारा, जिसे राज्य में लोक व्यवस्था बनाए रखने का कार्य-भार सौंपा गया है, किए गए किसी ऐसे अपराध का संज्ञान, जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके द्वारा तब किया गया था जब वह, उस राज्य में संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा के प्रवृत्त रहने के दौरान, अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, केंद्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं ।
(3ख) इस संहिता में या किसी अन्य विधि में किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी, यह घोषित किया जाता है कि 20 अगस्त, 1991 को प्रारंभ होने वाली और दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1991 (1991 का 43), पर राष्ट्रपति जिस तारीख को अनुमति देते हैं उस तारीख की ठीक पूर्ववर्ती तारीख को समाप्त होने वाली अवधि के दौरान, ऐसे किसी अपराध के संबंध में जिसका उस अवधि के दौरान किया जाना अभिकथित है जब संविधान के अनुच्छेद 356 के खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा राज्य में प्रवृत्त थी, राज्य सरकार द्वारा दी गई कोई मंजूरी या ऐसी मंजूरी पर किसी न्यायालय द्वारा किया गया कोई संज्ञान अविधिमान्य होगा और ऐसे विषय में केंद्रीय सरकार मंजूरी प्रदान करने के लिए सक्षम होगी तथा न्यायालय उसका संज्ञान करने के लिए सक्षम होगा ।]
(4) यथास्थिति, केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार उस व्यक्ति का जिसके द्वारा और उस रीति का जिससे वह अपराध या वे अपराध, जिसके या जिनके लिए ऐसे न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या लोक सेवक का अभियोजन किया जाना है, अवधारण कर सकती है और वह न्यायालय विनिर्दिष्ट कर सकती है जिसके समक्ष विचारण किया जाना है ।
198. विवाह के विरुद्ध अपराधों के लिए अभियोजन-(1) कोई न्यायालय भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 20 के अधीन दंडनीय अपराध का संज्ञान ऐसे अपराध से व्यथित किसी व्यक्ति द्वारा किए गए परिवाद पर ही करेगा, अन्यथा नहीं :
परंतु-
(क) जहां ऐसा व्यक्ति अठारह वर्ष से कम आयु का है अथवा जड़ या पागल है अथवा रोग या अंग-शैथिल्य के कारण परिवाद करने के लिए असमर्थ है, या ऐसी स्त्री है जो स्थानीय रूढ़ियों और रीतियों के अनुसार लोगों के सामने आने के लिए विवश नहीं की जानी चाहिए, वहां उसकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति न्यायालय की इजाजत से परिवाद कर सकता है ;
(ख) जहां ऐसा व्यक्ति पति है, और संघ के सशस्त्र बलों में से किसी में से ऐसी परिस्थितियों में सेवा कर रहा है जिनके बारे में उसके कमान आफिसर ने यह प्रमाणित किया है कि उनके कारण उसे परिवाद कर सकने के लिए अनुपस्थिति छुट्टी प्राप्त नहीं हो सकती, वहां उपधारा (4) के उपबंधों के अनुसार पति द्वारा प्राधिकृत कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से परिवाद कर सकता है ;
(ग) जहां भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की [ धारा 494 या धारा 495ट के अधीन दंडनीय अपराध से व्यथित व्यक्ति पत्नी है वहां उसकी ओर से उसके पिता, माता, भाई, बहिन, पुत्र या पुत्री या उसके पिता या माता के भाई या बहिन द्वारा [ या न्यायालय की इजाजत से, किसी ऐसे अन्य व्यक्ति द्वारा, जो उससे रक्त, विवाह या दत्तक द्वारा संबंधित है,] परिवाद किया जा सकता है ।
(2) उपधारा (1) के प्रयोजनों के लिए, स्त्री के पति से भिन्न कोई व्यक्ति उक्त संहिता की धारा 497 या धारा 498 के अधीन दंडनीय अपराध से व्यथित नहीं समझा जाएगा :
परंतु पति की अनुपस्थिति में, कोई ऐसा व्यक्ति, जो उस समय जब ऐसा अपराध किया गया था ऐसी स्त्री के पति की ओर से उसकी देख-रेख कर रहा था उसकी ओर से न्यायालय की इजाजत से परिवाद कर सकता है ।
(3) जब उपधारा (1) के परंतुक के खंड (क) के अधीन आने वाले किसी मामले में अठारह वर्ष से कम आयु के व्यक्ति या पागल व्यक्ति की ओर से किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा परिवाद किया जाना है, जो सक्षम प्राधिकारी द्वारा अवयस्क या पागल के शरीर का संरक्षक नियुक्त या घोषित नहीं किया गया है, और न्यायालय का समाधान हो जाता है कि ऐसा कोई संरक्षक जो ऐसे नियुक्त या घोषित किया गया है तब न्यायालय इजाजत के लिए आवेदन मंजूर करने के पूर्व, ऐसे संरक्षक को सूचना दिलवाएगा और सुनवाई का उचित अवसर देगा ।
(4) उपधारा (1) के परंतुक के खंड (ख) में निर्दिष्ट प्राधिकार लिखित रूप में दिया जाएगा और, वह पति द्वारा हस्ताक्षरित या अन्यथा अनुप्रमाणित होगा, उसमें इस भाव का कथन होगा कि उसे उन अभिकथनों की जानकारी दे दी गई है जिनके आधार पर परिवाद किया जाना है और वह उसके कमान आफिसर द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित होगा, तथा उसके साथ उस आफिसर द्वारा हस्ताक्षरित इस भाव का प्रमाणपत्र होगा कि पति को स्वयं परिवाद करने के प्रयोजन के लिए अनुपस्थिति छुट्टी उस समय नहीं दी जा सकती है ।
(5) किसी दस्तावेज के बारे में, जिसका ऐसा प्राधिकार होना तात्पर्यित है और जिससे उपधारा (4) के उपबंधों की पूर्ति होती है और किसी दस्तावेज के बारे में, जिसका उस उपधारा द्वारा अपेक्षित प्रमाणपत्र होना तात्पर्यित है, जब तक प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए, यह उपधारणा की जाएगी कि वह असली है और उसे साक्ष्य में ग्रहण किया जाएगा ।
(6) कोई न्यायालय भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376 के अधीन अपराध का संज्ञान, जहां ऐसा अपराध किसी पुरुष द्वारा [अठारह वर्ष से कम आयु की] अपनी ही पत्नी के साथ मैथुन करता है, उस दशा में न करेगा जब उस अपराध के किए जाने की तारीख से एक वर्ष से अधिक व्यतीत हो चुका है ।
(7) इस धारा के उपबंध किसी अपराध के दुष्प्रेरण या अपराध करने के प्रयत्न को ऐसे लागू होंगे, जैसे वे अपराध को लागू होते हैं ।
[198क. भारतीय दंड संहिता की धारा 498क के अधीन अपराधों का अभियोजन-कोई न्यायालय भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 498क के अधीन दंडनीय अपराध का संज्ञान ऐसे अपराध को गठित करने वाले तथ्यों की पुलिस रिपोर्ट पर अथवा अपराध से व्यथित व्यक्ति द्वारा या उसके पिता, माता, भाई, बहिन द्वारा या उसके पिता अथवा माता के भाई या बहिन द्वारा किए गए परिवाद पर या रक्त, विवाह या दत्तक ग्रहण द्वारा उससे संबंधित किसी अन्य व्यक्ति द्वारा न्यायालय की इजाजत से किए गए परिवाद पर ही करेगा अन्यथा नहीं ।]
[198ख. अपराध का संज्ञान-कोई भी न्यायालय भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376ख के अधीन दंडनीय किसी अपराध का, जहां व्यक्तियों में वैवाहिक संबंध है, उन तथ्यों का, जिनसे पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध परिवाद फाइल किए जाने या किए जाने पर अपराध गठित होता है, प्रथमदृष्ट्या समाधान होने के सिवाय संज्ञान नहीं करेगा ।]
199. मानहानि के लिए अभियोजन-(1) कोई न्यायालय भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 21 के अधीन दंडनीय अपराध का संज्ञान ऐसे अपराध से व्यथित किसी व्यक्ति द्वारा किए गए परिवाद पर ही करेगा, अन्यथा नहीं :
परंतु जहां ऐसा व्यक्ति अठारह वर्ष से कम आयु का है अथवा जड़ या पागल है अथवा रोग या अंग-शैथिल्य के कारण परिवाद करने के लिए असमर्थ है, या ऐसी स्त्री है, जो स्थानीय रूढ़ियों और रीतियों के अनुसार लोगों के सामने आने के लिए विवश नहीं की जानी चाहिए, वहां उसकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति न्यायालय की इजाजत से परिवाद कर सकता है ।
(2) इस संहिता में किसी बात के होते हुए भी, जब भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 21 के अधीन आने वाले किसी अपराध के बारे में यह अभिकथित है कि वह ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध, जो ऐसा अपराध किए जाने के समय भारत का राष्ट्रपति, या भारत का उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल या किसी संघ राज्यक्षेत्र का प्रशासक या संघ या किसी राज्य का या किसी संघ राज्यक्षेत्र का मंत्री अथवा संघ या किसी राज्य के कार्यकलापों के संबंध में नियोजित अन्य लोक सेवक था, उसके लोक कृत्यों के निर्वहन में उसके आचरण के संबंध में किया गया है तब सेशन न्यायालय, ऐसे अपराध का संज्ञान, उसको मामला सुपुर्द हुए बिना, लोक अभियोजक द्वारा किए गए लिखित परिवाद पर कर सकता है ।
(3) उपधारा (2) में निर्दिष्ट ऐसे प्रत्येक परिवाद में वे तथ्य, जिनसे अभिकथित अपराध बनता है, ऐसे अपराध का स्वरूप और ऐसी अन्य विशिष्टियां वर्णित होंगी जो अभियुक्त को उसके द्वारा किए गए अभिकथित अपराध की सूचना देने के लिए उचित रूप से पर्याप्त है ।
(4) उपधारा (2) के अधीन लोक अभियोजक द्वारा कोई परिवाद-
(क) किसी ऐसे व्यक्ति की दशा में जो किसी राज्य का राज्यपाल है या रहा है या किसी राज्य की सरकार का मंत्री है या रहा है, उस राज्य सरकार की ;
(ख) किसी राज्य के कार्यकलापों के संबंध में नियोजित किसी अन्य लोक सेवक की दशा में, उस राज्य सरकार की ;
(ग) किसी अन्य दशा में, केंद्रीय सरकार की,
पूर्व मंजूरी से ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं ।
(5) कोई सेशन न्यायालय उपधारा (2) के अधीन किसी अपराध का संज्ञान तभी करेगा जब परिवाद उस तारीख से छह मास के अंदर कर दिया जाता है जिसको उस अपराध का किया जाना अभिकथित है ।
(6) इस धारा की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति के, जिसके विरुद्ध अपराध का किया जाना अभिकथित है, उस अपराध की बाबत अधिकारिता वाले किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद करने के अधिकार पर या ऐसे परिवाद पर अपराध का संज्ञान करने की ऐसे मजिस्ट्रेट की शक्ति पर प्रभाव न डालेगी ।
अध्याय 15
मजिस्ट्रेटों से परिवाद
200. परिवादी की परीक्षा-परिवाद पर किसी अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट, परिवादी की और यदि कोई साक्षी उपस्थित हैं तो उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा और ऐसी परीक्षा का सारांश लेखबद्ध किया जाएगा और परिवादी और साक्षियों द्वारा तथा मजिस्ट्रेट द्वारा भी हस्ताक्षरित किया जाएगा :
परंतु जब परिवाद लिख कर किया जाता है तब मजिस्ट्रेट के लिए परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करना आवश्यक न होगा -
(क) यदि परिवाद अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में कार्य करने वाले या कार्य करने का तात्पर्य रखने वाले लोक सेवक द्वारा या न्यायालय द्वारा किया गया है, अथवा
(ख) यदि मजिस्ट्रेट जांच या विचारण के लिए मामले को धारा 192 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले कर देता है :
परंतु यह और कि यदि मजिस्ट्रेट परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करने के पश्चात् मामले को धारा 192 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले करता है तो बाद वाले मजिस्ट्रेट के लिए उनकी फिर से परीक्षा करना आवश्यक न होगा ।
201. ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा प्रक्रिया जो मामले का संज्ञान करने के लिए सक्षम नहीं है-यदि परिवाद ऐसे मजिस्ट्रेट को किया जाता है जो उस अपराध का संज्ञान करने के लिए सक्षम नहीं है, तो-
(क) यदि परिवाद लिखित है तो वह उसको समुचित न्यायालय में पेश करने के लिए, उस भाव के पृष्ठांकन सहित, लौटा देगा ;
(ख) यदि परिवाद लिखित नहीं है तो वह परिवादी को उचित न्यायालय में जाने का निदेश देगा ।
202. आदेशिका के जारी किए जाने को मुल्तवी करना-(1) यदि कोई मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध का परिवाद प्राप्त करने पर, जिसका संज्ञान करने के लिए वह प्राधिकृत है या जो धारा 192 के अधीन उसके हवाले किया गया है, ठीक समझता है तो [ और ऐसे मामले में जहां अभियुक्त ऐसे किसी स्थान में निवास कर रहा है जो उस क्षेत्र से परे है जिसमें वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता हैट अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका का जारी किया जाना मुल्तवी कर सकता है और यह विनिश्चित करने के प्रयोजन से कि कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है अथवा नहीं, या तो स्वयं ही मामले की जांच कर सकता है या किसी पुलिस अधिकारी द्वारा या अन्य ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिसको वह ठीक समझे अन्वेषण किए जाने के लिए निदेश दे सकता है :
परंतु अन्वेषण के लिए ऐसा कोई निदेश वहां नहीं दिया जाएगा-
(क) जहां मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है ; अथवा
(ख) जहां परिवाद किसी न्यायालय द्वारा नहीं किया गया है जब तक कि परिवादी की या उपस्थित साक्षियों की (यदि कोई हों) धारा 200 के अधीन शपथ पर परीक्षा नहीं कर ली जाती है ।
(2) उपधारा (1) के अधीन किसी जांच में यदि मजिस्ट्रेट, ठीक समझता है तो साक्षियों का शपथ पर साक्ष्य ले सकता है :
परंतु यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह परिवादी से अपने सब साक्षियों को पेश करने की अपेक्षा करेगा और उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा ।
(3) यदि उपधारा (1) के अधीन अन्वेषण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो पुलिस अधिकारी नहीं है तो उस अन्वेषण के लिए उसे वारंट के बिना गिरफ्तार करने की शक्ति के सिवाय पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को इस संहिता द्वारा प्रदत्त सभी शक्तियां होंगी ।
203. परिवाद का खारिज किया जाना-यदि परिवादी के और साक्षियों के शपथ पर किए गए कथन पर (यदि कोई हो), और धारा 202 के अधीन जांच या अन्वेषण के (यदि कोई हो) परिणाम पर, विचार करने के पश्चात्, मजिस्ट्रेट की यह राय है कि कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो वह परिवाद को खारिज कर देगा और ऐसे प्रत्येक मामले में वह ऐसा करने के अपने कारणों को संक्षेप में अभिलिखित करेगा ।
अध्याय 16
मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही का प्रारंभ किया जाना
204. आदेशिका का जारी किया जाना-(1) यदि किसी अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट की राय में कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार हैं और-
(क) मामला समन-मामला प्रतीत होता है तो वह अभियुक्त की हाजिरी के लिए समन जारी करेगा ; अथवा
(ख) मामला वारंट-मामला प्रतीत होता है तो वह अपने या (यदि उसकी अपनी अधिकारिता नहीं है तो) अधिकारिता वाले किसी अन्य मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त के निश्चित समय पर लाए जाने या हाजिर होने के लिए वारंट, या यदि ठीक समझता है समन, जारी कर सकता है ।
(2) अभियुक्त के विरुद्ध उपधारा (1) के अधीन तब तक कोई समन या वारंट जारी नहीं किया जाएगा जब तक अभियोजन के साक्षियों की सूची फाइल नहीं कर दी जाती है ।
(3) लिखित परिवाद पर संस्थित कार्यवाही में उपधारा (1) के अधीन जारी किए गए प्रत्येक समन या वारंट के साथ उस परिवाद की एक प्रतिलिपि होगी ।
(4) जब तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन कोई आदेशिका फीस या अन्य फीस संदेय है तब कोई आदेशिका तब तक जारी नहीं की जाएगी जब तक फीस नहीं दे दी जाती है और यदि ऐसी फीस उचित समय के अंदर नहीं दी जाती है तो मजिस्ट्रेट परिवाद को खारिज कर सकता है ।
(5) इस धारा की कोई बात धारा 87 के उपबंधों पर प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जाएगी ।
205. मजिस्ट्रेट का अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकना-(1) जब कभी कोई मजिस्ट्रेट समन जारी करता है तब यदि उसे ऐसा करने का कारण प्रतीत होता है तो वह अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्त कर सकता है और अपने प्लीडर द्वारा हाजिर होने की अनुज्ञा दे सकता है ।
(2) किंतु मामले की जांच या विचारण करने वाला मजिस्ट्रेट, स्वविवेकानुसार, कार्यवाही के किसी प्रक्रम में अभियुक्त की वैयक्तिक हाजिरी का निदेश दे सकता है और यदि आवश्यक हो तो उसे इस प्रकार हाजिर होने के लिए इसमें इसके पूर्व उपबंधित रीति से विवश कर सकता है ।
206. छोटे अपराधों के मामले में विशेष समन-(1) यदि किसी छोटे अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट की राय में, मामले को [धारा 260 या धारा 261 के अधीन] संक्षेपतः निपटाया जा सकता है तो वह मजिस्ट्रेट उस दशा के सिवाय जहां उन कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे उसकी प्रतिकूल राय है, अभियुक्त से यह अपेक्षा करते हुए उसके लिए समन जारी करेगा कि वह विनिर्दिष्ट तारीख को मजिस्ट्रेट के समक्ष या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा हाजिर हो या यदि वह मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर हुए बिना आरोप का दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है तो लिखित रूप में उक्त अभिवाक् और समन में विनिर्दिष्ट जुर्माने की रकम डाक या संदेशवाहक द्वारा विनिर्दिष्ट तारीख के पूर्व भेज दे या यदि वह प्लीडर द्वारा हाजिर होना चाहता है और ऐसे प्लीडर द्वारा उस आरोप के दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है तो प्लीडर को अपनी ओर से आरोप के दोषी होने का अभिवचन करने के लिए लिखकर प्राधिकृत करे और ऐसे प्लीडर की मार्फत जुर्माने का संदाय करे :
परंतु ऐसे समन में विनिर्दिष्ट जुर्माने की रकम [एक हजार रुपए] से अधिक न होगी ।
(2) इस धारा के प्रयोजनों के लिए छोटे अपराध" से कोई ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो केवल एक हजार रुपए से अनधिक जुर्माने से दंडनीय है किंतु इसके अंतर्गत कोई ऐसा अपराध नहीं है जो मोटरयान अधिनियम, 1939 (1939 का 4) के अधीन या किसी अन्य ऐसी विधि के अधीन, जिसमें दोषी होने के अभिवाक् पर अभियुक्त की अनुपस्थिति में उसको दोषसिद्ध करने के लिए उपबंध है, इस प्रकार दंडनीय है ।
[(3) राज्य सरकार, किसी मजिस्ट्रेट को उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग किसी ऐसे अपराध के संबंध में करने के लिए, जो धारा 320 के अधीन शमनीय है, या जो कारावास से, जिसकी अवधि तीन मास से अधिक नहीं है या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय है अधिसूचना द्वारा विशेष रूप से वहां सशक्त कर सकती है, जहां मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए मजिस्ट्रेट की राय है कि केवल जुर्माना अधिरोपित करने से न्याय के उद्देश्य पूरे हो जाएंगे ।]
207. अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट या अन्य दस्तावेजों की प्रतिलिपि देना-किसी ऐसे मामले में जहां कार्यवाही पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संस्थित की गई है, मजिस्ट्रेट निम्नलिखित में से प्रत्येक की एक प्रतिलिपि अभियुक्त को अविलंब निःशुल्क देगा :-
(i) पुलिस रिपोर्ट ;
(ii) धारा 154 के अधीन लेखबद्ध की गई प्रथम इत्तिला रिपोर्ट ;
(iii) धारा 161 की उपधारा (3) के अधीन अभिलिखित उन सभी व्यक्तियों के कथन, जिनकी अपने साक्षियों के रूप में परीक्षा करने का अभियोजन का विचार है, उनमें से किसी ऐसे भाग को छोड़कर जिनको ऐसे छोड़ने के लिए निवेदन धारा 173 की उपधारा (6) के अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया है ;
(iv) धारा 164 के अधीन लेखबद्ध की गई संस्वीकृतियां या कथन, यदि कोई हों ;
(v) कोई अन्य दस्तावेज या उसका सुसंगत उद्धरण, जो धारा 173 की उपधारा (5) के अधीन पुलिस रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को भेजी गई है :
परंतु मजिस्ट्रेट खण्ड (iii) में निर्दिष्ट कथन के किसी ऐसे भाग का परिशीलन करने और ऐसे निवेदन के लिए पुलिस अधिकारी द्वारा दिए गए कारणों पर विचार करने के पश्चात् यह निदेश दे सकता है कि कथन के उस भाग की या उसके ऐसे प्रभाग की, जैसा मजिस्ट्रेट ठीक समझे, एक प्रतिलिपि अभियुक्त को दी जाए :
परंतु यह और कि यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि खंड (v) में निर्दिष्ट कोई दस्तावेज विशालकाय है तो वह अभियुक्त को उसकी प्रतिलिपि देने के बजाय यह निदेश देगा कि उसे स्वयं या प्लीडर द्वारा न्यायालय में उसका निरीक्षण ही करने दिया जाएगा ।
208. सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय अन्य मामलों में अभियुक्त को कथनों और दस्तावेजों की प्रतिलिपियां देना-जहां पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किसी मामले में, धारा 204 के अधीन आदेशिका जारी करने वाले मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है, वहां मजिस्ट्रेट निम्नलिखित में से प्रत्येक की एक प्रतिलिपि अभियुक्त को अविलंब निःशुल्क देगा :-
(i) उन सभी व्यक्तियों के, जिनकी मजिस्ट्रेट द्वारा परीक्षा की जा चुकी है, धारा 200 या धारा 202 के अधीन लेखबद्ध किए गए कथन ;
(ii) धारा 161 या धारा 164 के अधीन लेखबद्ध किए गए कथन, और संस्वीकृतियां, यदि कोई हों ;
(iii) मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश की गई कोई दस्तावेजें, जिन पर निर्भर रहने का अभियोजन का विचार है :
परंतु यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि ऐसी कोई दस्तावेज विशालकाय है, तो वह अभियुक्त को उसकी प्रतिलिपि देने के बजाय यह निदेश देगा कि उसे स्वयं या प्लीडर द्वारा न्यायालय में उसका निरीक्षण ही करने दिया जाएगा ।
209. जब अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तब मामला उसे सुपुर्द करना-जब पुलिस रिपोर्ट पर या अन्यथा संस्थित किसी मामले में अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है और मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह-
[(क) यथास्थिति, धारा 207 या धारा 208 के उपबंधों का अनुपालन करने के पश्चात् मामला सेशन न्यायालय को सुपुर्द करेगा और जमानत से संबंधित इस संहिता के उपबंधों के अधीन रहते हुए अभियुक्त व्यक्ति को अभिरक्षा में तब तक के लिए प्रतिप्रेषित करेगा जब तक ऐसी सुपुर्दगी नहीं कर दी जाती है ;]
(ख) जमानत से संबंधित इस संहिता के उपबंधों के अधीन रहते हुए विचारण के दौरान और समाप्त होने तक अभियुक्त को अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित करेगा ;
(ग) मामले का अभिलेख तथा दस्तावेजें और वस्तुएं, यदि कोई हों, जिन्हें साक्ष्य में पेश किया जाना है, उस न्यायालय को भेजेगा ;
(घ) मामले के सेशन न्यायालय को सुपुर्द किए जाने की लोक अभियोजक को सूचना देगा ।
210. परिवाद वाले मामले में अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया और उसी अपराध के बारे में पुलिस अन्वेषण-(1) जब पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किसी मामले में (जिसे इसमें इसके पश्चात् परिवाद वाला मामला कहा गया है) मजिस्ट्रेट द्वारा की जाने वाली जांच या विचारण के दौरान उसके समक्ष यह प्रकट किया जाता है कि उस अपराध के बारे में जो उसके द्वारा की जाने वाली जांच या विचारण का विषय है पुलिस द्वारा अन्वेषण हो रहा है, तब मजिस्ट्रेट ऐसी जांच या विचारण की कार्यवाहियों को रोक देगा और अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी से उस मामले की रिपोर्ट मांगेगा ।
(2) यदि अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा धारा 173 के अधीन रिपोर्ट की जाती है और ऐसी रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध किसी अपराध का संज्ञान किया जाता है जो परिवाद वाले मामले में अभियुक्त है तो, मजिस्ट्रेट परिवाद वाले मामले की और पुलिस रिपोर्ट से पैदा होने वाले मामले की जांच या विचारण साथ-साथ ऐसे करेगा मानो दोनों मामले पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित किए गए हैं ।
(3) यदि पुलिस रिपोर्ट परिवाद वाले मामले में किसी अभियुक्त से संबंधित नहीं है या यदि मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट पर किसी अपराध का संज्ञान नहीं करता है तो वह उस जांच या विचारण में जो उसके द्वारा रोक ली गई थी, इस संहिता के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करेगा ।
अध्याय 17
आरोप
क-आरोपों का प्ररूप
211. आरोप की अंतर्वस्तु-(1) इस संहिता के अधीन प्रत्येक आरोप में उस अपराध का कथन होगा जिसका अभियुक्त पर आरोप है ।
(2) यदि उस अपराध का सृजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई विनिर्दिष्ट नाम दिया गया है तो आरोप में उसी नाम से उस अपराध का वर्णन किया जाएगा ।
(3) यदि उस अपराध का सृजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई विनिर्दिष्ट नाम नहीं दिया गया हो तो अपराध की इतनी परिभाषा देनी होगी जितनी से अभियुक्त को उस बात की सूचना हो जाए जिसका उस पर आरोप है ।
(4) वह विधि और विधि की वह धारा, जिसके विरुद्ध अपराध किया जाना कथित है, आरोप में उल्लिखित होगी ।
(5) यह तथ्य कि आरोप लगा दिया गया है इस कथन के समतुल्य है कि विधि द्वारा अपेक्षित प्रत्येक शर्त जिससे आरोपित अपराध बनता है उस विशिष्ट मामले में पूरी हो गई है ।
(6) आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा ।
(7) यदि अभियुक्त किसी अपराध के लिए पहले दोषसिद्ध किए जाने पर किसी पश्चात्वर्ती अपराध के लिए ऐसी पूर्व दोषसिद्धि के कारण वर्धित दंड का या भिन्न प्रकार के दंड का भागी है और यह आशयित है कि ऐसी पूर्व दोषसिद्धि उस दंड को प्रभावित करने के प्रयोजन के लिए साबित की जाए जिसे न्यायालय पश्चात्वर्ती अपराध के लिए देना ठीक समझे तो पूर्व दोषसिद्धि का तथ्य, तारीख और स्थान आरोप में कथित होंगे ; और यदि ऐसा कथन रह गया है तो न्यायालय दंडादेश देने के पूर्व किसी समय भी उसे जोड़ सकेगा ।
दृष्टांत
(क) क पर ख की हत्या का आरोप है । यह बात इस कथन के समतुल्य है कि क का कार्य भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 299 और 300 में दी गई हत्या की परिभाषा के अंदर आता है और वह उसी संहिता के साधारण अपवादों में से किसी के अंदर नहीं आता और वह धारा 300 के पांच अपवादों में से किसी के अंदर भी नहीं आता, या यदि वह अपवाद 1 के अंदर आता है तो उस अपवाद के तीन परंतुकों में से कोई न कोई परंतुक उसे लागू होता है ।
(ख) क पर असन के उपकरण द्वारा ख को स्वेच्छया घोर उपहति कारित करने के लिए भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 326 के अधीन आरोप है । यह इस कथन के समतुल्य है कि उस मामले के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 335 द्वारा उपबंध नहीं किया गया है और साधारण अपवाद उसको लागू नहीं होते हैं ।
(ग) क पर हत्या, छल, चोरी, उद्दापन, जारकर्म या आपराधिक अभित्रास या मिथ्या संपत्ति चिह्न को उपयोग में लाने का अभियोग है । आरोप में उन अपराधों की भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) में दी गई परिभाषाओं के निर्देश के बिना यह कथन हो सकता है कि क ने हत्या या छल या चोरी या उद्दापन या जारकर्म या आपराधिक अभित्रास किया है या यह कि उसने मिथ्या संपत्ति चिह्न का उपयोग किया है ; किंतु प्रत्येक दशा में वे धाराएं, जिनके अधीन अपराध दंडनीय है, आरोप में निर्दिष्ट करनी पड़ेंगी ।
(घ) क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 184 के अधीन यह आरोप है कि उसने लोक सेवक के विधिपूर्ण प्राधिकार द्वारा विक्रय के लिए प्रस्थापित संपत्ति के विक्रय में साशय बाधा डाली है । आरोप उन शब्दों में ही होना चाहिए ।
212. समय, स्थान और व्यक्ति के बारे में विशिष्टियां-(1) अभिकथित अपराध के समय और स्थान के बारे में और जिस व्यक्ति के (यदि कोई हो) विरुद्ध अथवा जिस वस्तु के (यदि कोई हो) विषय में वह अपराध किया गया उस व्यक्ति या वस्तु के बारे में ऐसी विशिष्टियां, जैसी अभियुक्त को उस बात की, जिसका उस पर आरोप है, सूचना देने के लिए उचित रूप से पर्याप्त हैं, आरोप में अंतर्विष्ट होंगी ।
(2) जब अभियुक्त पर आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से धन या अन्य जंगम संपत्ति के दुर्विनियोग का आरोप है तब इतना ही पर्याप्त होगा कि विशिष्ट मदों का जिनके विषय में अपराध किया जाना अभिकथित है, या अपराध करने की ठीक-ठीक तारीखों का विनिर्देश किए बिना, यथास्थिति, उस सकल राशि का विनिर्देश या उस जंगम संपत्ति का वर्णन कर दिया जाता है जिसके विषय में अपराध किया जाना अभिकथित है, और उन तारीखों का, जिनके बीच में अपराध का किया जाना अभिकथित है, विनिर्देश कर दिया जाता है और ऐसे विरचित आरोप धारा 219 के अर्थ में एक ही अपराध का आरोप समझा जाएगा :
परंतु ऐसी तारीखों में से पहली और अंतिम के बीच का समय एक वर्ष से अधिक का न होगा ।
213. कब अपराध किए जाने की रीति कथित की जानी चाहिए-जब मामला इस प्रकार का है कि धारा 211 और 212 में वर्णित विशिष्टियां अभियुक्त को उस बात की, जिसका उस पर आरोप है, पर्याप्त सूचना नहीं देती तब उस रीति की, जिसमें अभिकथित अपराध किया गया, ऐसी विशिष्टियां भी, जैसी उस प्रयोजन के लिए पर्याप्त हैं, आरोप में अंतर्विष्ट होंगी ।
दृष्टांत
(क) क पर वस्तु-विशेष की विशेष समय और स्थान में चोरी करने का अभियोग है । यह आवश्यक नहीं है कि आरोप में वह रीति उपवर्णित हो जिससे चोरी की गई ।
(ख) क पर ख के साथ कथित समय पर और कथित स्थान में छल करने का अभियोग है । आरोप में वह रीति, जिससे क ने ख के साथ छल किया, उपवर्णित करनी होगी ।
(ग) क पर कथित समय पर और कथित स्थान में मिथ्या साक्ष्य देने का अभियोग है । आरोप में क द्वारा दिए गए साक्ष्य का वह भाग उपवर्णित करना होगा जिसका मिथ्या होना अभिकथित है ।
(घ) क पर लोक सेवक ख को उसके लोक कृत्यों के निर्वहन में कथित समय पर और कथित स्थान में बाधित करने का अभियोग है । आरोप में वह रीति उपवर्णित करनी होगी जिससे क ने ख को उसके कृत्यों के निर्वहन में बाधित किया ।
(ङ) क पर कथित समय पर और कथित स्थान में ख की हत्या करने का अभियोग है । यह आवश्यक नहीं है कि आरोप में वह रीति कथित हो जिससे क ने ख की हत्या की ।
(च) क पर ख को दंड से बचाने के आशय से विधि के निदेश की अवज्ञा करने का अभियोग है । आरोपित अवज्ञा और अतिलंघित विधि का उपवर्णन आरोप में करना होगा ।
214. आरोप के शब्दों का वह अर्थ लिया जाएगा जो उनका उस विधि में है जिसके अधीन वह अपराध दंडनीय है-प्रत्येक आरोप में अपराध का वर्णन करने में उपयोग में लाए गए शब्दों को उस अर्थ में उपयोग में लाया गया समझा जाएगा जो अर्थ उन्हें उस विधि द्वारा दिया गया है जिसके अधीन ऐसा अपराध दंडनीय है ।
215. गलतियों का प्रभाव-अपराध के या उन विशिष्टियों के, जिनका आरोप में कथन होना अपेक्षित है, कथन करने में किसी गलती को और उस अपराध या उन विशिष्टियों के कथन करने में किसी लोप को मामले के किसी प्रक्रम में तब ही तात्त्विक माना जाएगा जब ऐसी गलती या लोप से अभियुक्त वास्तव में भुलावे में पड़ गया है और उसके कारण न्याय नहीं हो पाया है अन्यथा नहीं ।
दृष्टान्त
(क) क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 242 के अधीन यह आरोप है कि उसने कब्जे में ऐसा कूटकृत सिक्का रखा है जिसे वह उस समय, जब वह सिक्का उसके कब्जे में आया था, जानता था कि वह कूटकृत है" और आरोप में कपटपूर्वक" शब्द छूट गया है । जब तक यह प्रतीत नहीं होता है कि क वास्तव में इस लोप से भुलावे में पड़ गया, इस गलती को तात्त्विक नहीं समझा जाएगा ।
(ख) क पर ख से छल करने का आरोप है और जिस रीति से उसने ख के साथ छल किया है वह आरोप में उपवर्णित नहीं है या अशुद्ध रूप में उपवर्णित है । क अपनी प्रतिरक्षा करता है, साक्षियों को पेश करता है और संव्यवहार का स्वयं अपना विवरण देता है । न्यायालय इससे अनुमान कर सकता है कि छल करने की रीति के उपवर्णन का लोप तात्त्विक नहीं है ।
(ग) क पर ख से छल करने का आरोप है और जिस रीति से उसने ख से छल किया है वह आरोप में उपवर्णित नहीं है । क और ख के बीच अनेक संव्यवहार हुए हैं और क के पास यह जानने का कि आरोप का निर्देश उनमें से किसके प्रति है कोई साधन नहीं था और उसने अपनी कोई प्रतिरक्षा नहीं की । न्यायालय ऐसे तथ्यों से यह अनुमान कर सकता है कि छल करने की रीति के उपवर्णन का लोप उस मामले में तात्त्विक गलती थी ।
(घ) क पर 21 जनवरी, 1882 को खुदाबख्श की हत्या करने का आरोप है । वास्तव में हत व्यक्ति का नाम हैदरबख्श था और हत्या की तारीख 20 जनवरी, 1882 थी । क पर कभी भी एक हत्या के अतिरिक्त दूसरी किसी हत्या का आरोप नहीं लगाया गया और उसने मजिस्ट्रेट के समक्ष हुई जांच को सुना था जिसमें हैदरबख्श के मामले का ही अनन्य रूप से निर्देश किया गया था । न्यायालय इन तथ्यों से यह अनुमान कर सकता है कि क उससे भुलावे में नहीं पड़ा था और आरोप में यह गलती तात्त्विक नहीं थी ।
(ङ) क पर 20 जनवरी, 1882 को हैदरबख्श की हत्या और 21 जनवरी, 1882 को खुदाबख्श की (जिसने उसे उस हत्या के लिए गिरफ्तार करने का प्रयास किया था) हत्या करने का आरोप है । जब वह हैदरबख्श की हत्या के लिए आरोपित हुआ, तब उसका विचारण खुदाबख्श की हत्या के लिए हुआ । उसकी प्रतिरक्षा में उपस्थित साक्षी हैदरबख्श वाले मामले में साक्षी थे । न्यायालय इससे अनुमान कर सकता है कि क भुलावे में पड़ गया था और यह गलती तात्त्विक थी ।
216. न्यायालय आरोप परिवर्तित कर सकता है-(1) कोई भी न्यायालय निर्णय सुनाए जाने के पूर्व किसी समय किसी भी आरोप में परिवर्तन या परिवर्धन कर सकता है ।
(2) ऐसा प्रत्येक परिवर्तन या परिवर्धन अभियुक्त को पढ़कर सुनाया और समझाया जाएगा ।
(3) यदि आरोप में किया गया परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि न्यायालय की राय में विचारण को तुरंत आगे चलाने से अभियुक्त पर अपनी प्रतिरक्षा करने में या अभियोजक पर मामले के संचालन में कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है, तो न्यायालय ऐसे परिवर्तन या परिवर्धन के पश्चात् स्वविवेकानुसार विचारण को ऐसे आगे चला सकता है मानो परिवर्तित या परिवर्धित आरोप ही मूल आरोप है ।
(4) यदि परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि न्यायालय की राय में विचारण को तुरंत आगे चलाने से इस बात की संभावना है कि अभियुक्त या अभियोजक पर पूर्वोक्त रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो न्यायालय या तो नए विचारण का निदेश दे सकता है या विचारण को इतनी अवधि के लिए, जितनी आवश्यक हो, स्थगित कर सकता है ।
(5) यदि परिवर्तित या परिवर्धित आरोप में कथित अपराध ऐसा है, जिसके अभियोजन के लिए पूर्व मंजूरी की आवश्यकता है, तो उस मामले में ऐसी मंजूरी अभिप्राप्त किए बिना कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी जब तक कि उन्हीं तथ्यों के आधार पर, जिन पर परिवर्तित या परिवर्धित आरोप आधारित हैं, अभियोजन के लिए मंजूरी पहले ही अभिप्राप्त नहीं कर ली गई है ।
217. जब आरोप परिवर्तित किया जाता है तब साक्षियों का पुनः बुलाया जाना-जब कभी विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् न्यायालय द्वारा आरोप परिवर्तित या परिवर्धित किया जाता है तब अभियोजक और अभियुक्त को-
(क) किसी ऐसे साक्षी को, जिसकी परीक्षा की जा चुकी है, पुनः बुलाने की या पुनः समन करने की और उसकी ऐसे परिवर्तन या परिवर्धन के बारे में परीक्षा करने की अनुज्ञा दी जाएगी जब तक न्यायालय का ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, यह विचार नहीं है कि, यथास्थिति, अभियोजक या अभियुक्त तंग करने के या विलंब करने के या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से ऐसे साक्षी को पुनः बुलाना या उसकी पुनः परीक्षा करना चाहता है ;
(ख) किसी अन्य ऐसे साक्षी को भी, जिसे न्यायालय आवश्यक समझे, बुलाने की अनुज्ञा दी जाएगी ।
ख-आरोपों का संयोजन
218. सुभिन्न अपराधों के लिए पृथक् आरोप-(1) प्रत्येक सुभिन्न अपराध के लिए, जिसका किसी व्यक्ति पर अभियोग है, पृथक् आरोप होगा और ऐसे प्रत्येक आरोप का विचारण पृथक्तः किया जाएगा :
परंतु जहां अभियुक्त व्यक्ति, लिखित आवेदन द्वारा, ऐसा चाहता है और मजिस्ट्रेट की राय है कि उससे ऐसे व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा वहां मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के विरुद्ध विरचित सभी या किन्हीं आरोपों का विचारण एक साथ कर सकता है ।
(2) उपधारा (1) की कोई बात धारा 219, 220, 221 और 223 के उपबंधों के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी ।
दृष्टांत
क पर एक अवसर पर चोरी करने और दूसरे किसी अवसर पर घोर उपहति कारित करने का अभियोग है । चोरी के लिए और घोर उपहति कारित करने के लिए क पर पृथक्-पृथक् आरोप लगाने होंगे और उनका विचारण पृथक्तः करना होगा ।
219. एक ही वर्ष में किए गए एक ही किस्म के तीन अपराधों का आरोप एक साथ लगाया जा सकेगा-(1) जब किसी व्यक्ति पर एक ही किस्म के ऐसे एक से अधिक अपराधों का अभियोग है जो उन अपराधों में से पहले अपराध से लेकर अंतिम अपराध तक बारह मास के अंदर ही किए गए हैं, चाहे वे एक ही व्यक्ति के बारे में किए गए हों या नहीं, तब उस पर उनमें से तीन से अनधिक कितने ही अपराधों के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया और विचारण किया जा सकता है ।
(2) अपराध एक ही किस्म के तब होते हैं जब वे भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) या किसी विशेष या स्थानीय विधि की एक ही धारा के अधीन दंड की समान मात्रा से दंडनीय होते हैं :
परंतु इस धारा के प्रयोजनों के लिए यह समझा जाएगा कि भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 379 के अधीन दंडनीय अपराध उसी किस्म का अपराध है जिस किस्म का उक्त संहिता की धारा 380 के अधीन दंडनीय अपराध है, और भारतीय दंड संहिता या किसी विशेष या स्थानीय विधि की किसी धारा के अधीन दंडनीय अपराध उसी किस्म का अपराध है जिस किस्म का ऐसे अपराध करने का प्रयत्न है, जब ऐसा प्रयत्न अपराध हो ।
220. एक से अधिक अपराधों के लिए विचारण-(1) यदि परस्पर संबद्ध ऐसे कार्यों के, जिनसे एक ही संव्यवहार बनता है, एक क्रम में एक से अधिक अपराध एक ही व्यक्ति द्वारा किए गए हैं तो ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में उस पर आरोप लगाया जा सकता है और उसका विचारण किया जा सकता है ।
(2) जब धारा 212 की उपधारा (2) में या धारा 219 की उपधारा (1) में उपबंधित रूप में, आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से सम्पत्ति के दुर्विनियोग के एक या अधिक अपराधों से आरोपित किसी व्यक्ति पर उस अपराध या उन अपराधों के किए जाने को सुकर बनाने या छिपाने के प्रयोजन से लेखाओं के मिथ्याकरण के एक या अधिक अपराधों का अभियोग है, तब उस पर ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण किया जा सकता है ।
(3) यदि अभिकथित कार्यों से तत्समय प्रवृत्त किसी विधि की, जिससे अपराध परिभाषित या दंडनीय हों, दो या अधिक पृथक् परिभाषाओं में आने वाले अपराध बनते हैं तो जिस व्यक्ति पर उन्हें करने का अभियोग है उस पर ऐसे अपराधों में से प्रत्येक के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण किया जा सकता है ।
(4) यदि कई कार्य, जिनमें से एक से या एक से अधिक से स्वयं अपराध बनते हैं, मिलकर भिन्न अपराध बनते हैं तो ऐसे कार्यों से मिलकर बने अपराध के लिए और ऐसे कार्यों में से किसी एक या अधिक द्वारा बने किसी अपराध के लिए अभियुक्त व्यक्ति पर एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण किया जा सकता है ।
(5) इस धारा की कोई बात भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 71 पर प्रभाव न डालेगी ।
उपधारा (1) के दृष्टांत
(क) क एक व्यक्ति ख को, जो विधिपूर्ण अभिरक्षा में है, छुड़ाता है और ऐसा करने में कांस्टेबल ग को, जिसकी अभिरक्षा में ख है, घोर उपहति कारित करता है । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 225 और 333 के अधीन अपराधों के लिए आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(ख) क दिन में गृहभेदन इस आशय से करता है कि जारकर्म करे और ऐसे प्रवेश किए गए गृह में ख की पत्नी से जारकर्म करता है । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 454 और 497 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(ग) क इस आशय से ख को, जो ग की पत्नी है, फुसलाकर ग से अलग ले जाता है कि ख से जारकर्म करे और फिर वह उससे जारकर्म करता है । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 498 और 497 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(घ) क के कब्जे में कई मुद्राएं हैं जिन्हें वह जानता है कि वे कूटकृत हैं और जिनके संबंध में वह यह आशय रखता है कि भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 466 के अधीन दंडनीय कई कूट रचनाएं करने के प्रयोजन से उन्हें उपयोग में लाए । क पर प्रत्येक मुद्रा पर कब्जे के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 473 के अधीन पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(ङ) ख को क्षति कारित करने के आशय से क उसके विरुद्ध दांडिक कार्यवाही यह जानते हुए संस्थित करता है कि ऐसी कार्यवाही के लिए कोई न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार नहीं है और ख पर अपराध करने का मिथ्या अभियोग, यह जानते हुए लगाता है कि ऐसे आरोप के लिए कोई न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार नहीं है । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 211 के अधीन दंडनीय दो अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(च) ख को क्षति कारित करने के आशय से क उस पर एक अपराध करने का अभियोग यह जानते हुए लगाता है कि ऐसे आरोप के लिए कोई न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार नहीं है । विचारण में ख के विरुद्ध क इस आशय से मिथ्या साक्ष्य देता है कि उसके द्वारा ख को मृत्यु से दंडनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध करवाए । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 211 और 194 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(छ) क छह अन्य व्यक्तियों के सहित बल्वा करने, घोर उपहति करने और ऐसे लोक सेवक पर, जो ऐसे बल्वे को दबाने का प्रयास ऐसे लोक सेवक के नाते अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में कर रहा है, हमला करने के अपराध करता है । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 147, 325 और 152 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(ज) ख, ग और घ के शरीर को क्षति की धमकी क इस आशय से एक ही समय देता है कि उन्हें संत्रास कारित किया जाए । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 506 के अधीन तीनों अपराधों में से प्रत्येक के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
दृष्टांत (क) से लेकर (ज) तक में क्रमशः निर्दिष्ट पृथक् आरोपों का विचारण एक ही समय किया जा सकेगा ।
उपधारा (3) के दृष्टांत
(झ) क बेंत से ख पर सदोष आघात करता है । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 352 और 323 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(ञ) चुराए हुए धान्य के कई बोरे क और ख को, जो यह जानते हैं कि वे चुराई हुई संपत्ति हैं, इस प्रयोजन से दे दिए जाते हैं कि वे उन्हें छिपा दें । तब क और ख उन बोरों को अनाज की खेती के तले में छिपाने में स्वेच्छया एक दूसरे की मदद करते हैं । क और ख पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 411 और 414 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वे दोषसिद्ध किए जा सकेंगे ।
(ट) क अपने बालक को यह जानते हुए आरक्षित डाल देती है कि यह संभाव्य है कि उससे वह उसकी मृत्यु कारित कर दे । बालक ऐसे अरक्षित डाले जाने के परिणामस्वरूप मर जाता है । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 317 और 304 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध की जा सकेगी ।
(ठ) क कूटरचित दस्तावेज को बेईमानी से असली साक्ष्य के रूप में इसलिए उपयोग में लाता है कि एक लोक सेवक ख को भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 167 के अधीन अपराध के लिए दोषसिद्ध करे । क पर भारतीय दंड संहिता की (धारा 466 के साथ पठित) धारा 471 के और धारा 196 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
उपधारा (4) का दृष्टांत
(ड) ख को क लूटता है और ऐसा करने में उसे स्वेच्छया उपहति कारित करता है । क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 323, 392, और 394 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
221. जहां इस बारे में संदेह है कि कौन-सा अपराध किया गया है-(1) यदि कोई एक कार्य या कार्यों का क्रम इस प्रकार का है कि यह संदेह है कि उन तथ्यों से, जो सिद्ध किए जा सकते हैं, कई अपराधों में से कौन सा अपराध बनेगा तो अभियुक्त पर ऐसे सब अपराध या उनमें से कोई करने का आरोप लगाया जा सकेगा और ऐसे आरोपों में से कितनों ही का एक साथ विचारण किया जा सकेगा ; या उस पर उक्त अपराधों में से किसी एक को करने का अनुकल्पतः आरोप लगाया जा सकेगा ।
(2) यदि ऐसे मामले में अभियुक्त पर एक अपराध का आरोप लगाया गया है और साक्ष्य से यह प्रतीत होता है कि उसने भिन्न अपराध किया है, जिसके लिए उस पर उपधारा (1) के उपबंधों के अधीन आरोप लगाया जा सकता था, तो वह उस अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जा सकेगा जिसका उसके द्वारा किया जाना दर्शित है, यद्यपि उसके लिए उस पर आरोप नहीं लगाया गया था ।
दृष्टांत
(क) क पर ऐसे कार्य का अभियोग है जो चोरी की, या चुराई गई संपत्ति प्राप्त करने की, या आपराधिक न्यासभंग की, या छल की कोटि में आ सकता है । उस पर चोरी करने, चुराई हुई संपत्ति प्राप्त करने, आपराधिक न्यासभंग करने और छल करने का आरोप लगाया जा सकेगा अथवा उस पर चोरी करने का या चोरी की संपत्ति प्राप्त करने का या आपराधिक न्यासभंग करने का या छल करने का आरोप लगाया जा सकेगा ।
(ख) ऊपर वर्णित मामले में क पर केवल चोरी का आरोप है । यह प्रतीत होता है कि उसने आपराधिक न्यासभंग का या चुराई हुई संपत्ति प्राप्त करने का अपराध किया है । वह (यथास्थिति) आपराधिक न्यासभंग या चुराई हुई संपत्ति प्राप्त करने के लिए दोषसिद्ध किया जा सकेगा, यद्यपि उस पर उस अपराध का आरोप नहीं लगाया गया था ।
(ग) क मजिस्ट्रेट के समक्ष शपथ पर कहता है कि उसने देखा कि ख ने ग को लाठी मारी । सेशन न्यायालय के समक्ष क शपथ पर कहता है कि ख ने ग को कभी नहीं मारा । यद्यपि यह साबित नहीं किया जा सकता कि इन दो परस्पर विरुद्ध कथनों में से कौन सा मिथ्या है तथापि क पर साशय मिथ्या साक्ष्य देने के लिए अनुकल्पतः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
222. जब वह अपराध, जो साबित हुआ है, आरोपित अपराध के अंतर्गत है-(1) जब किसी व्यक्ति पर ऐसे अपराध का आरोप है जिसमें कई विशिष्टियां हैं, जिनमें से केवल कुछ के संयोग से एक पूरा छोटा अपराध बनता है और ऐसा संयोग साबित हो जाता है किन्तु शेष विशिष्टियां साबित नहीं होती हैं तब वह उस छोटे अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जा सकता है यद्यपि उस पर उसका आरोप नहीं था ।
(2) जब किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप लगाया गया है और ऐसे तथ्य साबित कर दिए जाते हैं जो उसे घटाकर छोटा अपराध कर देते हैं तब वह छोटे अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जा सकता है यद्यपि उस पर उसका आरोप नहीं था ।
(3) जब किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप है तब वह उस अपराध को करने के प्रयत्न के लिए दोषसिद्ध किया जा सकता है यद्यपि प्रयत्न के लिए पृथक् आरोप न लगाया गया हो ।
(4) इस धारा की कोई बात किसी छोटे अपराध के लिए उस दशा में दोषसिद्धि प्राधिकृत करने वाली न समझी जाएगी जिसमें ऐसे छोटे अपराध के बारे में कार्यवाही शुरू करने के लिए अपेक्षित शर्तें पूरी नहीं हुई हैं ।
दृष्टांत
(क) क पर उस संपत्ति के बारे में, जो वाहक के नाते उसके पास न्यस्त है, आपराधिक न्यासभंग के लिए भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 407 के अधीन आरोप लगाया गया है । यह प्रतीत होता है कि उस संपत्ति के बारे में धारा 406 के अधीन उसने आपराधिक न्यासभंग तो किया है किन्तु वह उसे वाहक के रूप में न्यस्त नहीं की गई थी । वह धारा 406 के अधीन आपराधिक न्यासभंग के लिए दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
(ख) क पर घोर उपहति कारित करने के लिए भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 325 के अधीन आरोप है । वह साबित कर देता है कि उसने घोर और आकस्मिक प्रकोपन पर कार्य किया था । वह उस संहिता की धारा 335 के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकेगा ।
223. किन व्यक्तियों पर संयुक्त रूप से आरोप लगाया जा सकेगा-निम्नलिखित व्यक्तियों पर एक साथ आरोप लगाया जा सकेगा और उनका एक साथ विचारण किया जा सकेगा, अर्थात् :-
(क) वे व्यक्ति जिन पर एक ही संव्यवहार के अनुक्रम में किए गए एक ही अपराध का अभियोग है ;
(ख) वे व्यक्ति जिन पर किसी अपराध का अभियोग है और वे व्यक्ति जिन पर ऐसे अपराध का दुष्प्रेरण या प्रयत्न करने का अभियोग है ;
(ग) वे व्यक्ति जिन पर बारह मास की अवधि के अन्दर संयुक्त रूप में उनके द्वारा किए गए धारा 219 के अर्थ में एक ही किस्म के एक से अधिक अपराधों का अभियोग है ;
(घ) वे व्यक्ति जिन पर एक ही संव्यवहार के अनुक्रम में दिए गए भिन्न अपराधों का अभियोग है ;
(ङ) वे व्यक्ति जिन पर ऐसे अपराध का, जिसके अन्तर्गत चोरी, उद्दीपन, छल या आपराधिक दुर्विनियोग भी है, अभियोग है और वे व्यक्ति, जिन पर ऐसी संपत्ति को, जिसका कब्जा प्रथम नामित व्यक्तियों द्वारा किए गए किसी ऐसे अपराध द्वारा अन्तरित किया जाना अभिकथित है, प्राप्त करने या रखे रखने या उसके व्ययन या छिपाने में सहायता करने का या किसी ऐसे अंतिम नामित अपराध का दुष्प्रेरण या प्रयत्न करने का अभियोग है ;
(च) वे व्यक्ति जिन पर ऐसी चुराई हुई संपत्ति के बारे में, जिसका कब्जा एक ही अपराध द्वारा अंतरित किया गया है, भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 411 और धारा 414 के, या उन धाराओं में से किसी के अधीन अपराधों का अभियोग है ;
(छ) वे व्यक्ति जिन पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 12 के अधीन कूटकृत सिक्के के संबंध में किसी अपराध का अभियोग है और वे व्यक्ति जिन पर उसी सिक्के के संबंध में उक्त अध्याय के अधीन किसी भी अन्य अपराध का या किसी ऐसे अपराध का दुष्प्रेरण या प्रयत्न करने का अभियोग है ; और इस अध्याय के पूर्ववर्ती भाग के उपबंध सब ऐसे आरोपों को यथाशक्य लागू होंगे :
परन्तु जहां अनेक व्यक्तियों पर पृथक् अपराधों का आरोप लगाया जाता है और वे व्यक्ति इस धारा में विनिर्दिष्ट कोटियों में से किसी में नहीं आते हैं वहां [मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय] ऐसे सब व्यक्तियों का विचारण एक साथ कर सकता है यदि ऐसे व्यक्ति लिखित आवेदन द्वारा ऐसा चाहते हैं [और मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय] का समाधान हो जाता है कि उससे ऐसे व्यक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा और ऐसा करना समीचीन है ।
224. कई आरोपों में से एक के लिए दोषसिद्धि पर शेष आरोपों को वापस लेना-जब एक ही व्यक्ति के विरुद्ध ऐसा आरोप विरचित किया जाता है जिसमें एक से अधिक शीर्ष हैं और, जब उनमें से एक या अधिक के लिए, दोषसिद्धि कर दी जाती है तब परिवादी या अभियोजन का संचालन करने वाला अधिकारी न्यायालय की सम्मति से शेष आरोप या आरोपों को वापस ले सकता है अथवा न्यायालय ऐसे आरोप या आरोपों की जांच या विचारण स्वप्रेरणा से रोक सकता है और ऐसे वापस लेने का प्रभाव ऐसे आरोप या आरोपों से दोषमुक्ति होगा ; किन्तु यदि दोषसिद्धि अपास्त कर दी जाती है तो उक्त न्यायालय (दोषसिद्धि अपास्त करने वाले न्यायालय के आदेश के अधीन रहते हुए) ऐसे वापस लिए गए आरोप या आरोपों की जांच या विचारण में आगे कार्यवाही कर सकता है ।
अध्याय 18
सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण
225. विचारण का संचालन लोक अभियोजक द्वारा किया जाना-सेशन न्यायालय के समक्ष प्रत्येक विचारण में अभियोजन का संचालन लोक अभियोजक द्वारा किया जाएगा ।
226. अभियोजन के मामले के कथन का आरंभ-जब अभियुक्त धारा 209 के अधीन मामले की सुपुर्दगी के अनुसरण में न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है तब अभियोजक अपने मामले का कथन, अभियुक्त के विरुद्ध लगाए गए आरोप का वर्णन करते हुए और यह बताते हुए आरंभ करेगा कि वह अभियुक्त के दोष को किस साक्ष्य से साबित करने की प्रस्थापना करता है ।
227. उन्मोचन-यदि मामले के अभिलेख और उसके साथ दी गई दस्तावेजों पर विचार कर लेने पर, और इस निमित्त अभियुक्त और अभियोजन के निवेदन की सुनवाई कर लेने के पश्चात् न्यायाधीश यह समझता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो वह अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा और ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा ।
228. आरोप विरचित करना-(1) यदि पूर्वोक्त रूप से विचार और सुनवाई के पश्चात्, न्यायाधीश की यह राय है कि ऐसी उपधारणा करने का आधार है कि अभियुक्त ने ऐसा अपराध किया है जो,-
(क) अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है तो वह, अभियुक्त के विरुद्ध आरोप विरचित कर सकता है और आदेश द्वारा, मामले को विचारण के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अन्तरित कर सकता है [या कोई अन्य प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, ऐसी तारीख को जो वह ठीक समझे, अभियुक्त को, यथास्थिति, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होने का निदेश दे सकेगा, और तब ऐसा मजिस्ट्रेटट उस मामले का विचारण पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारंट मामलों के विचारण के लिए प्रक्रिया के अनुसार करेगा ;
(ख) अनन्यतः उस न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह अभियुक्त के विरुद्ध आरोप लिखित रूप में विरचित करेगा ।
(2) जहां न्यायाधीश उपधारा (1) के खंड (ख) के अधीन कोई आरोप विरचित करता है वहां वह आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाया और समझाया जाएगा और अभियुक्त से यह पूछा जाएगा कि क्या वह उस अपराध का, जिसका आरोप लगाया गया है, दोषी होने का अभिवचन करता है या विचारण किए जाने का दावा करता है ।
229. दोषी होने के अभिवचन-यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है तो न्यायाधीश उस अभिवाक् को लेखबद्ध करेगा और उसके आधार पर उसे, स्वविवेकानुसार, दोषसिद्ध कर सकता है ।
230. अभियोजन साक्ष्य के लिए तारीख-यदि अभियुक्त अभिवचन करने से इंकार करता है या अभिवचन नहीं करता है या विचारण किए जाने का दावा करता है या धारा 229 के अधीन सिद्धदोष नहीं किया जाता है तो न्यायाधीश साक्षियों की परीक्षा करने के लिए तारीख नियत करेगा और अभियोजन के आवेदन पर किसी साक्षी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने को विवश करने के लिए कोई आदेशिका जारी कर सकता है ।
231. अभियोजन के लिए साक्ष्य-(1) ऐसे नियत तारीख पर न्यायाधीश ऐसा सब साक्ष्य लेने के लिए अग्रसर होगा जो अभियोजन के समर्थन में पेश किया जाए ।
(2) न्यायाधीश, स्वविवेकानुसार, किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा तब तक के लिए, जब तक किसी अन्य साक्षी या साक्षियों की परीक्षा न कर ली जाए, आस्थगित करने की अनुज्ञा दे सकता है या किसी साक्षी को अतिरिक्त प्रतिपरीक्षा के लिए पुनः बुला सकता है ।
232. दोषमुक्ति-यदि सम्बद्ध विषय के बारे में अभियोजन का साक्ष्य लेने, अभियुक्त की परीक्षा करने और अभियोजन और प्रतिरक्षा को सुनने के पश्चात् न्यायाधीश का यह विचार है कि इस बात का साक्ष्य नहीं है कि अभियुक्त ने अपराध किया है तो न्यायाधीश दोषमुक्ति का आदेश अभिलिखित करेगा ।
233. प्रतिरक्षा आरंभ करना-(1) जहां अभियुक्त धारा 232 के अधीन दोषमुक्त नहीं किया जाता है वहां उससे अपेक्षा की जाएगी कि अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करे और कोई भी साक्ष्य जो उसके समर्थन में उसके पास हो पेश करे ।
(2) यदि अभियुक्त कोई लिखित कथन देता है तो न्यायाधीश उसे अभिलेख में फाइल करेगा ।
(3) यदि अभियुक्त किसी साक्षी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज या चीज पेश करने को विवश करने के लिए कोई आदेशिका जारी करने के लिए आवेदन करता है तो न्यायाधीश ऐसी आदेशिका जारी करेगा जब तक उसका ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, यह विचार न हो कि आवेदन इस आधार पर नामंजूर कर दिया जाना चाहिए कि वह तंग करने या विलंब करने या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से किया गया है ।
234. बहस-जब प्रतिरक्षा के साक्षियों की (यदि कोई हों) परीक्षा समाप्त हो जाती है तो अभियोजक अपने मामले का उपसंहार करेगा और अभियुक्त या उसका प्लीडर उत्तर देने का हकदार होगा :
परन्तु जहां अभियुक्त या उसका प्लीडर कोई विधि-प्रश्न उठाता है वहां अभियोजन न्यायाधीश की अनुज्ञा से, ऐसे विधि-प्रश्नों पर अपना निवेदन कर सकता है ।
235. दोषमुक्ति या दोषसिद्धि का निर्णय-(1) बहस और विधि-प्रश्न (यदि कोई हों) सुनने के पश्चात् न्यायाधीश मामले में निर्णय देगा ।
(2) यदि अभियुक्त दोषसिद्ध किया जाता है तो न्यायाधीश, उस दशा के सिवाय जिसमें वह धारा 360 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करता है दंड के प्रश्न पर अभियुक्त को सुनेगा और तब विधि के अनुसार उसके बारे में दंडादेश देगा ।
236. पूर्व दोषसिद्धि-ऐसे मामले में, जिसमें धारा 211 की उपधारा (7) के उपबंधों के अधीन पूर्व दोषसिद्धि का आरोप लगाया गया है और अभियुक्त यह स्वीकार नहीं करता है कि आरोप में किए गए अभिकथन के अनुसार उसे पहले दोषसिद्ध किया गया था, न्यायाधीश उक्त अभियुक्त को धारा 229 या धारा 235 के अधीन दोषसिद्ध करने के पश्चात् अभिकथित पूर्व दोषसिद्धि के बारे में साक्ष्य ले सकेगा और उस पर निष्कर्ष अभिलिखित करेगा :
परन्तु जब तक अभियुक्त धारा 229 या धारा 235 के अधीन दोषसिद्ध नहीं कर दिया जाता है तब तक न तो ऐसा आरोप न्यायाधीश द्वारा पढ़कर सुनाया जाएगा, न अभियुक्त से उस पर अभिवचन करने को कहा जाएगा और न पूर्व दोषसिद्धि का निर्देश अभियोजन द्वारा, या उसके द्वारा दिए गए किसी साक्ष्य में, किया जाएगा ।
237. धारा 199(2) के अधीन संस्थित मामलों में प्रक्रिया-(1) धारा 199 की उपधारा (2) के अधीन अपराध का संज्ञान करने वाला सेशन न्यायालय मामले का विचारण, मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समक्ष पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किए गए वारंट मामलों के विचारण की प्रक्रिया के अनुसार, करेगा :
परन्तु जब तक सेशन न्यायालय उन कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, अन्यथा निदेश नहीं देता है उस व्यक्ति की, जिसके विरुद्ध अपराध का किया जाना अभिकथित है अभियोजन के साक्षी के रूप में परीक्षा की जाएगी ।
(2) यदि विचारण के दोनों पक्षकारों में से कोई ऐसी वांछा करता है या यदि न्यायालय ऐसा करना ठीक समझता है तो इस धारा के अधीन प्रत्येक विचारण बंद कमरे में किया जाएगा ।
(3) यदि ऐसे किसी मामले में न्यायालय सब अभियुक्तों को या उनमें से किसी को उन्मोचित या दोषमुक्त करता है और उसकी यह राय है कि उनके या उनमें से किसी के विरुद्ध अभियोग लगाने का उचित कारण नहीं था तो वह उन्मोचन या दोषमुक्ति के अपने आदेश द्वारा (राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल या किसी संघ राज्यक्षेत्र के प्रशासक से भिन्न) उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध अपराध का किया जाना अभिकथित किया गया था यह निदेश दे सकेगा कि वह कारण दर्शित करे कि वह उस अभियुक्त को या जब ऐसे अभियुक्त एक से अधिक हैं तब उनमें से प्रत्येक को या किसी को प्रतिकर क्यों न दे ।
(4) न्यायालय इस प्रकार निदिष्ट व्यक्ति द्वारा दर्शित किसी कारण को लेखबद्ध करेगा और उस पर विचार करेगा और यदि उसका समाधान हो जाता है कि अभियोग लगाने का कोई उचित कारण नहीं था, तो वह एक हजार रुपए से अनधिक इतनी रकम का, जितनी वह अवधारित करे, प्रतिकर उस व्यक्ति द्वारा अभियुक्त को या, उनमें से प्रत्येक को या किसी को, दिए जाने का आदेश, उन कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे, दे सकेगा ।
(5) उपधारा (4) के अधीन अधिनिर्णीत प्रतिकर ऐसे वसूल किया जाएगा मानो वह मजिस्ट्रेट द्वारा अधिरोपित किया गया जुर्माना हो ।
(6) उपधारा (4) के अधीन प्रतिकर देने के लिए जिस व्यक्ति को आदेश दिया जाता है उसे ऐसे आदेश के कारण इस धारा के अधीन किए गए परिवाद के बारे में किसी सिविल या दांडिक दायित्व से छूट नहीं दी जाएगी :
परन्तु अभियुक्त व्यक्ति को इस धारा के अधीन दी गई कोई रकम, उसी मामले से संबंधित किसी पश्चात्वर्ती सिविल वाद में उस व्यक्ति के लिए प्रतिकर अधिनिर्णीत करते समय हिसाब में ली जाएगी ।
(7) उपधारा (4) के अधीन प्रतिकर देने के लिए जिस व्यक्ति को आदेश दिया जाता है वह उस आदेश की अपील, जहां तक वह प्रतिकर के संदाय के संबंध में है, उच्च न्यायालय में कर सकता है ।
(8) जब किसी अभियुक्त व्यक्ति को प्रतिकर दिए जाने का आदेश किया जाता है, तब उसे ऐसा प्रतिकर, अपील पेश करने के लिए अनुज्ञात अवधि के बीत जाने के पूर्व, या यदि अपील पेश कर दी गई है तो अपील के विनिश्चित कर दिए जाने के पूर्व, नहीं दिया जाएगा ।
अध्याय 19
मजिस्ट्रेटों द्वारा वारण्ट-मामलों का विचारण
क-पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित मामले
238. धारा 207 का अनुपालन-जब पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित किसी वारण्ट-मामले में अभियुक्त विचारण के प्रारंभ में मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है तब मजिस्ट्रेट अपना यह समाधान कर लेगा कि उसने धारा 207 के उपबंधों का अनुपालन कर लिया है ।
239. अभियुक्त को कब उन्मोचित किया जाएगा-यदि धारा 173 के अधीन पुलिस रिपोर्ट और उसके साथ भेजी गई दस्तावेजों पर विचार कर लेने पर और अभियुक्त की ऐसी परीक्षा, यदि कोई हो, जैसी मजिस्ट्रेट आवश्यक समझे, कर लेने पर और अभियोजन और अभियुक्त को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात् मजिस्ट्रेट अभियुक्त के विरुद्ध आरोप को निराधार समझता है तो वह उसे उन्मोचित कर देगा और ऐसा करने के अपने कारण लेखबद्ध करेगा ।
240. आरोप विरचित करना-(1) यदि ऐसे विचार, परीक्षा, यदि कोई हो, और सुनवाई कर लेने पर मजिस्ट्रेट की यह राय है कि ऐसी उपधारणा करने का आधार है कि अभियुक्त ने इस अध्याय के अधीन विचारणीय ऐसा अपराध किया है जिसका विचारण करने के लिए, वह मजिस्ट्रेट सक्षम है और जो उसकी राय में उसके द्वारा पर्याप्त रूप से दंडित किया जा सकता है तो वह अभियुक्त के विरुद्ध आरोप लिखित रूप में विरचित करेगा ।
(2) तब वह आरोप अभियुक्त को पढ़ कर सुनाया और समझाया जाएगा और उससे यह पूछा जाएगा कि क्या वह उस अपराध का, जिसका आरोप लगाया गया है दोषी होने का अभिवाक् करता है या विचारण किए जाने का दावा करता है ।
241. दोषी होने के अभिवाक् पर दोषसिद्धि-यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है तो मजिस्ट्रेट उस अभिवाक् को लेखबद्ध करेगा और उसके आधार पर उसे, स्वविवेकानुसार, दोषसिद्ध कर सकेगा ।
242. अभियोजन के लिए साक्ष्य-(1) यदि अभियुक्त अभिवचन करने से इंकार करता है या अभिवचन नहीं करता है या विचारण किए जाने का दावा करता है या मजिस्ट्रेट अभियुक्त को धारा 241 के अधीन दोषसिद्ध नहीं करता है तो वह मजिस्ट्रेट साक्षियों की परीक्षा के लिए तारीख नियत करेगा :
[परंतु मजिस्ट्रेट अभियुक्त को पुलिस द्वारा अन्वेषण के दौरान अभिलिखित किए गए साक्षियों के कथन अग्रिम रूप से प्रदाय करेगा ।]
(2) मजिस्ट्रेट, अभियोजन के आवेदन पर उसके साक्षियों में से किसी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने का निदेश देने वाला समन जारी कर सकता है ।
(3) ऐसी नियत तारीख पर मजिस्ट्रेट ऐसा सब साक्ष्य लेने के लिए अग्रसर होगा जो अभियोजन के समर्थन में पेश किया जाता है :
परन्तु मजिस्ट्रेट किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा तब तक के लिए, जब तक किसी अन्य साक्षी या साक्षियों की परीक्षा नहीं कर ली जाती है, आस्थगित करने की अनुज्ञा दे सकेगा या किसी साक्षी को अतिरिक्त प्रतिपरीक्षा के लिए पुनः बुला सकेगा ।
243. प्रतिरक्षा का साक्ष्य-(1) तब अभियुक्त से अपेक्षा की जाएगी कि वह अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करे और अपना साक्ष्य पेश करे ; और यदि अभियुक्त कोई लिखित कथन देता है तो मजिस्ट्रेट उसे अभिलेख में फाइल करेगा ।
(2) यदि अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करने के पश्चात् मजिस्ट्रेट से आवेदन करता है कि वह परीक्षा या प्रतिपरीक्षा के, या कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने के प्रयोजन से हाजिर होने के लिए किसी साक्षी को विवश करने के लिए कोई आदेशिका जारी करे तो, मजिस्ट्रेट ऐसी आदेशिका जारी करेगा जब तक उसका यह विचार न हो कि ऐसा आवेदन इस आधार पर नामंजूर कर दिया जाना चाहिए कि वह तंग करने के या विलंब करने के या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से किया गया है, और ऐसा कारण उसके द्वारा लेखबद्ध किया जाएगा :
परन्तु जब अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करने के पूर्व अभियुक्त ने किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा कर ली है या उसे प्रतिपरीक्षा करने का अवसर मिल चुका है तब ऐसे साक्षी को हाजिर होने के लिए इस धारा के अधीन तब तक विवश नहीं किया जाएगा जब तक मजिस्ट्रेट का यह समाधान नहीं हो जाता है कि ऐसा करना न्याय के प्रयोजनों के लिए आवश्यक है ।
(3) मजिस्ट्रेट उपधारा (2) के अधीन किसी आवेदन पर किसी साक्षी को समन करने के पूर्व यह अपेक्षा कर सकता है कि विचारण के प्रयोजन के लिए हाजिर होने में उस साक्षी द्वारा किए जाने वाले उचित व्यय न्यायालय में जमा कर दिए जाएं ।
ख-पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित मामले
244. अभियोजन का साक्ष्य-(1) जब पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किसी वारण्ट-मामले में मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त हाजिर होता है या लाया जाता है तब मजिस्ट्रेट अभियोजन को सुनने के लिए और ऐसा सब साक्ष्य लेने के लिए अग्रसर होगा जो अभियोजन के समर्थन में पेश किया जाए ।
(2) मजिस्ट्रेट, अभियोजन के आवेदन पर, उसके साक्षियों में से किसी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने का निदेश देने वाला समन जारी कर सकता है ।
245. अभियुक्त को कब उन्मोचित किया जाएगा-(1) यदि धारा 244 में निर्दिष्ट सब साक्ष्य लेने पर मजिस्ट्रेट का, उन कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, यह विचार है कि अभियुक्त के विरुद्ध ऐसा कोई मामला सिद्ध नहीं हुआ है जो अखंडित रहने पर उसकी दोषसिद्धि के लिए समुचित आधार हो तो मजिस्ट्रेट उसको उन्मोचित कर देगा ।
(2) इस धारा की कोई बात मजिस्ट्रेट को मामले के किसी पूर्वतन प्रक्रम में अभियुक्त को उस दशा में उन्मोचित करने से निवारित करने वाली न समझी जाएगी जिसमें ऐसा मजिस्ट्रेट ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, यह विचार करता है कि आरोप निराधार है ।
246. प्रक्रिया, जहां अभियुक्त उन्मोचित नहीं किया जाता-(1) यदि ऐसा साक्ष्य ले लिए जाने पर या मामले के किसी पूर्वतन प्रक्रम में मजिस्ट्रेट की यह राय है कि ऐसी उपधारणा करने का आधार है कि अभियुक्त ने इस अध्याय के अधीन विचारणीय ऐसा अपराध किया है जिसका विचारण करने के लिए वह मजिस्ट्रेट सक्षम है और जो उसकी राय में उसके द्वारा पर्याप्त रूप से दंडित किया जा सकता है तो वह अभियुक्त के विरुद्ध आरोप लिखित रूप में विरचित करेगा ।
(2) तब वह आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाया और समझाया जाएगा और उससे पूछा जाएगा कि क्या वह दोषी होने का अभिवाक् करता है अथवा प्रतिरक्षा करना चाहता है ।
(3) यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है तो मजिस्ट्रेट उस अभिवाक् को लेखबद्ध करेगा और उसके आधार पर उसे, स्वविवेकानुसार, दोषसिद्ध कर सकेगा ।
(4) यदि अभियुक्त अभिवचन करने से इंकार करता है या अभिवचन नहीं करता है या विचारण किए जाने का दावा करता है या यदि अभियुक्त को उपधारा (3) के अधीन दोषसिद्ध नहीं किया जाता है तो उससे अपेक्षा की जाएगी कि वह मामले की अगली सुनवाई के प्रारंभ में, या, यदि मजिस्ट्रेट उन कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, ऐसा ठीक समझता है तो, तत्काल बताए कि क्या वह अभियोजन के उन साक्षियों में से, जिनका साक्ष्य लिया जा चुका है, किसी की प्रतिपरीक्षा करना चाहता है और, यदि करना चाहता है तो किस की ।
(5) यदि वह कहता है कि वह ऐसा चाहता है तो उसके द्वारा नामित साक्षियों को पुनः बुलाया जाएगा और प्रतिपरीक्षा के और पुनःपरीक्षा (यदि कोई हो) के पश्चात् वे उन्मोचित कर दिए जाएंगे ।
(6) फिर अभियोजन के किन्हीं शेष साक्षियों का साक्ष्य लिया जाएगा और प्रतिपरीक्षा के और पुनःपरीक्षा (यदि कोई हो) के पश्चात् वे भी उन्मोचित कर दिए जाएंगे ।
247. प्रतिरक्षा का साक्ष्य-तब अभियुक्त से अपेक्षा की जाएगी कि वह अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करे और अपना साक्ष्य पेश करे और मामले को धारा 243 के उपबंध लागू होंगे ।
ग-विचारण की समाप्ति
248. दोषमुक्ति या दोषसिद्धि-(1) यदि इस अध्याय के अधीन किसी मामले में, जिसमें आरोप विरचित किया गया है, मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो वह दोषमुक्ति का आदेश अभिलिखित करेगा ।
(2) जहां इस अध्याय के अधीन किसी मामले में मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त दोषी है किन्तु वह धारा 325 या धारा 360 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही नहीं करता है वहां वह दंड के प्रश्न पर अभियुक्त को सुनने के पश्चात् विधि के अनुसार उसके बारे में दंडादेश दे सकता है ।
(3) जहां इस अध्याय के अधीन किसी मामले में धारा 211 की उपधारा (7) के उपबंधों के अधीन पूर्व दोषसिद्धि का आरोप लगाया गया है और अभियुक्त यह स्वीकार नहीं करता है कि आरोप में किए गए अभिकथन के अनुसार उसे पहले दोषसिद्ध किया गया था वहां मजिस्ट्रेट उक्त अभियुक्त को दोषसिद्ध करने के पश्चात् अभिकथित पूर्व दोषसिद्धि के बारे में साक्ष्य ले सकेगा और उस पर निष्कर्ष अभिलिखित करेगा :
परन्तु जब तक अभियुक्त उपधारा (2) के अधीन दोषसिद्ध नहीं कर दिया जाता है तब तक न तो ऐसा आरोप मजिस्ट्रेट द्वारा पढ़कर सुनाया जाएगा, न अभियुक्त से उस पर अभिवचन करने को कहा जाएगा, और न पूर्व दोषसिद्धि का निर्देश अभियोजन द्वारा, या उसके द्वारा दिए गए किसी साक्ष्य में, किया जाएगा ।
249. परिवादी की अनुपस्थिति-जब कार्यवाही परिवाद पर संस्थित की जाती है और मामले की सुनवाई के लिए नियत किसी दिन परिवादी अनुपस्थित है और अपराध का विधिपूर्वक शमन किया जा सकता है या वह संज्ञेय अपराध नहीं है तब मजिस्ट्रेट, इसमें इसके पूर्व किसी बात के होते हुए भी, आरोप के विरचित किए जाने के पूर्व किसी भी समय अभियुक्त को, स्वविवेकानुसार, उन्मोचित कर सकेगा ।
250. उचित कारण के बिना अभियोग के लिए प्रतिकर-(1) यदि परिवाद पर या पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट को दी गई इत्तिला पर संस्थित किसी मामले में मजिस्ट्रेट के समक्ष एक या अधिक व्यक्तियों पर मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय किसी अपराध का अभियोग है और वह मजिस्ट्रेट जिसके द्वारा मामले की सुनवाई होती है, सब अभियुक्तों को या उनमें से किसी को उन्मोचित या दोषमुक्त कर देता है और उसकी यह राय है कि उनके या उनमें से किसी के विरुद्ध अभियोग लगाने का कोई उचित कारण नहीं था तो वह मजिस्ट्रेट उन्मोचन या दोषमुक्ति के अपने आदेश द्वारा, यदि वह व्यक्ति जिसके परिवाद या इत्तिला पर अभियोग लगाया गया था उपस्थित है तो उससे अपेक्षा कर सकेगा कि वह तत्काल कारण दर्शित करे कि वह उस अभियुक्त को, या जब ऐसे अभियुक्त एक से अधिक हैं तो उनमें से प्रत्येक को या किसी को प्रतिकर क्यों न दे अथवा यदि ऐसा व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो हाजिर होने और उपर्युक्त रूप से कारण दर्शित करने के लिए उसके नाम समन जारी किए जाने का निदेश दे सकेगा ।
(2) मजिस्ट्रेट ऐसा कोई कारण, जो ऐसा परिवादी या इत्तिला देने वाला दर्शित करता है, अभिलिखित करेगा और उस पर विचार करेगा और यदि उसका समाधान हो जाता है कि अभियोग लगाने का कोई उचित कारण नहीं था तो जितनी रकम का जुर्माना करने के लिए वह सशक्त है, उससे अनधिक इतनी रकम का, जितनी वह अवधारित करे, प्रतिकर ऐसे परिवादी या इत्तिला देने वाले द्वारा अभियुक्त को या उनमें से प्रत्येक को या किसी को दिए जाने का आदेश, ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, दे सकेगा ।
(3) मजिस्ट्रेट उपधारा (2) के अधीन प्रतिकर दिए जाने का निदेश देने वाले आदेश द्वारा यह अतिरिक्त आदेश दे सकेगा कि वह व्यक्ति, जो ऐसा प्रतिकर देने के लिए आदिष्ट किया गया है, संदाय में व्यतिक्रम होने पर तीस दिन से अनधिक की अवधि के लिए सादा कारावास भोगेगा ।
(4) जब किसी व्यक्ति को उपधारा (3) के अधीन कारावास दिया जाता है तब भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 68 और 69 के उपबंध, जहां तक हो सके, लागू होंगे ।
(5) इस धारा के अधीन प्रतिकर देने के लिए जिस व्यक्ति को आदेश दिया जाता है, ऐसे आदेश के कारण उसे अपने द्वारा किए गए किसी परिवाद या दी गई किसी इत्तिला के बारे में किसी सिविल या दांडिक दायित्व से छूट नहीं दी जाएगी :
परन्तु अभियुक्त व्यक्ति को इस धारा के अधीन दी गई कोई रकम उसी मामले से संबंधित किसी पश्चात्वर्ती सिविल वाद में उस व्यक्ति के लिए प्रतिकर अधिनिर्णीत करते समय हिसाब में ली जाएगी ।
(6) कोई परिवादी या इत्तिला देने वाला, जो द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा उपधारा (2) के अधीन एक सौ रुपए से अधिक प्रतिकर देने के लिए आदिष्ट किया गया है, उस आदेश की अपील ऐसे कर सकेगा मानो वह परिवादी या इत्तिला देने वाला ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्ध किया गया है ।
(7) जब किसी अभियुक्त व्यक्ति को ऐसे मामले में, जो उपधारा (6) के अधीन अपीलनीय है, प्रतिकर दिए जाने का आदेश किया जाता है तब उसे ऐसा प्रतिकर, अपील पेश करने के लिए अनुज्ञात अवधि के बीत जाने के पूर्व या यदि अपील पेश कर दी गई है तो अपील के विनिश्चित कर दिए जाने के पूर्व न दिया जाएगा और जहां ऐसा आदेश ऐसे मामले में हुआ है, जो ऐसे अपीलनीय नहीं है, वहां ऐसा प्रतिकर आदेश की तारीख से एक मास की समाप्ति के पूर्व नहीं दिया जाएगा ।
(8) इस धारा के उपबंध समन-मामलों तथा वारण्ट-मामलों दोनों को लागू होंगे ।
अध्याय 20
मजिस्ट्रेट द्वारा समन-मामलों का विचारण
251. अभियोग का सारांश बताया जाना-जब समन-मामले में अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है, तब उसे उस अपराध की विशिष्टियां बताई जाएंगी जिसका उस पर अभियोग है, और उससे पूछा जाएगा कि क्या वह दोषी होने का अभिवाक् करता है अथवा प्रतिरक्षा करना चाहता है ; किन्तु यथा रीति आरोप विरचित करना आवश्यक न होगा ।
252. दोषी होने के अभिवाक् पर दोषसिद्धि-यदि अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करता है तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त का अभिवाक् यथासंभव उन्हीं शब्दों में लेखबद्ध करेगा जिनका अभियुक्त ने प्रयोग किया है और उसके आधार पर उसे, स्वविवेकानुसार, दोषसिद्ध कर सकेगा ।
253. छोटे मामलों में अभियुक्त की अनुपस्थिति में दोषी होने के अभिवाक् पर दोषसिद्धि-(1) जहां धारा 206 के अधीन समन जारी किया जाता है और अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर हुए बिना आरोप का दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है, वहां वह अपना अभिवाक् अन्तर्विष्ट करने वाला एक पत्र और समन में विनिर्दिष्ट जुर्माने की रकम डाक या संदेशवाहक द्वारा मजिस्ट्रेट को भेजेगा ।
(2) तब मजिस्ट्रेट, स्वविवेकानुसार, अभियुक्त को उसके दोषी होने के अभिवाक् के आधार पर उसकी अनुपस्थिति में दोषसिद्ध करेगा और समन में विनिर्दिष्ट जुर्माना देने के लिए दण्डादेश देगा और अभियुक्त द्वारा भेजी गई रकम उस जुर्माने में समायोजित की जाएगी या जहां अभियुक्त द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत प्लीडर अभियुक्त की ओर से उसके दोषी होने का अभिवचन करता है वहां मजिस्ट्रेट यथासंभव प्लीडर द्वारा प्रयुक्त किए गए शब्दों में अभिवाक् को लेखबद्ध करेगा और स्वविवेकानुसार उस अभियुक्त को ऐसे अभिवाक् पर दोषसिद्ध कर सकेगा और उसे यथापूर्वोक्त दण्डादेश दे सकेगा ।
254. प्रक्रिया जब दोषसिद्ध न किया जाए-(1) यदि मजिस्ट्रेट अभियुक्त को धारा 252 या धारा 253 के अधीन दोषसिद्ध नहीं करता है तो वह अभियोजन को सुनने के लिए और सब ऐसा साक्ष्य, जो अभियोजन के समर्थन में पेश किया जाए, लेने के लिए और अभियुक्त को भी सुनने के लिए और सब ऐसा साक्ष्य, जो वह अपनी प्रतिरक्षा में पेश करे, लेने के लिए, अग्रसर होगा ।
(2) यदि मजिस्ट्रेट अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर ठीक समझता है, तो वह किसी साक्षी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने का निदेश देने वाला समन जारी कर सकता है ।
(3) मजिस्ट्रेट ऐसे आवेदन पर किसी साक्षी को समन करने के पूर्व यह अपेक्षा कर सकता है कि विचारण के प्रयोजनों के लिए हाजिर होने में किए जाने वाले उसके उचित व्यय न्यायालय में जमा कर दिए जाएं ।
255. दोषमुक्ति या दोषसिद्धि-(1) यदि मजिस्ट्रेट धारा 254 में निर्दिष्ट साक्ष्य और ऐसा अतिरिक्त साक्ष्य, यदि कोई हो, जो वह स्वप्रेरणा से पेश करवाए, लेने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो वह दोषमुक्ति का आदेश अभिलिखित करेगा ।
(2) जहां मजिस्ट्रेट धारा 325 या धारा 360 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही नहीं करता है वहां यदि वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त दोषी है तो वह विधि के अनुसार उसके बारे में दंडादेश दे सकेगा ।
(3) कोई मजिस्ट्रेट, धारा 252 या धारा 255 के अधीन, किसी अभियुक्त को, चाहे परिवाद या समन किसी भी प्रकार का रहा हो, इस अध्याय के अधीन विचारणीय किसी भी ऐसे अपराध के लिए, जो स्वीकृत या साबित तथ्यों से उसके द्वारा किया गया प्रतीत होता है, दोषसिद्ध कर सकता है यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि उससे अभियुक्त पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा ।
256. परिवादी का हाजिर न होना या उसकी मृत्यु-(1) यदि परिवाद पर समन जारी कर दिया गया हो और अभियुक्त की हाजिरी के लिए नियत दिन, या उसके पश्चात्वर्ती किसी दिन, जिसके लिए सुनवाई स्थगित की जाती है, परिवादी हाजिर नहीं होता है तो, मजिस्ट्रेट इसमें इसके पूर्व किसी बात के होते हुए भी, अभियुक्त को दोषमुक्त कर देगा जब तक कि वह किन्हीं कारणों से किसी अन्य दिन के लिए मामले की सुनवाई स्थगित करना ठीक न समझे :
परन्तु जहां परिवादी का प्रतिनिधित्व प्लीडर द्वारा या अभियोजन का संचालन करने वाले अधिकारी द्वारा किया जाता है या जहां मजिस्ट्रेट की यह राय है कि परिवादी की वैयक्तिक हाजिरी आवश्यक नहीं है वहां मजिस्ट्रेट उसकी हाजिरी से उसे अभिमुक्ति दे सकता है और मामले में कार्यवाही कर सकता है ।
(2) उपधारा (1) के उपबंध, जहां तक हो सके, उन मामलों को भी लागू होंगे, जहां परिवादी के हाजिर न होने का कारण उसकी मृत्यु है ।
257. परिवाद को वापस लेना-यदि परिवादी किसी मामले में इस अध्याय के अधीन अंतिम आदेश पारित किए जाने के पूर्व किसी समय मजिस्ट्रेट का समाधान कर देता है कि अभियुक्त के विरुद्ध, या जहां एक से अधिक अभियुक्त हैं वहां उन सब या उनमें से किसी के विरुद्ध उसका परिवाद वापस लेने की उसे अनुज्ञा देने के लिए पर्याप्त आधार है तो मजिस्ट्रेट उसे परिवाद वापस लेने की अनुज्ञा दे सकेगा और तब उस अभियुक्त को, जिसके विरुद्ध परिवाद इस प्रकार वापस लिया जाता है, दोषमुक्त कर देगा ।
258. कुछ मामलों में कार्यवाही रोक देने की शक्ति-परिवाद से भिन्न आधार पर संस्थित किसी समन-मामले में कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट, अथवा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व मंजूरी से कोई अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ऐसे कारणों से, जो उसके द्वारा लेखबद्ध किए जाएंगे, कार्यवाही को किसी भी प्रक्रम में कोई निर्णय सुनाए बिना रोक सकता है और जहां मुख्य साक्षियों के साक्ष्य को अभिलिखित किए जाने के पश्चात् इस प्रकार कार्यवाहियां रोकी जाती हैं वहां दोषमुक्ति का निर्णय सुना सकता है और किसी अन्य दशा में अभियुक्त को छोड़ सकता है और ऐसे छोड़ने का प्रभाव उन्मोचन होगा ।
259. समन-मामलों को वारण्ट-मामलों में संपरिवर्तित करने की न्यायालय की शक्ति-जब किसी ऐसे अपराध से संबंधित समन-मामले के विचारण के दौरान जो छह मास से अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय है, मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि न्याय के हित में उस अपराध का विचारण वारण्ट-मामलों के विचारण की प्रक्रिया के अनुसार किया जाना चाहिए तो ऐसा मजिस्ट्रेट वारण्ट-मामलों के विचारण के लिए इस संहिता द्वारा उपबंधित रीति से उस मामले की पुनः सुनवाई कर सकता है और ऐसे साक्षियों को पुनः बुला सकता है जिनकी परीक्षा की जा चुकी है ।
अध्याय 21
संक्षिप्त विचारण
260. संक्षिप्त विचारण करने की शक्ति-(1) इस संहिता में किसी बात के होते हुए भी यदि,-
(क) कोई मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ;
(ख) कोई महानगर मजिस्ट्रेट ;
(ग) कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त किया गया है,
ठीक समझता है तो वह निम्नलिखित सब अपराधों का या उनमें से किसी का संक्षेपतः विचारण कर सकता है,-
(i) वे अपराध जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय नहीं हैं ;
(ii) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 379, धारा 380 या धारा 381 के अधीन चोरी, जहां चुराई हुई संपत्ति का मूल्य [दो हजार रुपए] से अधिक नहीं है ;
(iii) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 411 के अधीन चोरी की संपत्ति को प्राप्त करना या रखे रखना, जहां ऐसी संपत्ति का मूल्य 1[दो हजार रुपए] से अधिक नहीं है ;
(iv) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 414 के अधीन चुराई हुई संपत्ति को छिपाने या उसका व्ययन करने में सहायता करना, जहां ऐसी संपत्ति का मूल्य 1[दो हजार रुपए] से अधिक नहीं है ;
(v) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 454 और 456 के अधीन अपराध ;
(vi) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 504 के अधीन लोकशांति भंग कराने को प्रकोपित करने के आशय से अपमान और धारा 506 के अधीन [आपराधिक अभित्रास, जो ऐसे कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय होगा] ;
(vii) पूर्ववर्ती अपराधों में से किसी का दुष्प्रेरण ;
(viii) पूर्ववर्ती अपराधों में से किसी को करने का प्रयत्न, जब ऐसा प्रयत्न, अपराध है ;
(ix) ऐसे कार्य से होने वाला कोई अपराध, जिसकी बाबत पशु अतिचार अधिनियम, 1871 (1871 का 1) की धारा 20 के अधीन परिवाद किया जा सकता है ।
(2) जब संक्षिप्त विचारण के दौरान मजिस्ट्रेट को प्रतीत होता है कि मामला इस प्रकार का है कि उसका विचारण संक्षेपतः किया जाना अवांछनीय है तो वह मजिस्ट्रेट किन्हीं साक्षियों को, जिनकी परीक्षा की जा चुकी है, पुनः बुलाएगा और मामले को इस संहिता द्वारा उपबंधित रीति से पुनः सुनने के लिए अग्रसर होगा ।
261. द्वितीय वर्ग के मजिस्ट्रेटों द्वारा संक्षिप्त विचारण-उच्च न्यायालय किसी ऐसे मजिस्ट्रेट को, जिसमें द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट की शक्तियां निहित हैं, किसी ऐसे अपराध का, जो केवल जुर्माने से या जुर्माने सहित या रहित छह मास से अनधिक के कारावास से दंडनीय है और ऐसे किसी अपराध के दुष्प्रेरण या ऐसे किसी अपराध को करने के प्रयत्न का संक्षेपतः विचारण करने की शक्ति प्रदान कर सकता है ।
262. संक्षिप्त विचारण की प्रक्रिया-(1) इस अध्याय के अधीन विचारणों में इसके पश्चात् इसमें जैसा वर्णित है उसके सिवाय, इस संहिता में समन-मामलों के विचारण के लिए विनिर्दिष्ट प्रक्रिया का अनुसरण किया जाएगा ।
(2) तीन मास से अधिक की अवधि के लिए कारावास का कोई दंडादेश इस अध्याय के अधीन किसी दोषसिद्धि के मामले में न दिया जाएगा ।
263. संक्षिप्त विचारणों में अभिलेख-संक्षेपतः विचारित प्रत्येक मामले में मजिस्ट्रेट ऐसे प्ररूप में, जैसा राज्य सरकार निदिष्ट करे, निम्नलिखित विशिष्टियां प्रविष्ट करेगा, अर्थात् :-
(क) मामले का क्रम संख्यांक ;
(ख) अपराध किए जाने की तारीख ;
(ग) रिपोर्ट या परिवाद की तारीख ;
(घ) परिवादी का (यदि कोई हो) नाम ;
(ङ) अभियुक्त का नाम, उसके माता-पिता का नाम और उसका निवास ;
(च) वह अपराध जिसका परिवाद किया गया है और वह अपराध जो साबित हुआ है (यदि कोई हो), और धारा 260 की उपधारा (1) के खंड (ii), खंड (iii) या खण्ड (iv) के अधीन आने वाले मामलों में उस संपत्ति का मूल्य जिसके बारे में अपराध किया गया है ;
(छ) अभियुक्त का अभिवाक् और उसकी परीक्षा (यदि कोई हो) ;
(ज) निष्कर्ष ;
(झ) दंडादेश या अन्य अन्तिम आदेश ;
(ञ) कार्यवाही समाप्त होने की तारीख ।
264. संक्षेपतः विचारित मामलों में निर्णय-संक्षेपतः विचारित प्रत्येक ऐसे मामले में, जिसमें अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन नहीं करता है, मजिस्ट्रेट साक्ष्य का सारांश और निष्कर्ष के कारणों का संक्षिप्त कथन देते हुए निर्णय अभिलिखित करेगा ।
265. अभिलेख और निर्णय की भाषा-(1) ऐसा प्रत्येक अभिलेख और निर्णय न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा ।
(2) उच्च न्यायालय संक्षेपतः विचारण करने के लिए सशक्त किए गए किसी मजिस्ट्रेट को प्राधिकृत कर सकता है कि वह पूर्वोक्त अभिलेख या निर्णय या दोनों उस अधिकारी से तैयार कराए जो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त नियुक्त किया गया है और इस प्रकार तैयार किया गया अभिलेख या निर्णय ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा ।
[अध्याय 21क
सौदा अभिवाक्
265क. अध्याय का लागू होना-(1) यह अध्याय ऐसे अभियुक्त के संबंध में लागू होगा जिसके विरुद्ध-
(क) पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा धारा 173 के अधीन यह अभिकथित करते हुए रिपोर्ट अग्रेषित की गई है कि उसके द्वारा ऐसे अपराध से भिन्न कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है, जिसके लिए तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन मृत्यु या आजीवन या सात वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास के दंड का उपबंध है ; या
(ख) मजिस्ट्रेट ने परिवाद पर उस अपराध का, संज्ञान ले लिया है जो उस अपराध से भिन्न है, जिसके लिए तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन मृत्यु या आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास के दंड का उपबंध है और धारा 200 के अधीन परिवादी और साक्षी की परीक्षा करने के पश्चात् धारा 204 के अधीन आदेशिका जारी की है,
किंतु यह अध्याय वहां लागू नहीं होगा जहां ऐसा अपराध देश की सामाजिक-आर्थिक दशा को प्रभावित करता है या किसी महिला अथवा चौदह वर्ष की आयु से कम के बालक के विरुद्ध किया गया है ।
(2) उपधारा (1) के प्रयोजनों के लिए, केन्द्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन वे अपराध अवधारित करेगी जो देश की सामाजिक-आर्थिक दशा को प्रभावित करते हैं ।
265ख. सौदा अभिवाक् के लिए आवेदन-(1) किसी अपराध का अभियुक्त व्यक्ति, सौदा अभिवाक् के लिए उस न्यायालय में आवेदन फाइल कर सकेगा जिसमें ऐसे अपराध का विचारण लंबित है ।
(2) उपधारा (1) के अधीन आवेदन में उस मामले का संक्षिप्त वर्णन होगा जिसके संबंध में आवेदन फाइल किया गया है, और उसमें उस अपराध का वर्णन भी होगा जिससे वह मामला संबंधित है तथा उसके साथ अभियुक्त का शपथ पत्र होगा जिसमें यह कथित होगा कि उसने विधि के अधीन उस अपराध के लिए उपबंधित दंड की प्रकृति और सीमा को समझने के पश्चात् अपने मामले में स्वेच्छा से सौदा अभिवाक् दाखिल किया है और यह कि उसे किसी न्यायालय ने इससे पूर्व किसी ऐसे मामले में, जिसमें उसे उसी अपराध से आरोपित किया गया था, यह कि सिद्धदोष नहीं ठहराया गया है ।
(3) न्यायालय उपधारा (1) के अधीन आवेदन प्राप्त होने के पश्चात्, यथास्थिति, लोक अभियोजक या परिवादी को और साथ ही अभियुक्त को मामले में नियत तारीख को हाजिर होने के लिए सूचना जारी करेगा ।
(4) जहां उपधारा (3) के अधीन नियत तारीख को, यथास्थिति, लोक अभियोजक या मामले का परिवादी और अभियुक्त हाजिर होते हैं, वहां न्यायालय अपना समाधान करने के लिए कि अभियुक्त ने आवेदन स्वेच्छा से दाखिल किया है, अभियुक्त की बंद कमरे में परीक्षा करेगा, जहां मामले का दूसरा पक्षकार उपस्थित नहीं होगा और जहां-
(क) न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि वह आवेदन अभियुक्त द्वारा स्वेच्छा से फाइल किया गया है, वहां वह, यथास्थिति, लोक अभियोजक या परिवादी और अभियुक्त को मामले के पारस्परिक संतोषप्रद निपटारे के लिए समय देगा जिसमें अभियुक्त द्वारा पीड़ित व्यक्ति को मामले के दौरान प्रतिकर और अन्य खर्च देना सम्मिलित है और तत्पश्चात् मामले की आगे सुनवाई के लिए तारीख नियत करेगा ;
(ख) न्यायालय को यह पता चलता है कि आवेदन अभियुक्त द्वारा स्वेच्छा से फाइल नहीं किया गया है, या उसे किसी न्यायालय द्वारा किसी मामले में जिसमें उस पर उसी अपराध का आरोप था, सिद्धदोष ठहराया गया है तो वह इस संहिता के उपबंधों के अनुसार, उस प्रक्रम से जहां उपधारा (1) के अधीन ऐसा आवेदन फाइल किया गया है, आगे कार्यवाही करेगा ।
265ग. पारस्परिक संतोषप्रद निपटारे के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत-धारा 265ख की उपधारा (4) के खंड (क) के अधीन पारस्परिक संतोषप्रद निपटारे के लिए, न्यायालय निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाएगा, अर्थात् :-
(क) पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित किसी मामले में, न्यायालय, लोक अभियोजक, पुलिस अधिकारी, जिसने मामले का अन्वेषण किया है, अभियुक्त और मामले में पीड़ित व्यक्ति को, उस मामले का संतोषप्रद निपटारा करने के लिए बैठक में भाग लेने के लिए सूचना जारी करेगा :
परन्तु मामले के संतोषप्रद निपटारे की ऐसी संपूर्ण प्रक्रिया के दौरान न्यायालय का यह कर्तव्य होगा कि वह सुनिश्चित करे कि सारी प्रक्रिया बैठक में भाग लेने वाले पक्षकारों द्वारा स्वेच्छा से पूर्ण की गई है :
परन्तु यह और कि अभियुक्त, यदि ऐसी वांछा करे तो, मामले में लगाए गए अपने अभिवक्ता, यदि कोई हो, के साथ इस बैठक में भाग ले सकेगा ;
(ख) पुलिस रिपोर्ट से अन्यथा संस्थित मामले में, न्यायालय, अभियुक्त और उस मामले में पीड़ित व्यक्ति को मामले के संतोषप्रद निपटारे के लिए की जाने वाली बैठक में भाग लेने के लिए सूचना जारी करेगा :
परन्तु न्यायालय का यह कर्तव्य होगा कि वह मामले का संतोषप्रद निपटारा करने की संपूर्ण प्रक्रिया के दौरान यह सुनिश्चित करे कि उसे बैठक में भाग लेने वाले पक्षकारों द्वारा स्वेच्छा से पूरा किया गया है :
परन्तु यह और कि यदि, यथास्थिति, मामले में, पीड़ित व्यक्ति या अभियुक्त, यदि ऐसी वांछा करे, तो वह उस मामले में लगाए गए अपने अभिवक्ता के साथ उस बैठक में भाग ले सकेगा ।
265घ. पारस्परिक संतोषप्रद निपटारे की रिपोर्ट का न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाना-जहां धारा 265ग के अधीन बैठक में मामले का कोई संतोषप्रद निपटारा तैयार किया गया है, वहां न्यायालय ऐसे निपटारे की रिपोर्ट तैयार करेगा जिस पर न्यायालय के पीठासीन अधिकारी और उन अन्य सभी व्यक्तियों के हस्ताक्षर होंगे जिन्होंने बैठक में भाग लिया था और यदि ऐसा कोई निपटारा तैयार नहीं किया जा सका है तो न्यायालय ऐसा संप्रेक्षण लेखबद्ध करेगा और इस संहिता के उपबंधों के अनुसार उस प्रक्रम से आगे कार्यवाही करेगा, जहां से उस मामले में धारा 265ख की उपधारा (1) के अधीन आवेदन फाइल किया गया है ।
265ङ मामले का निपटारा-जहां धारा 265घ के अधीन मामले का कोई संतोषप्रद निपटारा तैयार किया गया है वहां न्यायालय मामले का निपटारा निम्नलिखित रीति से करेगा, अर्थात् :-
(क) न्यायालय, पीड़ित व्यक्ति को धारा 265घ के अधीन निपटारे के अनुसार प्रतिकर देगा और दंड की मात्रा, अभियुक्त को सदाचार की परिवीक्षा पर या धारा 360 के अधीन भर्त्सना के पश्चात्, छोड़ने अथवा अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 (1958 का 20) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों के अधीन अभियुक्त के संबंध में कार्रवाई करने के विषय में पक्षकारों की सुनवाई करेगा और अभियुक्त पर दंड अधिरोपित करने के लिए पश्चात्वर्ती खंडों में विनिर्दिष्ट प्रक्रिया का पालन करेगा ;
(ख) खंड (क) के अधीन पक्षकारों की सुनवाई के पश्चात् यदि न्यायालय का यह मत हो कि धारा 360 या अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 (1958 का 20) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंध अभियुक्त के मामले में आकर्षित होते हैं, तो वह, यथास्थिति, अभियुक्त को परिवीक्षा पर छोड़ सकेगा या ऐसी किसी विधि का लाभ दे सकेगा ;
(ग) खंड (ख) के अधीन पक्षकारों को सुनने के पश्चात्, यदि न्यायालय को यह पता चलता है कि अभियुक्त द्वारा किए गए अपराध के लिए विधि में न्यूनतम दंड उपबंधित किया गया है तो वह अभियुक्त को ऐसे न्यूनतम दंड के आधे का दंड दे सकेगा ;
(घ) खंड (ख) के अधीन पक्षकारों को सुनने के पश्चात्, यदि न्यायालय को पता चलता है कि अभियुक्त द्वारा किया गया अपराध खंड (ख) या खंड (ग) के अन्तर्गत नहीं आता है तो वह अभियुक्त को, यथास्थिति, ऐसे अपराध के लिए उपबंधित या बढ़ाए जा सकने वाले दंड के एक-चौथाई का दंड दे सकेगा ।
265च. न्यायालय का निर्णय-न्यायालय, अपना निर्णय, धारा 276ङ के निबंधनों के अनुसार, खुले न्यायालय में देगा और उस पर न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के हस्ताक्षर होंगे ।
265छ. निर्णय का अंतिम होना-न्यायालय द्वारा धारा 265छ के अधीन दिया गया निर्णय अंतिम होगा और उससे कोई अपील (संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन विशेष इजाजत याचिका और अनुच्छेद 226 और अनुच्छेद 227 के अधीन रिट याचिका के सिवाय) ऐसे निर्णय के विरुद्ध किसी न्यायालय में नहीं होगी ।
265ज. सौदा अभिवाक् में न्यायालय की शक्ति-न्यायालय के पास, इस अध्याय के अधीन अपने कृत्यों का निर्वहन करने के प्रयोजन के लिए जमानत, अपराधों के विचारण और इस संहिता के अधीन ऐसे न्यायालय में किसी मामले के निपटारे से संबंधित अन्य विषयों के बारे में विहित सभी शक्तियां होंगी ।
265झ. अभियुक्त द्वारा भोगी गई निरोध की अवधि का कारावास के दंडादेश के विरुद्ध मुजरा किया जाना-इस अध्याय के अधीन अधिरोपित कारावास के दंडादेश के विरुद्ध अभियुक्त द्वारा भोगी गई निरोध की अवधि का मुजरा किए जाने के लिए धारा 428 के उपबंध उसी रीति से लागू होंगे जैसे कि वे इस संहिता के किन्हीं अन्य उपबंधों के अधीन कारावास के संबंध में लागू होते हैं ।
265ञ. व्यावृत्ति-इस अध्याय के उपबंध इस संहिता के किन्हीं अन्य उपबंधों में अन्तर्विष्ट उनसे असंगत किसी बात के होते हुए भी प्रभावी होंगे और ऐसे अन्य उपबंधों में किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह इस अध्याय के किसी उपबंध के अर्थ को सीमित करती है ।
स्पष्टीकरण-इस अध्याय के प्रयोजनों के लिए, लोक अभियोजक" पद का वही अर्थ होगा जो धारा 2 के खंड (प) के अधीन उसका है और इसमें धारा 25 के अधीन नियुक्त सहायक लोक अभियोजक सम्मिलित है ।
265ट. अभियुक्त के कथनों का उपयोग न किया जाना-तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, किसी अभियुक्त द्वारा धारा 265ख के अधीन फाइल किए गए सौदा अभिवाक् के लिए आवेदन में कथित कथनों या तथ्यों का, इस अध्याय के प्रयोजन के सिवाय किसी अन्य प्रयोजन के लिए उपयोग नहीं किया जाएगा ।
265ठ. अध्याय का लागू न होना-इस अध्याय की कोई बात, किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 (2000 का 56) की धारा 2 के उपखंड (ट) में यथापरिभाषित किसी किशोर या बालक को लागू नहीं होगी ।]
अध्याय 22
कारागारों में परिरुद्ध या निरुद्ध व्यक्तियों की हाजिरी
266. परिभाषाएं-इस अध्याय में,-
(क) निरुद्ध" के अन्तर्गत निवारक निरोध के लिए उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन निरुद्ध भी है ;
(ख) कारागार" के अन्तर्गत निम्नलिखित भी हैं, -
(i) कोई ऐसा स्थान जिसे राज्य सरकार ने, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, अतिरिक्त जेल घोषित किया है ;
(ii) कोई सुधारालय, बोर्स्टल-संस्था या इसी प्रकार की अन्य संस्था ।
267. बन्दियों को हाजिर कराने की अपेक्षा करने की शक्ति-(1) जब कभी इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के दौरान किसी दंड न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि-
(क) कारागार में परिरुद्ध या निरुद्ध व्यक्ति को किसी अपराध के आरोप का उत्तर देने के लिए या उसके विरुद्ध किन्हीं कार्यवाहियों के प्रयोजन के लिए न्यायालय के समक्ष लाया जाना चाहिए, अथवा
(ख) न्याय के उद्देश्यों के लिए यह आवश्यक है कि ऐसे व्यक्ति की साक्षी के रूप में परीक्षा की जाए,
तब वह न्यायालय, कारागार के भारसाधक अधिकारी से यह अपेक्षा करने वाला आदेश दे सकता है कि वह ऐसे व्यक्ति को, यथास्थिति, आरोप का उत्तर देने के लिए या ऐसी कार्यवाहियों के प्रयोजन के लिए या साक्ष्य देने के लिए न्यायालय के समक्ष पेश करे ।
(2) जहां उपधारा (1) के अधीन कोई आदेश द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा दिया जाता है, वहां वह कारागार के भारसाधक अधिकारी को तब तक भेजा नहीं जाएगा या उसके द्वारा उस पर तब तक कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी जब तक वह ऐसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित न हो, जिसके अधीनस्थ वह मजिस्ट्रेट है ।
(3) उपधारा (2) के अधीन प्रतिहस्ताक्षर के लिए पेश किए गए प्रत्येक आदेश के साथ ऐसे तथ्यों का, जिनसे मजिस्ट्रेट की राय में आदेश आवश्यक हो गया है, एक विवरण होगा और वह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, जिसके समक्ष वह पेश किया गया है उस विवरण पर विचार करने के पश्चात् आदेश पर प्रतिहस्ताक्षर करने से इंकार कर सकता है ।
268. धारा 267 के प्रवर्तन से कतिपय व्यक्तियों को अपवर्जित करने की राज्य सरकार की शक्ति-(1) राज्य सरकार, उपधारा (2) में विनिर्दिष्ट बातों को ध्यान में रखते हुए, किसी समय, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, यह निदेश दे सकती है कि किसी व्यक्ति को या किसी वर्ग के व्यक्तियों को उस कारागार से नहीं हटाया जाएगा जिसमें उसे या उन्हें परिरुद्ध या निरुद्ध किया गया है, और तब, जब तक ऐसा आदेश प्रवृत्त रहे, धारा 267 के अधीन दिया गया कोई आदेश, चाहे वह राज्य सरकार के आदेश के पूर्व किया गया हो या उसके पश्चात्, ऐसे व्यक्ति या ऐसे वर्ग के व्यक्तियों के बारे में प्रभावी न होगा ।
(2) उपधारा (1) के अधीन कोई आदेश देने के पूर्व, राज्य सरकार निम्नलिखित बातों का ध्यान रखेगी, अर्थात् :-
(क) उस अपराध का स्वरूप जिसके लिए, या वे आधार, जिन पर, उस व्यक्ति को या उस वर्ग के व्यक्तियों को कारागार में परिरुद्ध या निरुद्ध करने का आदेश दिया गया है ;
(ख) यदि उस व्यक्ति को या उस वर्ग के व्यक्तियों को कारागार से हटाने की अनुज्ञा दी जाए तो लोक-व्यवस्था में विघ्न की संभाव्यता ;
(ग) लोक हित, साधारणतः ।
269. कारागार के भारसाधक अधिकारी का कतिपय आकस्मिकताओं में आदेश को कार्यान्वित न करना-जहां वह व्यक्ति, जिसके बारे में धारा 267 के अधीन कोई आदेश दिया गया है-
(क) बीमारी या अंगशैथिल्य के कारण कारागार से हटाए जाने के योग्य नहीं है ; अथवा
(ख) विचारण के लिए सुपुर्दगी के अधीन है या विचारण के लंबित रहने तक के लिए या प्रारंभिक अन्वेषण तक के लिए प्रतिप्रेषणाधीन है ; अथवा
(ग) इतनी अवधि के लिए अभिरक्षा में है जितनी आदेश का अनुपालन करने के लिए और उस कारागार में जिसमें वह परिरुद्ध या निरुद्ध है, उसे वापस ले आने के लिए अपेक्षित समय के समाप्त होने के पूर्व समाप्त होती है ; अथवा
(घ) ऐसा व्यक्ति है जिसे धारा 268 के अधीन राज्य सरकार द्वारा दिया गया कोई आदेश लागू होता है,
वहां कारागार का भारसाधक अधिकारी न्यायालय के आदेश को कार्यान्वित नहीं करेगा और ऐसा न करने के कारणों का विवरण न्यायालय को भेजेगा :
परन्तु जहां ऐसे व्यक्ति से किसी ऐसे स्थान पर, जो कारागार से पच्चीस किलोमीटर से अधिक दूर नहीं है, साक्ष्य देने के लिए हाजिर होने की अपेक्षा की जाती है, वहां कारागार के भारसाधक अधिकारी के ऐसा न करने का कारण खंड (ख) में वर्णित कारण नहीं होगा ।
270. बन्दी का न्यायालय में अभिरक्षा में लाया जाना-धारा 269 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कारागार का भारसाधक अधिकारी, धारा 267 की उपधारा (1) के अधीन दिए गए और जहां आवश्यक है, वहां उसकी उपधारा (2) के अधीन सम्यक् रूप से प्रतिहस्ताक्षरित आदेश के परिदान पर, आदेश में नामित व्यक्ति को ऐसे न्यायालय में, जिसमें उसकी हाजिरी अपेक्षित है, भिजवाएगा जिससे वह आदेश में उल्लिखित समय पर वहां उपस्थित हो सके, और उसे न्यायालय में या उसके पास अभिरक्षा में तब तक रखवाएगा जब तक उसकी परीक्षा न कर ली जाए या जब तक न्यायालय उसे उस कारागार को, जिसमें वह परिरुद्ध या निरुद्ध था, वापस ले जाए जाने के लिए प्राधिकृत न करे ।
271. कारागार में साक्षी की परीक्षा के लिए कमीशन जारी करने की शक्ति-कारागार में परिरुद्ध या निरुद्ध किसी व्यक्ति को साक्षी के रूप में परीक्षा के लिए धारा 284 के अधीन कमीशन जारी करने की न्यायालय की शक्ति पर इस अध्याय के उपबंधों का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा ; और अध्याय 23 के भाग ख के उपबंध कारागार में ऐसे किसी व्यक्ति की कमीशन पर परीक्षा के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे किसी अन्य व्यक्ति की कमीशन पर परीक्षा के संबंध में लागू होते हैं ।
अध्याय 23
जांचों और विचारणों में साक्ष्य
क-साक्ष्य लेने और अभिलिखित करने का ढंग
272. न्यायालयों की भाषा-राज्य सरकार यह अवधारित कर सकती है कि इस संहिता के प्रयोजनों के लिए राज्य के अन्दर उच्च न्यायालय से भिन्न प्रत्येक न्यायालय की कौन सी भाषा होगी ।
273. साक्ष्य का अभियुक्त की उपस्थिति में लिया जाना-अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय, विचारण या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में लिया गया सब साक्ष्य अभियुक्त की उपस्थिति में या जब उसे वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्त कर दिया गया है तब उसके प्लीडर की उपस्थिति में लिया जाएगा :
[परन्तु जहां अठारह वर्ष से कम आयु की स्त्री का, जिससे बलात्संग या किसी अन्य लैंगिक अपराध के किए जाने का अभिकथन किया गया है, साक्ष्य अभिलिखित किया जाना है, वहां न्यायालय यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऐसी स्त्री का अभियुक्त से सामना न हो और साथ ही अभियुक्त की प्रतिपरीक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करते हुए समुचित उपाय कर सकेगा ।]
स्पष्टीकरण-इस धारा में अभियुक्त" के अन्तर्गत ऐसा व्यक्ति भी है जिसकी बाबत अध्याय 8 के अधीन कोई कार्यवाही इस संहिता के अधीन प्रारंभ की जा चुकी है ।
274. समन-मामलों और जांचों में अभिलेख-(1) मजिस्ट्रेट के समक्ष विचारित सब समन-मामलों में, धारा 145 से धारा 148 तक की धाराओं के अधीन (जिनके अन्तर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं) सब जांचों में, और विचारण के अनुक्रम की कार्यवाहियों से भिन्न धारा 446 के अधीन सब कार्यवाहियों में, मजिस्ट्रेट जैसे-जैसे प्रत्येक साक्षी की परीक्षा होती जाती है, वैसे-वैसे उसके साक्ष्य के सारांश का ज्ञापन न्यायालय की भाषा में तैयार करेगा :
परन्तु यदि मजिस्ट्रेट ऐसा ज्ञापन स्वयं तैयार करने में असमर्थ है तो वह अपनी असमर्थता के कारणों को अभिलिखित करने के पश्चात् ऐसे ज्ञापन को खुले न्यायालय में स्वयं बोलकर लिखित रूप में तैयार कराएगा ।
(2) ऐसे ज्ञापन पर मजिस्ट्रेट हस्ताक्षर करेगा और वह अभिलेख का भाग होगा ।
275. वारण्ट-मामलों में अभिलेख-(1) मजिस्ट्रेट के समक्ष विचारित सब वारंट-मामलों में प्रत्येक साक्षी का साक्ष्य जैसे-जैसे उसकी परीक्षा होती जाती है, वैसे-वैसे या तो स्वयं मजिस्ट्रेट द्वारा लिखा जाएगा या खुले न्यायालय में उसके द्वारा बोलकर लिखवाया जाएगा या जहां वह किसी शारीरिक या अन्य असमर्थता के कारण ऐसा करने में असमर्थ है, वहां उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त न्यायालय के किसी अधिकारी द्वारा उसके निदेशन और अधीक्षण में लिखा जाएगा :
[परंतु इस उपधारा के अधीन साक्षी का साक्ष्य उस अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के अधिवक्ता की उपस्थिति में श्रव्य-दृश्य इलैक्ट्रानिक साधनों द्वारा भी अभिलिखित किया जा सकेगा ।]
(2) जहां मजिस्ट्रेट साक्ष्य लिखवाए वहां वह यह प्रमाणपत्र अभिलिखित करेगा कि साक्ष्य उपधारा (1) में निर्दिष्ट कारणों से स्वयं उसके द्वारा नहीं लिखा जा सका ।
(3) ऐसा साक्ष्य मामूली तौर पर वृत्तांत के रूप में अभिलिखित किया जाएगा किन्तु मजिस्ट्रेट स्वविवेकानुसार, ऐसे साक्ष्य के किसी भाग को प्रश्नोत्तर के रूप में लिख या लिखवा सकता है ।
(4) ऐसे लिखे गए साक्ष्य पर मजिस्ट्रेट हस्ताक्षर करेगा और वह अभिलेख का भाग होगा ।
276. सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण में अभिलेख-(1) सेशन न्यायालय के समक्ष सब विचारणों में प्रत्येक साक्षी का साक्ष्य, जैसे-जैसे उसकी परीक्षा होती जाती है, वैसे-वैसे या तो स्वयं पीठासीन न्यायाधीश द्वारा लिखा जाएगा या खुले न्यायालय में उसके द्वारा बोलकर लिखवाया जाएगा या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त न्यायालय के किसी अधिकारी द्वारा उसके निदेशन और अधीक्षण में लिखा जाएगा ।
[(2) ऐसा साक्ष्य मामूली तौर पर वृत्तांत के रूप में लिखा जाएगा किन्तु पीठासीन न्यायाधीश स्वविवेकानुसार ऐसे साक्ष्य के किसी भाग को प्रश्नोत्तर के रूप में लिख सकता है या लिखवा सकता है ।]
(3) ऐसे लिखे गए साक्ष्य पर पीठासीन न्यायाधीश हस्ताक्षर करेगा और वह अभिलेख का भाग होगा ।
277. साक्ष्य के अभिलेख की भाषा-प्रत्येक मामले में जहां साक्ष्य धारा 275 या धारा 276 के अधीन लिखा जाता है वहां-
(क) यदि साक्षी न्यायालय की भाषा में साक्ष्य देता है तो उसे उसी भाषा में लिखा जाएगा ;
(ख) यदि वह किसी अन्य भाषा में साक्ष्य देता है तो उसे, यदि साध्य हो तो, उसी भाषा में लिखा जा सकेगा और यदि ऐसा करना साध्य न हो तो जैसे-जैसे साक्षी की परीक्षा होती जाती है, वैसे-वैसे साक्ष्य का न्यायालय की भाषा में सही अनुवाद तैयार किया जाएगा, उस पर मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे और वह अभिलेख का भाग होगा ;
(ग) उस दशा में जिसमें साक्ष्य खंड (ख) के अधीन न्यायालय की भाषा से भिन्न किसी भाषा में लिखा जाए, न्यायालय की भाषा में उसका सही अनुवाद यथासाध्य शीघ्र तैयार किया जाएगा, उस पर मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश हस्ताक्षर करेगा और वह अभिलेख का भाग होगा :
परन्तु जब खंड (ख) के अधीन साक्ष्य अंग्रेजी में लिखा जाता है और न्यायालय की भाषा में उसके अनुवाद की किसी पक्षकार द्वारा अपेक्षा नहीं की जाती है तो न्यायालय ऐसे अनुवाद से अभिमुक्ति दे सकता है ।
278. जब ऐसा साक्ष्य पूरा हो जाता है तब उसके संबंध में प्रक्रिया-(1) जैसे-जैसे प्रत्येक साक्षी का साक्ष्य जो धारा 275 या धारा 276 के अधीन लिया जाए, पूरा होता जाता है, वैसे-वैसे वह, यदि अभियुक्त हाजिर हो तो उसकी, या यदि वह प्लीडर द्वारा हाजिर हो, तो उसके प्लीडर की उपस्थिति में साक्षी को पढ़कर सुनाया जाएगा और यदि आवश्यक हो तो शुद्ध किया जाएगा ।
(2) यदि साक्षी साक्ष्य के किसी भाग की शुद्धता से उस समय इंकार करता है जब वह उसे पढ़कर सुनाया जाता है तो मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश साक्ष्य को शुद्ध करने के बजाय उस पर साक्षी द्वारा उस बाबत की गई आपत्ति का ज्ञापन लिख सकता है और उसमें ऐसी टिप्पणियां जोड़ देगा जैसी वह आवश्यक समझे ।
(3) यदि साक्ष्य का अभिलेख उस भाषा से भिन्न भाषा में है जिसमें वह दिया गया है और साक्षी उस भाषा को नहीं समझता है तो, उसे ऐसे अभिलेख का भाषान्तर उस भाषा में जिसमें वह दिया गया था अथवा उस भाषा में जिसे वह समझता हो, सुनाया जाएगा ।
279. अभियुक्त या उसके प्लीडर को साक्ष्य का भाषान्तर सुनाया जाना-(1) जब कभी कोई साक्ष्य ऐसी भाषा में दिया जाए जिसे अभियुक्त नहीं समझता है और वह न्यायालय में स्वयं उपस्थित है तब खुले न्यायालय में उसे उस भाषा में उसका भाषान्तर सुनाया जाएगा जिसे वह समझता है ।
(2) यदि वह प्लीडर द्वारा हाजिर हो और साक्ष्य न्यायालय की भाषा से भिन्न और प्लीडर द्वारा न समझी जाने वाली भाषा में दिया जाता है तो उसका भाषान्तर ऐसे प्लीडर को न्यायालय की भाषा में सुनाया जाएगा ।
(3) जब दस्तावेजें यथारीति सबूत के प्रयोजन के लिए पेश की जाती हैं तब यह न्यायालय के स्वविवेक पर निर्भर करेगा कि वह उनमें से उतने का भाषान्तर सुनाए जितना आवश्यक प्रतीत हो ।
280. साक्षी की भावभंगी के बारे में टिप्पणियां-जब पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट साक्षी का साक्ष्य अभिलिखित कर लेता है तब वह उस साक्षी की परीक्षा किए जाते समय उसकी भावभंगी के बारे में ऐसी टिप्पणियां भी अभिलिखित करेगा (यदि कोई हों), जो वह तात्त्विक समझता है ।
281. अभियुक्त की परीक्षा का अभिलेख-(1) जब कभी अभियुक्त की परीक्षा किसी महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा की जाती है तो वह मजिस्ट्रेट अभियुक्त की परीक्षा के सारांश का ज्ञापन न्यायालय की भाषा में तैयार करेगा और ऐसे ज्ञापन पर मजिस्ट्रेट हस्ताक्षर करेगा और वह अभिलेख का भाग होगा ।
(2) जब कभी अभियुक्त की परीक्षा महानगर मजिस्ट्रेट से भिन्न किसी मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय द्वारा की जाती है तब उससे पूछे गए प्रत्येक प्रश्न और उसके द्वारा दिए गए प्रत्येक उत्तर सहित ऐसी सब परीक्षा स्वयं पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा या जहां वह किसी शारीरिक या अन्य असमर्थता के कारण ऐसा करने में असमर्थ है, वहां उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त न्यायालय के किसी अधिकारी द्वारा उसके निदेशन और अधीक्षण में पूरे तौर पर अभिलिखित की जाएंगी ।
(3) अभिलेख, यदि साध्य हो तो, उस भाषा में होगा जिसमें अभियुक्त की परीक्षा की जाती है या यदि यह साध्य न हो तो न्यायालय की भाषा में होगा ।
(4) अभिलेख अभियुक्त को दिखा दिया जाएगा या उसे पढ़ कर सुना दिया जाएगा या यदि वह उस भाषा को नहीं समझता है जिसमें वह लिखा गया है तो उसका भाषान्तर उसे उस भाषा में, जिसे वह समझता है, सुनाया जाएगा और वह अपने उत्तरों का स्पष्टीकरण करने या उनमें कोई बात जोड़ने के लिए स्वतंत्र होगा ।
(5) तब उस पर अभियुक्त और मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश हस्ताक्षर करेंगे और मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश अपने हस्ताक्षर से प्रमाणित करेगा कि परीक्षा उसकी उपस्थिति में की गई थी और उसने उसे सुना था और अभिलेख में अभियुक्त द्वारा किए गए कथन का पूर्ण और सही वर्णन है ।
(6) इस धारा की कोई बात संक्षिप्त विचारण के अनुक्रम में अभियुक्त की परीक्षा को लागू होने वाली न समझी जाएगी ।
282. दुभाषिया ठीक-ठीक भाषान्तर करने के लिए आबद्ध होगा-जब किसी साक्ष्य या कथन के भाषान्तर के लिए दुभाषिए की सेवा की किसी दंड न्यायालय द्वारा अपेक्षा की जाती है तब वह दुभाषिया ऐसे साक्ष्य या कथन का ठीक भाषान्तर करने के लिए आबद्ध होगा ।
283. उच्च न्यायालय में अभिलेख-प्रत्येक उच्च न्यायालय, साधारण नियम द्वारा ऐसी रीति विहित कर सकता है जिससे उन मामलों में साक्षियों के साक्ष्य को और अभियुक्त की परीक्षा को लिखा जाएगा जो उसके समक्ष आते हैं, और ऐसे साक्ष्य और परीक्षा को ऐसे नियम के अनुसार लिखा जाएगा ।
ख-साक्षियों की परीक्षा के लिए कमीशन
284. कब साक्षियों को हाजिर होने से अभिमुक्ति दी जाए और कमीशन जारी किया जाएगा-(1) जब कभी इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में, न्यायालय या मजिस्ट्रेट को प्रतीत होता है कि न्याय के उद्देश्यों के लिए यह आवश्यक है कि किसी साक्षी की परीक्षा की जाए और ऐसे साक्षी की हाजिरी इतने विलम्ब, व्यय या असुविधा के बिना, जितनी मामले की परिस्थितियों में अनुचित होगी, नहीं कराई जा सकती है तब न्यायालय या मजिस्ट्रेट ऐसी हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकता है और साक्षी की परीक्षा की जाने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार कमीशन जारी कर सकता है :
परन्तु जहां न्याय के उद्देश्यों के लिए भारत के राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल या किसी संघ राज्यक्षेत्र के प्रशासक की साक्षी के रूप में परीक्षा करना आवश्यक है वहां ऐसे साक्षी की परीक्षा करने के लिए कमीशन जारी किया जाएगा ।
(2) न्यायालय अभियोजन के किसी साक्षी की परीक्षा के लिए कमीशन जारी करते समय यह निदेश दे सकता है कि प्लीडर की फीस सहित ऐसी रकम जो न्यायालय अभियुक्त के व्ययों की पूर्ति के उचित समझे, अभियोजन द्वारा दी जाए ।
285. कमीशन किसको जारी किया जाएगा-(1) यदि साक्षी उन राज्यक्षेत्रों के अन्दर है, जिन पर इस संहिता का विस्तार है, तो कमीशन, यथास्थिति, उस महानगर मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को निदिष्ट होगा जिसकी स्थानीय अधिकारिता के अन्दर ऐसा साक्षी मिल सकता है ।
(2) यदि साक्षी भारत में है किन्तु ऐसे राज्य या ऐसे किसी क्षेत्र में है जिस पर इस संहिता का विस्तार नहीं है तो कमीशन ऐसे न्यायालय या अधिकारी को निदिष्ट होगा जिसे केन्द्रीय सरकार अधिसूचना द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे ।
(3) यदि साक्षी भारत से बाहर के देश या स्थान में है और ऐसे देश या स्थान की सरकार से केन्द्रीय सरकार ने आपराधिक मामलों के संबंध में साक्षियों का साक्ष्य लेने के लिए ठहराव कर रखे हैं तो कमीशन ऐसे प्ररूप में जारी किया जाएगा, ऐसे न्यायालय या अधिकारी को निदिष्ट होगा और पारेषित किए जाने के लिए ऐसे प्राधिकारी को भेजा जाएगा जो केन्द्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विहित करे ।
286. कमीशनों का निष्पादन-कमीशन प्राप्त होने पर मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अथवा ऐसा महानगर मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट जिसे वह इस निमित्त नियुक्त करे, साक्षी को अपने समक्ष आने के लिए समन करेगा अथवा उस स्थान को जाएगा जहां साक्षी है और उसका साक्ष्य उसी रीति से लिखेगा और इस प्रयोजन के लिए उन्हीं शक्तियों का प्रयोग कर सकेगा जो इस संहिता के अधीन वारंट-मामलों के विचारण के लिए हैं ।
287. पक्षकार साक्षियों की परीक्षा कर सकेंगे-(1) इस संहिता के अधीन किसी ऐसी कार्यवाही के पक्षकार, जिसमें कमीशन जारी किया गया है, अपने-अपने ऐसे लिखित परिप्रश्न भेज सकते हैं जिन्हें कमीशन का निदेश देने वाला न्यायालय या मजिस्ट्रेट विवाद्यक से सुसंगत समझता है और उस मजिस्ट्रेट, न्यायालय या अधिकारी के लिए, जिसे कमीशन निदिष्ट किया जाता है या जिसे उसके निष्पादन का कर्तव्य प्रत्यायोजित किया जाता है, यह विधिपूर्ण होगा कि वह ऐसे परिप्रश्नों के आधार पर साक्षी की परीक्षा करे ।
(2) कोई ऐसा पक्षकार ऐसे मजिस्ट्रेट, न्यायालय या अधिकारी के समक्ष प्लीडर द्वारा, या यदि अभिरक्षा में नहीं है तो स्वयं हाजिर हो सकता है और उक्त साक्षी की (यथास्थिति) परीक्षा, प्रतिपरीक्षा और पुनः परीक्षा कर सकता है ।
288. कमीशन का लौटाया जाना-(1) धारा 284 के अधीन जारी किए गए किसी कमीशन के सम्यक् रूप से निष्पादित किए जाने के पश्चात् वह उसके अधीन परीक्षित साक्षियों के अभिसाक्ष्य सहित उस न्यायालय या मजिस्ट्रेट को, जिसने कमीशन जारी किया था, लौटाया जाएगा; और वह कमीशन, उससे संबद्ध विवरणी और अभिसाक्ष्य सब उचित समयों पर पक्षकारों के निरीक्षण के लिए प्राप्य होंगे, और सब न्यायसंगत अपवादों के अधीन रहते हुए, किसी पक्षकार द्वारा मामले में साक्ष्य में पढ़े जा सकेंगे और अभिलेख का भाग होंगे ।
(2) यदि ऐसे लिया गया कोई अभिसाक्ष्य, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 33 द्वारा विहित शर्तों को पूरा करता है, तो वह किसी अन्य न्यायालय के समक्ष भी मामले के किसी पश्चात्वर्ती प्रक्रम में साक्ष्य में लिया जा सकेगा ।
289. कार्यवाही का स्थगन-प्रत्येक मामले में, जिसमें धारा 284 के अधीन कमीशन जारी किया गया है, जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही ऐसे विनिर्दिष्ट समय तक के लिए, जो कमीशन के निष्पादन और लौटाए जाने के लिए उचित रूप से पर्याप्त है, स्थगित की जा सकती है ।
290. विदेशी कमीशनों का निष्पादन-(1) धारा 286 के उपबंध और धारा 287 और धारा 288 के उतने भाग के उपबंध, जितना कमीशन का निष्पादन किए जाने और उसके लौटाए जाने से संबंधित है, इसमें इसके पश्चात् वर्णित किन्हीं न्यायालयों, न्यायाधीशों या मजिस्ट्रेटों द्वारा जारी किए गए कमीशनों के बारे में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे धारा 284 के अधीन जारी किए गए कमीशनों को लागू होते हैं ।
(2) उपधारा (1) में निर्दिष्ट न्यायालय, न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट निम्नलिखित हैं-
(क) भारत के ऐसे क्षेत्र के अन्दर, जिस पर इस संहिता का विस्तार नहीं है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाला ऐसा न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट जिसे केन्द्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे ;
(ख) भारत से बाहर के किसी ऐसे देश या स्थान में, जिसे केन्द्रीय सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, अधिकारिता का प्रयोग करने वाला और उस देश या स्थान में प्रवृत्त विधि के अधीन आपराधिक मामलों के संबंध में साक्षियों की परीक्षा के लिए कमीशन जारी करने का प्राधिकार रखने वाला न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट ।
291. चिकित्सीय साक्षी का अभिसाक्ष्य-(1) अभियुक्त की उपस्थिति में मजिस्ट्रेट द्वारा लिया गया और अनुप्रमाणित किया गया या इस अध्याय के अधीन कमीशन पर लिया गया, सिविल सर्जन या अन्य चिकित्सीय साक्षी का अभिसाक्ष्य इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य में दिया जा सकेगा, यद्यपि अभिसाक्षी को साक्षी के तौर पर नहीं बुलाया गया है ।
(2) यदि न्यायालय ठीक समझता है तो वह ऐसे किसी अभिसाक्षी को समन कर सकता है और उसके अभिसाक्ष्य की विषयवस्तु के बारे में उसकी परीक्षा कर सकता है और अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर वैसा करेगा ।
[291क. मजिस्ट्रेट की शिनाख्त रिपोर्ट-(1) कोई दस्तावेज, जिसका किसी व्यक्ति या सम्पत्ति के संबंध में किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट की स्वहस्ताक्षरित शिनाख्त रिपोर्ट होना तात्पर्यित है, इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में उपयोग में लाया जा सकेगा, यद्यपि ऐसे मजिस्ट्रेट को साक्षी के तौर पर नहीं बुलाया गया है :
परन्तु जहां ऐसी रिपोर्ट में ऐसे किसी संदिग्ध व्यक्ति या साक्षी का विवरण है, जिसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की, यथास्थिति, धारा 21, धारा 32, धारा 33, धारा 155 या धारा 157 के उपबंध लागू होते हैं, वहां, ऐसा विवरण इस उपधारा के अधीन, उन धाराओं के उपबंधों के अनुसार के सिवाय, प्रयोग में नहीं लाया जाएगा ।
(2) न्यायालय, यदि वह ठीक समझता है और अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर ऐसे मजिस्ट्रेट को समन कर सकेगा और उक्त रिपोर्ट की विषय-वस्तु के बारे में उसकी परीक्षा कर सकेगा और करेगा ।]
292. टकसाल के अधिकारियों का साक्ष्य-(1) कोई दस्तावेज, [जो, यथास्थिति, किसी टकसाल या नोट छपाई मुद्राणालय के या सिक्योरिटी प्रिंटिंग प्रेस के (जिसके अन्तर्गत स्टांप और लेखन सामग्री नियंत्रक का कार्यालय भी है) या न्याय संबंधी विभाग या न्यायालयिक प्रयोगशाला प्रभाग के ऐसे अधिकारी की या प्रश्नगत दस्तावेजों के सरकारी परीक्षक या प्रश्नगत दस्तावेजों के राज्य परीक्षक कीट जिसे केन्द्रीय सरकार अधिसूचना द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, इस संहिता के अधीन किसी कार्यवाही के दौरान परीक्षा और रिपोर्ट के लिए सम्यक् रूप से उसे भेजी गई किसी सामग्री या चीज के बारे में स्वहस्ताक्षरित रिपोर्ट होनी तात्पर्यित है, इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के तौर पर उपयोग में लाई जा सकेगी, यद्यपि ऐसे अधिकारी को साक्षी के तौर पर नहीं बुलाया गया है ।
(2) यदि न्यायालय ठीक समझता है तो वह ऐसे अधिकारी को समन कर सकता है और उसकी रिपोर्ट की विषयवस्तु के बारे में उसकी परीक्षा कर सकता है :
परन्तु ऐसा कोई अधिकारी किन्हीं ऐसे अभिलेखों को पेश करने के लिए समन नहीं किया जाएगा जिन पर रिपोर्ट आधारित है ।
(3) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) की धारा 123 और 124 के उपबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना यह है कि ऐसा कोई अधिकारी [यथास्थिति, किसी टकसाल या नोट छपाई मुद्राणालय या सिक्योरिटी प्रिंटिंग प्रेस या न्याय संबंधी विभाग के महाप्रबंधक या किसी अन्य भारसाधक अधिकारी या न्यायालयिक प्रयोगशाला के भारसाधक किसी अधिकारी या प्रश्नगत दस्तावेज संगठन के सरकारी परीक्षक या प्रश्नगत दस्तावेज संगठन के राज्य परीक्षक कीट अनुज्ञा के बिना,-
(क) ऐसे अप्रकाशित शासकीय अभिलेखों से, जिन पर रिपोर्ट आधारित है, प्राप्त कोई साक्ष्य देने के लिए अनुज्ञात नहीं किया जाएगा ; अथवा
(ख) किसी सामग्री या चीज की परीक्षा के दौरान उसके द्वारा किए गए परीक्षण के स्वरुप या विशिष्टियों को प्रकट करने के लिए अनुज्ञात नहीं किया जाएगा ।
293. कतिपय सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञों की रिपोर्टें-(1) कोई दस्तावेज, जो किसी सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञ की, जिसे यह धारा लागू होती है, इस संहिता के अधीन किसी कार्यवाही के दौरान परीक्षा या विश्लेषण और रिपोर्ट के लिए सम्यक् रूप से उसे भेजी गई किसी सामग्री या चीज के बारे में स्वहस्ताक्षरित रिपोर्ट होनी तात्पर्यित है, इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के तौर पर उपयोग में लाई जा सकेगी ।
(2) यदि न्यायालय ठीक समझता है तो वह ऐसे विशेषज्ञ को समन कर सकता है और उसकी रिपोर्ट की विषयवस्तु के बारे में उसकी परीक्षा कर सकेगा ।
(3) जहां ऐसे किसी विशेषज्ञ को न्यायालय द्वारा समन किया जाता है और वह स्वयं हाजिर होने में असमर्थ है वहां, उस दशा के सिवाय जिसमें न्यायालय ने उसे स्वयं हाजिर होने के लिए स्पष्ट रूप से निदेश दिया है, वह अपने साथ काम करने वाले किसी जिम्मेदार अधिकारी को न्यायालय में हाजिर होने के लिए प्रतिनियुक्त कर सकता है यदि वह अधिकारी मामले के तथ्यों से अवगत है तथा न्यायालय में उसकी ओर से समाधानप्रद रूप में अभिसाक्ष्य दे सकता है ।
(4) यह धारा निम्नलिखित सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञों को लागू होती है अर्थात् :-
(क) सरकार का कोई रासायनिक परीक्षक या सहायक रासायनिक परीक्षक ;
[(ख) मुख्य विस्फोटक नियंत्रकट ;
(ग) अंगुली-छाप कार्यालय निदेशक ;
(घ) निदेशक, हाफकीन संस्थान, मुम्बई ;
(ङ) किसी केन्द्रीय न्याय संबंधी विज्ञान-प्रयोगशाला या किसी राज्य न्याय संबंधी विज्ञान-प्रयोगशाला का निदेशक [उप-निदेशक या सहायक निदेशक] ;
(च) सरकारी सीरम विज्ञानी ;
[(छ) कोई अन्य सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञ, जो इस प्रयोजन के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा, अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट किया गया हो ।]
294. कुछ दस्तावेजों का औपचारिक सबूत आवश्यक न होना-(1) जहां अभियोजन या अभियुक्त द्वारा किसी न्यायालय के समक्ष कोई दस्तावेज फाइल की गई है वहां ऐसी प्रत्येक दस्तावेज की विशिष्टियां एक सूची में सम्मिलित की जाएंगी और, यथास्थिति, अभियोजन या अभियुक्त अथवा अभियोजन या अभियुक्त के प्लीडर से, यदि कोई हों, ऐसी प्रत्येक दस्तावेज का असली होना स्वीकार या इंकार करने की अपेक्षा की जाएगी ।
(2) दस्तावेजों की सूची ऐसे प्ररूप में होगी जो राज्य सरकार द्वारा विहित किया जाए ।
(3) जहां किसी दस्तावेज का असली होना विवादग्रस्त नहीं है वहां ऐसी दस्तावेज उस व्यक्ति के जिसके द्वारा उसका हस्ताक्षरित होना तात्पर्यित है, हस्ताक्षर के सबूत के बिना इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य में पढ़ी जा सकेगी :
परन्तु न्यायालय, स्वविवेकानुसार, यह अपेक्षा कर सकता है कि ऐसे हस्ताक्षर साबित किए जाएं ।
295. लोक सेवकों के आचरण के सबूत के बारे में शपथपत्र-जब किसी न्यायालय में इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के दौरान कोई आवेदन किया जाता है और उसमें किसी लोक सेवक के बारे में अभिकथन किए जाते हैं तब आवेदक आवेदन में अभिकथित तथ्यों का शपथपत्र द्वारा साक्ष्य दे सकता है और यदि न्यायालय ठीक समझे तो वह आदेश दे सकता है कि ऐसे तथ्यों से संबंधित साक्ष्य इस प्रकार दिया जाए ।
296. शपथपत्र पर औपचारिक साक्ष्य-(1) किसी भी व्यक्ति का ऐसा साक्ष्य जो औपचारिक है शपथपत्र द्वारा दिया जा सकता है और, सब न्यायसंगत अपवादों के अधीन रहते हुए, इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है ।
(2) यदि न्यायालय ठीक समझे तो वह किसी व्यक्ति को समन कर सकता है और उसके शपथपत्र में अन्तर्विष्ट तथ्यों के बारे में उसकी परीक्षा कर सकता है किन्तु अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर ऐसा करेगा ।
297. प्राधिकारी जिनके समक्ष शपथपत्रों पर शपथ ग्रहण किया जा सकेगा-(1) इस संहिता के अधीन किसी न्यायालय के समक्ष उपयोग में लाए जाने वाले शपथपत्रों पर शपथ ग्रहण या प्रतिज्ञान निम्नलिखित के समक्ष किया जा सकता है-
[(क) कोई न्यायाधीश या कोई न्यायिक या कार्यपालक मजिस्ट्रेट ; अथवा]
(ख) उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा नियुक्त कोई शपथ कमिश्नर ; अथवा
(ग) नोटरी अधिनियम, 1952 (1952 का 53) के अधीन नियुक्त कोई नोटरी ।
(2) शपथपत्र ऐसे तथ्यों तक, जिन्हें अभिसाक्षी स्वयं अपनी जानकारी से साबित करने के लिए समर्थ है और ऐसे तथ्यों तक जिनके सत्य होने का विश्वास करने के लिए उसके पास उचित आधार है, सीमित होंगे और उनमें उनका कथन अलग-अलग होगा तथा विश्वास के आधारों की दशा में अभिसाक्षी ऐसे विश्वास के आधारों का स्पष्ट कथन करेगा ।
(3) न्यायालय शपथपत्र में किसी कलंकात्मक और विसंगत बात के काटे जाने या संशोधित किए जाने का आदेश दे सकेगा ।
298. पूर्व दोषसिद्धि या दोषमुक्ति कैसे साबित की जाए-पूर्व दोषसिद्धि या दोषमुक्ति को, इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में, किसी अन्य ऐसे ढंग के अतिरिक्त, जो तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा उपबंधित है,-
(क) ऐसे उद्धरण द्वारा, जिसका उस न्यायालय के, जिसमें ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति हुई, अभिलेखों को अभिरक्षा में रखने वाले अधिकारी के हस्ताक्षर द्वारा प्रमाणित उस दंडादेश या आदेश की प्रतिलिपि होना है ; अथवा
(ख) दोषसिद्धि की दशा में, या तो ऐसे प्रमाणपत्र द्वारा, जो उस जेल के भारसाधक अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित है जिसमें दंड या उसका कोई भाग भोगा गया या सुपुर्दगी के उस वारंट को पेश करके, जिनके अधीन दंड भोगा गया था,
और इन दशाओं में से प्रत्येक में इस बात के साक्ष्य के साथ कि अभियुक्त व्यक्ति वही व्यक्ति है जो ऐसे दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया गया, साबित किया जा सकेगा ।
299. अभियुक्त की अनुपस्थिति में साक्ष्य का अभिलेख-(1) यदि यह साबित कर दिया जाता है कि अभियुक्त व्यक्ति फरार हो गया है और उसके तुरन्त गिरफ्तार किए जाने की कोई सम्भावना नहीं है तो उस अपराध के लिए, जिसका परिवाद किया गया है, उस व्यक्ति का [विचारण करने के लिए या विचारण के लिए सुपुर्द करने के लिए सक्षमट न्यायालय अभियोजन की ओर से पेश किए गए साक्षियों की (यदि कोई हों), उसकी अनुपस्थिति में परीक्षा कर सकता है और उनका अभिसाक्ष्य अभिलिखित कर सकता है और ऐसा कोई अभिसाक्ष्य उस व्यक्ति के गिरफ्तार होने पर, उस अपराध की जांच या विचारण में, जिसका उस पर आरोप है, उसके विरुद्ध साक्ष्य में दिया जा सकता है यदि अभिसाक्षी मर गया है, या साक्ष्य देने के लिए असमर्थ है, या मिल नहीं सकता है या उसकी हाजिरी इतने विलम्ब, व्यय या असुविधा के बिना, जितनी कि मामले की परिस्थितियों में अनुचित होगी, नहीं कराई जा सकती है ।
(2) यदि यह प्रतीत होता है कि मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय कोई अपराध किसी अज्ञात व्यक्ति या किन्हीं अज्ञात व्यक्तियों द्वारा किया गया है तो उच्च न्यायालय या सेशन न्यायाधीश निदेश दे सकता है कि कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट जांच करे और किन्हीं साक्षियों की जो अपराध के बारे में साक्ष्य दे सकते हों, परीक्षा करे और ऐसे लिया गया कोई अभिसाक्ष्य, किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जिस पर अपराध का तत्पश्चात् अभियोग लगाया जाता है, साक्ष्य में दिया जा सकता है यदि अभिसाक्षी मर जाता है या साक्ष्य देने के लिए असमर्थ हो जाता है या भारत की सीमाओं से परे है ।
अध्याय 24
जांचों तथा विचारणों के बारे में साधारण उपबंध
300. एक बार दोषसिद्ध या दोषमुक्त किए गए व्यक्ति का उसी अपराध के लिए विचारण न किया जाना-(1) जिस व्यक्ति का किसी अपराध के लिए सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा एक बार विचारण किया जा चुका है और जो ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया जा चुका है, वह पुनः जब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति प्रवृत्त रहती है तब तक न तो उसी अपराध के लिए विचारण का भागी होगा और न उन्हीं तथ्यों पर किसी ऐसे अन्य अपराध के लिए विचारण का भागी होगा जिसके लिए उसके विरुद्ध लगाए गए आरोप से भिन्न आरोप धारा 221 की उपधारा (1) के अधीन लगाया जा सकता था या जिसके लिए वह उसकी उपधारा (2) के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकता था ।
(2) किसी अपराध के लिए दोषमुक्त या दोषसिद्ध किए गए किसी व्यक्ति का विचारण, तत्पश्चात् राज्य सरकार की सम्मति से किसी ऐसे भिन्न अपराध के लिए किया जा सकता है जिसके लिए पूर्वगामी विचारण में उसके विरुद्ध धारा 220 की उपधारा (1) के अधीन पृथक् आरोप लगाया जा सकता था ।
(3) जो व्यक्ति किसी ऐसे कार्य से बनने वाले किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया गया है, जो ऐसे परिणाम पैदा करता है जो उस कार्य से मिलकर उस अपराध से, जिसके लिए वह सिद्धदोष हुआ, भिन्न कोई अपराध बनाते हैं, उसका ऐसे अन्तिम वर्णित अपराध के लिए तत्पश्चात् विचारण किया जा सकता है, यदि उस समय जब वह दोषसिद्ध किया गया था वे परिणाम हुए नहीं थे या उनका होना न्यायालय को ज्ञात नहीं था ।
(4) जो व्यक्ति किन्हीं कार्यों से बनने वाले किसी अपराध के लिए दोषमुक्त या दोषसिद्ध किया गया है, उस पर ऐसी दोषमुक्ति या दोषसिद्धि के होने पर भी, उन्हीं कार्यों से बनने वाले और उसके द्वारा किए गए किसी अन्य अपराध के लिए तत्पश्चात् आरोप लगाया जा सकता है और उसका विचारण किया जा सकता है, यदि वह न्यायालय, जिसके द्वारा पहले उसका विचारण किया गया था, उस अपराध के विचारण के लिए सक्षम नहीं था जिसके लिए बाद में उस पर आरोप लगाया जाता है ।
(5) धारा 258 के अधीन उन्मोचित किए गए व्यक्ति का उसी अपराध के लिए पुनः विचारण उस न्यायालय की, जिसके द्वारा वह उन्मोचित किया गया था, या अन्य किसी ऐसे न्यायालय की, जिसके प्रथम वर्णित न्यायालय अधीनस्थ है, सम्मति के बिना नहीं किया जाएगा ।
(6) इस धारा की कोई बात साधारण खंड अधिनियम, 1897 (1897 का 10) की धारा 26 के या इस संहिता की धारा 188 के उपबंधों पर प्रभाव न डालेगी ।
स्पष्टीकरण-परिवाद का खारिज किया जाना या अभियुक्त का उन्मोचन इस धारा के प्रयोजन के लिए दोषमुक्ति नहीं है ।
दृष्टांत
(क) क का विचारण सेवक की हैसियत में चोरी करने के आरोप पर किया जाता है और वह दोषमुक्त कर दिया जाता है । जब तक दोषमुक्ति प्रवृत्त रहे, उस पर सेवक के रूप में चोरी के लिए या उन्हीं तथ्यों पर केवल चोरी के लिए या आपराधिक न्यासभंग के लिए बाद में आरोप नहीं लगाया जा सकता ।
(ख) घोर उपहति कारित करने के लिए क का विचारण किया जाता है और वह दोषसिद्ध किया जाता है । क्षत व्यक्ति तत्पश्चात् मर जाता है । आपराधिक मानववध के लिए क का पुनः विचारण किया जा सकेगा ।
(ग) ख के आपराधिक मानववध के लिए क पर सेशन न्यायालय के समक्ष आरोप लगाया जाता है और वह दोषसिद्ध किया जाता है । ख की हत्या के लिए क का उन्हीं तथ्यों पर तत्पश्चात् विचारण नहीं किया जा सकेगा ।
(घ) ख को स्वेच्छा से उपहति कारित करने के लिए क पर प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा आरोप लगाया जाता है और वह दोषसिद्ध किया जाता है । ख को स्वेच्छा से घोर उपहति कारित करने के लिए क का उन्हीं तथ्यों पर तत्पश्चात् विचारण नहीं किया जा सकेगा जब तक कि मामला इस धारा की उपधारा (3) के अन्दर न आए ।
(ङ) ख के शरीर से सम्पत्ति की चोरी करने के लिए क पर द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा आरोप लगाया जाता है और वह दोषसिद्ध किया जाता है । उन्हीं तथ्यों पर तत्पश्चात् क पर लूट का आरोप लगाया जा सकेगा और उसका विचारण किया जा सकेगा ।
(च) घ को लूटने के लिए क, ख और ग पर प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा आरोप लगाया जाता है और वे दोषसिद्ध किए जाते हैं । डकैती के लिए उन्हीं तथ्यों पर तत्पश्चात् क, ख और ग पर आरोप लगाया जा सकेगा और उनका विचारण किया जा सकेगा ।
301. लोक अभियोजकों द्वारा हाजिरी-(1) किसी मामले का भारसाधक लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक किसी न्यायालय में, जिसमें वह मामला जांच, विचारण या अपील के अधीन है, किसी लिखित प्राधिकार के बिना हाजिर हो सकता है और अभिवचन कर सकता है ।
(2) किसी ऐसे मामले में यदि कोई प्राइवेट व्यक्ति किसी न्यायालय में किसी व्यक्ति को अभियोजित करने के लिए किसी प्लीडर को अनुदेश देता है तो मामले का भारसाधक लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक अभियोजन का संचालन करेगा और ऐसे अनुदिष्ट प्लीडर उसमें लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक के निदेश के अधीन कार्य करेगा और न्यायालय की अनुज्ञा से उस मामले में साक्ष्य की समाप्ति पर लिखित रूप में तर्क पेश कर सकेगा ।
302. अभियोजन का संचालन करने की अनुज्ञा-(1) किसी मामले की जांच या विचारण करने वाला कोई मजिस्ट्रेट निरीक्षक की पंक्ति से नीचे के पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी भी व्यक्ति द्वारा अभियोजन के संचालित किए जाने की अनुज्ञा दे सकता है ; किन्तु महाधिवक्ता या सरकारी अधिवक्ता या लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक से भिन्न कोई व्यक्ति ऐसी अनुज्ञा के बिना ऐसा करने का हकदार न होगा :
परन्तु यदि पुलिस के किसी अधिकारी ने उस अपराध के अन्वेषण में, जिसके बारे में अभियुक्त का अभियोजन किया जा रहा है, भाग लिया है तो अभियोजन का संचालन करने की उसे अनुज्ञा न दी जाएगी ।
(2) अभियोजन का संचालन करने वाला कोई व्यक्ति स्वयं या प्लीडर द्वारा ऐसा कर सकता है ।
303. जिस व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही संस्थित की गई है उसका प्रतिरक्षा कराने का अधिकार-जो व्यक्ति दंड न्यायालय के समक्ष अपराध के लिए अभियुक्त है या जिसके विरुद्ध इस संहिता के अधीन कार्यवाही संस्थित की गई है, उसका यह अधिकार होगा कि उसकी पसंद के प्लीडर द्वारा उसकी प्रतिरक्षा की जाए ।
304. कुछ मामलों में अभियुक्त को राज्य के व्यय पर विधिक सहायता-(1) जहां सेशन न्यायालय के समक्ष किसी विचारण में, अभियुक्त का प्रतिनिधित्व किसी प्लीडर द्वारा नहीं किया जाता है और जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त के पास किसी प्लीडर को नियुक्त करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है, वहां न्यायालय उसकी प्रतिरक्षा के लिए राज्य के व्यय पर प्लीडर उपलब्ध करेगा ।
(2) राज्य सरकार के पूर्व अनुमोदन से उच्च न्यायालय-
(क) उपधारा (1) के अधीन प्रतिरक्षा के लिए प्लीडरों के चयन के ढंग का,
(ख) ऐसे प्लीडरों को न्यायालयों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का,
(ग) ऐसे प्लीडरों को सरकार द्वारा संदेय फीसों का और साधारणतः उपधारा (1) के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए,
उपबंध करने वाले नियम बना सकता है ।
(3) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा यह निदेश दे सकती है कि उस तारीख से, जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाए, उपधारा (1) और (2) के उपबंध राज्य के अन्य न्यायालयों के समक्ष किसी वर्ग के विचारणों के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे सेशन न्यायालय के समक्ष विचारणों के संबंध में लागू होते हैं ।
305. प्रक्रिया, जब निगम या रजिस्ट्रीकृत सोसाइटी अभियुक्त है-(1) इस धारा में निगम" से कोई निगमित कम्पनी या अन्य निगमित निकाय अभिप्रेत है, और इसके अंतर्गत सोसाइटी रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1860 (1860 का 21) के अधीन रजिस्ट्रीकृत सोसाइटी भी है ।
(2) जहां कोई निगम किसी जांच या विचारण में अभियुक्त व्यक्ति या अभियुक्त व्यक्तियों में से एक है वहां वह ऐसी जांच या विचारण के प्रयोजनार्थ एक प्रतिनिधि नियुक्त कर सकता है और ऐसी नियुक्ति निगम की मुद्रा के अधीन करना आवश्यक नहीं होगा ।
(3) जहां निगम का कोई प्रतिनिधि हाजिर होता है, वहां इस संहिता की इस अपेक्षा का कि कोई बात अभियुक्त की हाजिरी में की जाएगी या अभियुक्त को पढ़कर सुनाई जाएगी या बताई जाएगी या समझाई जाएगी, इस अपेक्षा के रूप में अर्थ लगाया जाएगा कि वह बात प्रतिनिधि की हाजिरी में की जाएगी, प्रतिनिधि को पढ़कर सुनाई जाएगी या बताई जाएगी या समझाई जाएगी और किसी ऐसी अपेक्षा का कि अभियुक्त की परीक्षा की जाएगी, इस अपेक्षा के रूप में अर्थ लगाया जाएगा कि प्रतिनिधि की परीक्षा की जाएगी ।
(4) जहां निगम का कोई प्रतिनिधि हाजिर नहीं होता है, वहां कोई ऐसी अपेक्षा, जो उपधारा (3) में निर्दिष्ट है, लागू नहीं होगी ।
(5) जहां निगम के प्रबंध निदेशक द्वारा या किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा (वह चाहे जिस नाम से पुकारा जाता हो) जो निगम के कार्यकलाप का प्रबंध करता है या प्रबंध करने वाले व्यक्तियों में से एक है, हस्ताक्षर किया गया तात्पर्यित इस भाव का लिखित कथन फाइल किया जाता है कि कथन में नामित व्यक्ति को इस धारा के प्रयोजनों के लिए निगम के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया है, वहां न्यायालय, जब तक इसके प्रतिकूल साबित नहीं किया जाता है, यह उपधारणा करेगा कि ऐसा व्यक्ति इस प्रकार नियुक्त किया गया है ।
(6) यदि यह प्रश्न उठता है कि न्यायालय के समक्ष किसी जांच या विचारण में निगम के प्रतिनिधि के रूप में हाजिर होने वाला कोई व्यक्ति ऐसा प्रतिनिधि है या नहीं, तो उस प्रश्न का अवधारण न्यायालय द्वारा किया जाएगा ।
306. सह-अपराधी को क्षमा-दान-(1) किसी ऐसे अपराध से, जिसे यह धारा लागू होती है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में संबद्ध या संसर्गित समझे जाने वाले किसी व्यक्ति का साक्ष्य अभिप्राप्त करने की दृष्टि से, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट अपराध के अन्वेषण या जांच या विचारण के किसी प्रक्रम में, और अपराध की जांच या विचारण करने वाला प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट जांच या विचारण के किसी प्रक्रम में उस व्यक्ति को इस शर्त पर क्षमा-दान कर सकता है कि वह अपराध के संबंध में और उसके किए जाने में चाहे कर्ता या दुष्प्रेरक के रूप में संबद्ध प्रत्येक अन्य व्यक्ति के संबंध में सब परिस्थितियों का, जिनकी उसे जानकारी हो, पूर्ण और सत्य प्रकटन कर दे ।
(2) यह धारा निम्नलिखित को लागू होती है :-
(क) अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा या दंड विधि संशोधन अधिनियम, 1952 (1952 का 46) के अधीन नियुक्त विशेष न्यायाधीश के न्यायालय द्वारा विचारणीय कोई अपराध ;
(ख) ऐसे कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो या अधिक कठोर दंड से दंडनीय कोई अपराध ।
(3) प्रत्येक मजिस्ट्रेट, जो उपधारा (1) के अधीन क्षमा-दान करता है,-
(क) ऐसा करने के अपने कारणों को अभिलिखित करेगा ;
(ख) यह अभिलिखित करेगा कि क्षमा-दान उस व्यक्ति द्वारा, जिसको कि वह किया गया था स्वीकार कर लिया गया था या नहीं,
और अभियुक्त द्वारा आवेदन किए जाने पर उसे ऐसे अभिलेख की प्रतिलिपि निःशुल्क देगा ।
(4) उपधारा (1) के अधीन क्षमा-दान स्वीकार करने वाले-
(क) प्रत्येक व्यक्ति की अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट के न्यायालय में और पश्चात्वर्ती विचारण में यदि कोई हो, साक्षी के रूप में परीक्षा की जाएगी ;
(ख) प्रत्येक व्यक्ति को, जब तक कि वह पहले से ही जमानत पर न हो, विचारण खत्म होने तक अभिरक्षा में निरुद्ध रखा जाएगा ।
(5) जहां किसी व्यक्ति ने उपधारा (1) के अधीन किया गया क्षमा-दान स्वीकार कर लिया है और उसकी उपधारा (4) के अधीन परीक्षा की जा चुकी है, वहां अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट, मामले में कोई अतिरिक्त जांच किए बिना, -
(क) मामले को-
(i) यदि अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है या यदि संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट है तो, उस न्यायालय को सुपुर्द कर देगा ;
(ii) यदि अपराध अनन्यतः दंड विधि संशोधन अधिनियम, 1952 (1952 का 46) के अधीन नियुक्त विशेष न्यायाधीश के न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो उस न्यायालय को सुपुर्द कर देगा ;
(ख) किसी अन्य दशा में, मामला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के हवाले करेगा जो उसका विचारण स्वयं करेगा ।
307. क्षमा-दान का निदेश देने की शक्ति-मामले की सुपुर्दगी के पश्चात् किसी समय किन्तु निर्णय दिए जाने के पूर्व वह न्यायालय जिसे मामला सुपुर्द किया जाता है किसी ऐसे अपराध से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सम्बद्ध या संसर्गित समझे जाने वाले किसी व्यक्ति का साक्ष्य विचारण में अभिप्राप्त करने की दृष्टि से उस व्यक्ति को उसी शर्त पर क्षमा-दान कर सकता है ।
308. क्षमा की शर्तों का पालन न करने वाले व्यक्ति का विचारण-(1) जहां ऐसे व्यक्ति के बारे में जिसने धारा 306 या धारा 307 के अधीन क्षमा-दान स्वीकार कर लिया है, लोक अभियोजक प्रमाणित करता है कि उसकी राय में ऐसे व्यक्ति ने या तो किसी अत्यावश्यक बात को जानबूझकर छिपा कर या मिथ्या साक्ष्य देकर उस शर्त का पालन नहीं किया है जिस पर क्षमा-दान किया गया था वहां ऐसे व्यक्ति का विचारण उस अपराध के लिए, जिसके बारे में ऐसे क्षमा-दान किया गया था या किसी अन्य अपराध के लिए, जिसका वह उस विषय के संबंध में दोषी प्रतीत होता है, और मिथ्या साक्ष्य के भी अपराध के लिए भी विचारण किया जा सकता है :
परन्तु ऐसे व्यक्ति का विचारण अन्य अभियुक्तों में से किसी के साथ संयुक्ततः नहीं किया जाएगा :
परन्तु यह और कि मिथ्या साक्ष्य देने के अपराध के लिए ऐसे व्यक्ति का विचारण उच्च न्यायालय की मंजूरी के बिना नहीं किया जाएगा और धारा 195 या धारा 340 की कोई बात उस अपराध को लागू न होगी ।
(2) क्षमा-दान स्वीकार करने वाले ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया और धारा 164 के अधीन किसी मजिस्ट्रेट द्वारा या धारा 306 की उपधारा (4) के अधीन किसी न्यायालय द्वारा अभिलिखित कोई कथन ऐसे विचारण में उसके विरुद्ध साक्ष्य में दिया जा सकता है ।
(3) ऐसे विचारण में अभियुक्त यह अभिवचन करने का हकदार होगा कि उसने उन शर्तों का पालन कर दिया है जिन पर उसे क्षमा-दान दिया गया था, और तब यह साबित करना अभियोजन का काम होगा कि ऐसी शर्तों का पालन नहीं किया गया है ।
(4) ऐसे विचारण के समय न्यायालय-
(क) यदि वह सेशन न्यायालय है तो आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाए जाने और समझाए जाने के पूर्व ;
(ख) यदि वह मजिस्ट्रेट का न्यायालय है तो अभियोजन के साक्षियों का साक्ष्य लिए जाने के पूर्व,
अभियुक्त से पूछेगा कि क्या वह यह अभिवचन करता है कि उसने उन शर्तों का पालन किया है जिन पर उसे क्षमा-दान दिया गया था ।
(5) यदि अभियुक्त ऐसा अभिवचन करता है तो न्यायालय उस अभिवाक् को अभिलिखित करेगा और विचारण के लिए अग्रसर होगा और वह मामले में निर्णय देने के पूर्व इस विषय में निष्कर्ष निकालेगा कि अभियुक्त ने क्षमा की शर्तों का पालन किया है या नहीं ; और यदि यह निष्कर्ष निकलता है कि उसने ऐसा पालन किया है तो वह इस संहिता में किसी बात के होते हुए भी, दोषमुक्ति का :टनिर्णय देगा ।
309. कार्यवाही को मुल्तवी या स्थगित करने की शक्ति- [(1) प्रत्येक जांच या विचारण में कार्यवाहियां सभी हाजिर साक्षियों की परीक्षा हो जाने तक दिन-प्रतिदिन जारी रखी जाएंगी, जब तक कि ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, न्यायालय उन्हें अगले दिन से परे स्थगित करना आवश्यक न समझे :
परन्तु जब जांच या विचारण भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग या धारा 376घ के अधीन किसी अपराध से संबंधित है, तब जांच या विचारण, यथासंभव आरोप पत्र फाइल किए जाने की तारीख से दो मास की अवधि के भीतर पूरा किया जाएगा ।]
(2) यदि न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान करने या विचारण के प्रारंभ होने के पश्चात् यह आवश्यक या उचित समझता है कि किसी जांच या विचारण का प्रारंभ करना मुल्तवी कर दिया जाए या उसे स्थगित कर दिया जाए तो वह, समय-समय पर, ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, ऐसे निबन्धनों पर, जैसे वह ठीक समझे, उतने समय के लिए जितना वह उचित समझे उसे मुल्तवी या स्थगित कर सकता है और यदि अभियुक्त अभिरक्षा में है तो उसे वारण्ट द्वारा प्रतिप्रेषित कर सकता है :
परन्तु कोई मजिस्ट्रेट किसी अभियुक्त को इस धारा के अधीन एक समय में पन्द्रह दिन से अधिक की अवधि के लिए अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित न करेगा :
परन्तु यह और कि जब साक्षी हाजिर हों तब उनकी परीक्षा किए बिना स्थगन या मुल्तवी करने की मंजूरी विशेष कारणों के बिना, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, नहीं दी जाएगी :
[परन्तु यह भी कि कोई स्थगन केवल इस प्रयोजन के लिए नहीं मंजूर किया जाएगा कि वह अभियुक्त व्यक्ति को उस पर अधिरोपित किए जाने के लिए प्रस्थापित दंडादेश के विरुद्ध हेतुक दर्शित करने में समर्थ बनाए :]
[परंतु यह भी कि-
(क) कोई भी स्थगन किसी पक्षकार के अनुरोध पर तभी मंजूर किया जाएगा, जब परिस्थितियां उस पक्षकार के नियंत्रण से परे हों ;
(ख) यह तथ्य कि पक्षकार का प्लीडर किसी अन्य न्यायालय में व्यस्त है, स्थगन के लिए आधार नहीं होगा ;
(ग) जहां साक्षी न्यायालय में हाजिर है किंतु पक्षकार या उसका प्लीडर हाजिर नहीं है या पक्षकार या उसका प्लीडर न्यायालय में हाजिर तो है, किंतु साक्षी की परीक्षा या प्रतिपरीक्षा करने के लिए तैयार नहीं है वहां यदि न्यायालय ठीक समझता है तो वह साक्षी का कथन अभिलिखित कर सकेगा और ऐसे आदेश पारित कर सकेगा, जो, यथास्थिति, साक्षी की मुख्य परीक्षा या प्रतिपरीक्षा से छूट देने के लिए ठीक समझे ।]
स्पष्टीकरण 1-यदि यह संदेह करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य प्राप्त कर लिया गया है कि हो सकता है कि अभियुक्त ने अपराध किया है और यह संभाव्य प्रतीत होता है कि प्रतिप्रेषण करने पर अतिरिक्त साक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है तो यह प्रतिप्रेषण के लिए एक उचित कारण होगा ।
स्पष्टीकरण 2-जिन निबंधनों पर कोई स्थगन या मुल्तवी करना मंजूर किया जा सकता है, उनके अन्तर्गत समुचित मामलों में अभियोजन या अभियुक्त द्वारा खर्चों का दिया जाना भी है ।
310. स्थानीय निरीक्षण-(1) कोई न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी प्रक्रम में, पक्षकारों को सम्यक् सूचना देने के पश्चात् किसी स्थान में, जिसमें अपराध का किया जाना अभिकथित है, या किसी अन्य स्थान में जा सकता है और उसका निरीक्षण कर सकता है, जिसके बारे में उसकी राय है कि उसका अवलोकन ऐसी जांच या विचारण में दिए गए साक्ष्य का उचित विवेचन करने के प्रयोजन से आवश्यक है और ऐसे निरीक्षण में देखे गए किन्हीं सुसंगत तथ्यों का ज्ञापन, अनावश्यक विलम्ब के बिना, लेखबद्ध करेगा ।
(2) ऐसा ज्ञापन मामले के अभिलेख का भाग होगा और यदि अभियोजक, परिवादी या अभियुक्त या मामले का अन्य कोई पक्षकार ऐसा चाहे तो उसे ज्ञापन की प्रतिलिपि निःशुल्क दी जाएगी ।
311. आवश्यक साक्षी को समन करने या उपस्थित व्यक्ति की परीक्षा करने की शक्ति-कोई न्यायालय इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी प्रक्रम में किसी व्यक्ति को साक्षी के तौर पर समन कर सकता है या किसी ऐसे व्यक्ति की, जो हाजिर हो, यद्यपि वह साक्षी के रूप में समन न किया गया हो, परीक्षा कर सकता है, किसी व्यक्ति को, जिसकी पहले परीक्षा की जा चुकी है पुनः बुला सकता है और उसकी पुनः परीक्षा कर सकता है ; और यदि न्यायालय को मामले के न्यायसंगत विनिश्चय के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक प्रतीत होता है तो वह ऐसे व्यक्ति को समन करेगा और उसकी परीक्षा करेगा या उसे पुनः बुलाएगा और उसकी पुनः परीक्षा करेगा ।
[311क. नमूना हस्ताक्षर या हस्तलेख देने के लिए किसी व्यक्ति को आदेश देने की मजिस्ट्रेट की शक्ति-यदि प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट का यह समाधान हो जाता है कि इस संहिता के अधीन किसी अन्वेषण या कार्यवाही के प्रयोजनों के लिए, किसी व्यक्ति को, जिसके अन्तर्गत अभियुक्त व्यक्ति भी है, नमूना हस्ताक्षर या हस्तलेख देने के लिए निर्देश देना समीचीन है, तो वह उस आशय का आदेश कर सकेगा और उस दशा में, वह व्यक्ति, जिससे आदेश संबंधित है, ऐसे आदेश में विनिर्दिष्ट समय और स्थान पर पेश किया जाएगा या वहां उपस्थित होगा और अपने नमूना हस्ताक्षर या हस्तलेख देगा :
परन्तु इस धारा के अधीन कोई आदेश तब तक नहीं किया जाएगा जब तक उस व्यक्ति को ऐसे अन्वेषण या कार्यवाही के संबंध में किसी समय गिरफ्तार न किया गया हो ।]
312. परिवादियों और साक्षियों के व्यय-राज्य सरकार द्वारा बनाए गए किन्हीं नियमों के अधीन रहते हुए, यदि कोई दंड न्यायालय ठीक समझता है तो वह ऐसे न्यायालय के समक्ष इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के प्रयोजन से हाजिर होने वाले किसी परिवादी या साक्षी के उचित व्ययों के राज्य सरकार द्वारा दिए जाने के लिए आदेश दे सकता है ।
313. अभियुक्त की परीक्षा करने की शक्ति-(1) प्रत्येक जांच या विचारण में, इस प्रयोजन से कि अभियुक्त अपने विरुद्ध साक्ष्य में प्रकट होने वाली किन्हीं परिस्थितियों का स्वयं स्पष्टीकरण कर सके, न्यायालय-
(क) किसी प्रक्रम में, अभियुक्त को पहले से चेतावनी दिए बिना, उससे ऐसे प्रश्न कर सकता है जो न्यायालय आवश्यक समझे ;
(ख) अभियोजन के साक्षियों की परीक्षा किए जाने के पश्चात् और अभियुक्त से अपनी प्रतिरक्षा करने की अपेक्षा किए जाने के पूर्व उस मामले के बारे में उससे साधारणतया प्रश्न करेगा :
परन्तु किसी समन-मामले में, जहां न्यायालय ने अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे दी है, वहां वह खंड (ख) के अधीन उसकी परीक्षा से भी अभिमुक्ति दे सकता है ।
(2) जब अभियुक्त की उपधारा (1) के अधीन परीक्षा की जाती है तब उसे कोई शपथ न दिलाई जाएगी ।
(3) अभियुक्त ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने से इंकार करने से या उसके मिथ्या उत्तर देने से दंडनीय न हो जाएगा ।
(4) अभियुक्त द्वारा दिए गए उत्तरों पर उस जांच या विचारण में विचार किया जा सकता है और किसी अन्य ऐसे अपराध की, जिसका उसके द्वारा किया जाना दर्शाने की उन उत्तरों की प्रवृत्ति हो, किसी अन्य जांच या विचारण में ऐसे उत्तरों को उसके पक्ष में या उसके विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर रखा जा सकता है ।
[(5) न्यायालय ऐसे सुसंगत प्रश्न तैयार करने में, जो अभियुक्त से पूछे जाने हैं, अभियोजक और प्रतिरक्षा काउंसेल की सहायता ले सकेगा और न्यायालय इस धारा के पर्याप्त अनुपालन के रूप में अभियुक्त द्वारा लिखित कथन फाइल किए जाने की अनुज्ञा दे सकेगा ।]
314. मौखिक बहस और बहस का ज्ञापन-(1) कार्यवाही का कोई पक्षकार, अपने साक्ष्य की समाप्ति के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र संक्षिप्त मौखिक बहस कर सकता है और अपनी मौखिक बहस, यदि कोई हो, पूरी करने के पूर्व, न्यायालय को एक ज्ञापन दे सकता है जिसमें उसके पक्ष के समर्थन में तर्क संक्षेप में और सुभिन्न शीर्षकों में दिए जाएंगे, और ऐसा प्रत्येक ज्ञापन अभिलेख का भाग होगा ।
(2) ऐसे प्रत्येक ज्ञापन की एक प्रतिलिपि उसी समय विरोधी पक्षकार को दी जाएगी ।
(3) कार्यवाही का कोई स्थगन लिखित बहस फाइल करने के प्रयोजन के लिए तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक न्यायालय ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, ऐसा स्थगन मंजूर करना आवश्यक न समझे ।
(4) यदि न्यायालय की यह राय है कि मौखिक बहस संक्षिप्त या सुसंगत नहीं है तो वह ऐसी बहसों को विनियमित कर सकता है ।
315. अभियुक्त व्यक्ति का सक्षम साक्षी होना-(1) कोई व्यक्ति, जो किसी अपराध के लिए किसी दंड न्यायालय के समक्ष अभियुक्त है, प्रतिरक्षा के लिए सक्षम साक्षी होगा और अपने विरुद्ध या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरुद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य दे सकता है :
परन्तु-
(क) वह स्वयं अपनी लिखित प्रार्थना के बिना साक्षी के रूप में न बुलाया जाएगा,
(ख) उसका स्वयं साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय न बनाया जाएगा और न उसे उसके, या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई उपधारणा ही की जाएगी ।
(2) कोई व्यक्ति जिसके विरुद्ध किसी दंड न्यायालय में धारा 98 या धारा 107 या धारा 108 या धारा 109 या धारा 110 के अधीन या अध्याय 9 के अधीन या अध्याय 10 के भाग ख, भाग ग या भाग घ के अधीन कार्यवाही संस्थित की जाती, ऐसी कार्यवाही में अपने आपको साक्षी के रूप में पेश कर सकता है :
परन्तु धारा 108, धारा 109 या धारा 110 के अधीन कार्यवाही में ऐसे व्यक्ति द्वारा साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय नहीं बनाया जाएगा और न उससे उसके या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध जिसके विरुद्ध उसी जांच में ऐसे व्यक्ति के साथ कार्यवाही की गई है, कोई उपधारणा ही की जाएगी ।
316. प्रकटन उत्प्रेरित करने के लिए किसी असर का काम में न लाया जाना-धारा 306 और 307 में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय, किसी वचन या धमकी द्वारा या अन्यथा कोई असर अभियुक्त व्यक्ति पर इस उद्देश्य से नहीं डाला जाएगा कि उसे अपनी जानकारी की किसी बात को प्रकट करने या न करने के लिए उत्प्रेरित किया जाए ।
317. कुछ मामलों में अभियुक्त की अनुपस्थिति में जांच और विचारण किए जाने के लिए उपबंध-(1) इस संहिता के अधीन जांच या विचारण के किसी प्रक्रम में यदि न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट का उन कारणों से, जो अभिलिखित किए जाएंगे, समाधान हो जाता है कि न्यायालय के समक्ष अभियुक्त की वैयक्तिक हाजिरी न्याय के हित में आवश्यक नहीं है या अभियुक्त न्यायालय की कार्यवाही में बार-बार विघ्न डालता है तो, ऐसे अभियुक्त का प्रतिनिधित्व प्लीडर द्वारा किए जाने की दशा में, वह न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट उसकी हाजिरी से उसे अभिमुक्ति दे सकता है और उसकी अनुपस्थिति में ऐसी जांच या विचारण करने के लिए अग्रसर हो सकता है और कार्यवाही के किसी पश्चात्वर्ती प्रक्रम में ऐसे अभियुक्त की वैयक्तिक हाजिरी का निदेश दे सकता है ।
(2) यदि ऐसे किसी मामले में अभियुक्त का प्रतिनिधित्व प्लीडर द्वारा नहीं किया जा रहा है अथवा यदि न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट का यह विचार है कि अभियुक्त की वैयक्तिक हाजिरी आवश्यक है तो, यदि वह ठीक समझे तो, उन कारणों से, जो उसके द्वारा लेखबद्ध किए जाएंगे, वह या तो ऐसी जांच या विचारण स्थगित कर सकता है या आदेश दे सकता है कि ऐसे अभियुक्त का मामला अलग से लिया जाए या विचारित किया जाए ।
318. प्रक्रिया जहां अभियुक्त कार्यवाही नहीं समझता है-यदि अभियुक्त विकृत-चित्त न होने पर भी ऐसा है कि उसे कार्यवाही समझाई नहीं जा सकती तो न्यायालय जांच या विचारण में अग्रसर हो सकता है ; और उच्च न्यायालय से भिन्न न्यायालय की दशा में, यदि ऐसी कार्यवाही का परिणाम दोषसिद्धि है, तो कार्यवाही को मामले की परिस्थितियों की रिपोर्ट के साथ उच्च न्यायालय भेज दिया जाएगा और उच्च न्यायालय उस पर ऐसा आदेश देगा जैसा वह ठीक समझे ।
319. अपराध के दोषी प्रतीत होने वाले अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करने की शक्ति-(1) जहां किसी अपराध की जांच या विचारण के दौरान साक्ष्य से यह प्रतीत होता है कि किसी व्यक्ति ने, जो अभियुक्त नहीं है, कोई ऐसा अपराध किया है जिसके लिए ऐसे व्यक्ति का अभियुक्त के साथ विचारण किया जा सकता है, वहां न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध उस अपराध के लिए जिसका उसके द्वारा किया जाना प्रतीत होता है, कार्यवाही कर सकता है ।
(2) जहां ऐसा व्यक्ति न्यायालय में हाजिर नहीं है वहां पूर्वोक्त प्रयोजन के लिए उसे मामले की परिस्थितियों की अपेक्षानुसार, गिरफ्तार या समन किया जा सकता है ।
(3) कोई व्यक्ति जो गिरफ्तार या समन न किए जाने पर भी न्यायालय में हाजिर है, ऐसे न्यायालय द्वारा उस अपराध के लिए, जिसका उसके द्वारा किया जाना प्रतीत होता है, जांच या विचारण के प्रयोजन के लिए निरुद्ध किया जा सकता है ।
(4) जहां न्यायालय किसी व्यक्ति के विरुद्ध उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करता है, वहां-
(क) उस व्यक्ति के बारे में कार्यवाही फिर से प्रारंभ की जाएगी और साक्षियों को फिर से सुना जाएगा ;
(ख) खंड (क) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, मामले में ऐसे कार्यवाही की जा सकती है, मानो वह व्यक्ति उस समय अभियुक्त व्यक्ति था जब न्यायालय ने उस अपराध का संज्ञान किया था जिस पर जांच या विचारण प्रारंभ किया गया था ।
320. अपराधों का शमन-(1) नीचे दी गई सारणी के प्रथम दो स्तम्भों में विनिर्दिष्ट भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धाराओं के अधीन दंडनीय अपराधों का शमन उस सारणी के तृतीय स्तम्भ में उल्लिखित व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है :-
[सारणी
अपराध | भारतीय दंड संहिता की धारा जो लागू होती है | वह व्यक्ति जिसके द्वारा अपराध का शमन किया जा सकता है |
1 | 2 | 3 |
किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के विमर्शित आशय से शब्द उच्चारित करना, आदि । | 298 | वह व्यक्ति जिसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचना आशयित है । |
स्वेच्छया उपहति कारित करना । | 323 | वह व्यक्ति जिसे उपहति कारित की गई है । |
प्रकोपन पर स्वेच्छया उपहति कारित करना । | 334 | यथोक्त । |
गंभीर और अचानक प्रकोपन पर स्वेच्छया घोर उपहति कारित करना । | 335 | वह व्यक्ति जिसे उपहति कारित की गई है । |
किसी व्यक्ति का सदोष अवरोध या परिरोध । | 341, 342 | वह व्यक्ति जो अवरुद्ध या परिरुद्ध किया गया है । |
किसी व्यक्ति का तीन या अधिक दिनों के लिए सदोष परिरोध । | 343 | परिरुद्ध व्यक्ति । |
किसी व्यक्ति का दस या अधिक दिनों के लिए सदोष परिरोध । | 344 | यथोक्त । |
किसी व्यक्ति का गुप्त स्थान में सदोष परिरोध । | 346 | यथोक्त । |
हमला या आपराधिक बल का प्रयोग । | 352, 355, 358 | वह व्यक्ति जिस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग किया गया है । |
चोरी । | 379 | चुराई हुई संपत्ति का स्वामी । |
संपत्ति का बेईमानी से दुर्विनियोग । | 403 | दुर्विनियोजित संपत्ति का स्वामी । |
वाहक, घाटवाल, आदि द्वारा आपराधिक न्यासभंग । | 407 | उस संपत्ति का स्वामी, जिसके संबंध में न्यासभंग किया गया है । |
चुराई हुई संपत्ति को, उसे चुराई हुई जानते हुए बेईमानी से प्राप्त करना । | 411 | चुराई हुई संपत्ति का स्वामी । |
चुराई हुई संपत्ति को, यह जानते हुए कि वह चुराई हुई है, छिपाने में या व्ययनित करने में सहायता करना । | 414 | यथोक्त । |
छल । | 417 | वह व्यक्ति जिससे छल किया गया है । |
प्रतिरूपण द्वारा छल । | 419 | यथोक्त । |
लेनदारों में वितरण निवारित करने के लिए संपत्ति आदि का कपटपूर्वक अपसारण या छिपाना । | 421 | उससे प्रभावित लेनदार । |
अपराधी का अपने को शोध्य ऋण या मांग का लेनदारों के लिए उपलब्ध किया जाना कपटपूर्वक निवारित करना । | 422 | यथोक्त । |
अंतरण के ऐसे विलेख का, जिसमें प्रतिफल के संबंध में मिथ्या कथन अंतर्विष्ट है, कपटपूर्वक निष्पादन । | 423 | उससे प्रभावित व्यक्ति । |
संपत्ति का कपटपूर्वक अपसारण या छिपाया जाना । | 424 | उससे प्रभावित व्यक्ति । |
रिष्टि, जब कारित हानि या नुकसान केवल प्राइवेट व्यक्ति को हुई हानि या नुकसान है । | 426, 427 | वह व्यक्ति, जिसे हानि या नुकसान हुआ है । |
जीवजन्तु का वध करने या उसे विकलांग करने के द्वारा रिष्टि । | 428 | जीवजन्तु का स्वामी । |
ढोर आदि का वध करने या उसे विकलांग करने के द्वारा रिष्टि । | 429 | ढोर या जीवजन्तु का स्वामी । |
सिंचन संकर्म को क्षति करने या जल को दोषपूर्वक मोड़ने के द्वारा रिष्टि, जब उससे कारित हानि या नुकसान केवल प्राइवेट व्यक्ति को हुई हानि या नुकसान है । | 430 | वह व्यक्ति, जिसे हानि या नुकसान हुआ है । |
आपराधिक अतिचार । | 447 | वह व्यक्ति जिसके कब्जे में ऐसी संपत्ति है जिस पर अतिचार किया गया है । |
गृह-अतिचार । | 448 | यथोक्त । |
कारावास से दंडनीय अपराध को (चोरी से भिन्न) करने के लिए गृह-अतिचार । | 451 | वह व्यक्ति जिसका उस गृह पर कब्जा है जिस पर अतिचार किया गया है । |
मिथ्या व्यापार या संपत्ति चिह्न का उपयोग । | 482 | वह व्यक्ति, जिसे ऐसे उपयोग से हानि या क्षति कारित हुई है । |
अन्य व्यक्ति द्वारा उपयोग में लाए गए व्यापार या संपत्ति चिह्न का कूटकरण । | 483 | यथोक्त । |
कूटकृत संपत्ति चिह्न से चिह्नित माल को जानते हुए विक्रय या अभिदर्शित करना या विक्रय के लिए या विनिर्माण के प्रयोजन के लिए कब्जे में रखना । | 486 | यथोक्त । |
सेवा संविदा का आपराधिक भंग । | 491 | वह व्यक्ति जिसके साथ अपराधी ने संविदा की है । |
जारकर्म । | 497 | स्त्री का पति । |
विवाहित स्त्री को आपराधिक आशय से फुसलाकर ले जाना या ले जाना या निरुद्ध रखना । | 498 | स्त्री का पति और स्त्री । |
मानहानि, सिवाय ऐसे मामलों के जो उपधारा (2) के नीचे की सारणी के स्तंभ 1 में भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 500 के सामने विनिर्दिष्ट किए गए हैं । | 500 | वह व्यक्ति जिसकी मानहानि की गई है । |
मानहानिकारक जानी हुई बात को मुद्रित या उत्कीर्ण करना । | 501 | यथोक्त । |
मानहानिकारक विषय रखने वाले मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ का यह जानते हुए बेचना कि उसमें ऐसा विषय अंतर्विष्ट है । | 502 | यथोक्त । |
लोक-शांति भंग कराने को प्रकोपित करने के आशय से अपमान । | 504 | अपमानित व्यक्ति । |
अपराधिक अभित्रास । | 506 | अभित्रस्त व्यक्ति । |
किसी व्यक्ति को यह विश्वास करने के लिए उत्प्रेरित करके कि वह दैवी अप्रसाद का भाजन होगा, कराया गया कार्य । | 508 | वह व्यक्ति जिसे उत्प्रेरित किया गया ।] |
(2) नीचे दी गई सारणी के प्रथम दो स्तम्भों में विनिर्दिष्ट भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धाराओं के अधीन दंडनीय अपराधों का शमन उस न्यायालय की अनुज्ञा से, जिसके समक्ष ऐसे अपराध के लिए कोई अभियोजन लंबित है, उस सारणी के तृतीय स्तंभ में लिखित व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है ।
[सारणी
अपराध | भारतीय दंड संहिता की धारा जो लागू होती है | वह व्यक्ति जिसके द्वारा अपराध शमन किया जा सकता है |
1 | 2 | 3 |
गर्भपात कारित करना । | 312 | वह स्त्री जिसका गर्भपात किया गया है । |
स्वेच्छया घोर उपहति कारित करना । | 325 | वह व्यक्ति जिसे उपहति कारित की गई है । |
ऐसे उतावलेपन और उपेक्षा से कोई कार्य करने के द्वारा उपहति कारित करना जिससे मानव जीवन या दूसरों का वैयक्तिक क्षेम संकटापन्न हो जाए । | 337 | यथोक्त । |
ऐसे उतावलेपन और उपेक्षा से कोई कार्य करने के द्वारा घोर उपहति कारित करना जिससे मानव जीवन या दूसरों का वैयक्तिक क्षेम संकटापन्न हो जाए । | 338 | यथोक्त । |
किसी व्यक्ति का सदोष परिरोध करने के प्रयत्न में हमला या आपराधिक बल का प्रयोग । | 357 | वह व्यक्ति जिस पर हमला किया गया या जिस पर बल का प्रयोग किया गया था । |
लिपिक या सेवक द्वारा स्वामी के कब्जे की संपत्ति की चोरी । | 381 | चुराई हुई संपत्ति का स्वामी । |
आपराधिक न्यासभंग । | 406 | उस संपत्ति का स्वामी, जिसके संबंध में न्यास भंग किया गया है । |
लिपिक या सेवक द्वारा आपराधिक न्यासभंग । | 408 | उस संपत्ति का स्वामी, जिसके संबंध में न्यास भंग किया गया है । |
ऐसे व्यक्ति के साथ छल करना जिसका हित संरक्षित रखने के लिए अपराधी या तो विधि द्वारा या वैध संविदा द्वारा आबद्ध था । | 418 | वह व्यक्ति, जिससे छल किया गया है । |
छल करना या संपत्ति परिदत्त करने अथवा मूल्यवान प्रतिभूति की रचना करने या उसे परिवर्तित या नष्ट करने के लिए बेईमानी से उत्प्रेरित करना । | 420 | वह व्यक्ति, जिससे छल किया गया है । |
पति या पत्नी के जीवनकाल में पुनः विवाह करना । | 494 | ऐसे विवाह करने वाले व्यक्ति का पति या पत्नी । |
राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल या किसी संघ राज्यक्षेत्र के प्रशासक, या किसी मंत्री के विरुद्ध, उसके लोक कृत्यों के संबंध में मानहानि, जब मामला लोक अभियोजक द्वारा किए गए परिवाद पर संस्थित है । | 500 | वह व्यक्ति जिसकी मानहानि की गई है । |
स्त्री की लज्जा का अनादर करने के आशय से शब्द कहना या ध्वनियां करना या अंगविक्षेप करना या कोई वस्तु प्रदर्शित करना या किसी स्त्री की एकांतता का अतिक्रमण करना । | 509 | वह स्त्री जिसका अनादर करना आशयित था या जिसकी एकांतता का अतिक्रमण किया गया था ।] |
[(3) जब कोई अपराध इस धारा के अधीन शमनीय है तब ऐसे अपराध के दुष्प्रेरण का, अथवा ऐसे अपराध को करने के प्रयत्न का (जब ऐसा प्रयत्न स्वयं अपराध हो) अथवा जहां अभियुक्त भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 34 या धारा 149 के अधीन दायी हो, शमन उसी प्रकार से किया जा सकता है ।]
(4) (क) जब वह व्यक्ति, जो इस धारा के अधीन अपराध का शमन करने के लिए अन्यथा सक्षम होता, अठारह वर्ष से कम आयु का है या जड़ या पागल है तब कोई व्यक्ति जो उसकी ओर से संविदा करने के लिए सक्षम हो, न्यायालय की अनुज्ञा से, ऐसे अपराध का शमन कर सकता है ।
(ख) जब वह व्यक्ति, जो इस धारा के अधीन अपराध का शमन करने के लिए अन्यथा सक्षम होता, मर जाता है तब ऐसे व्यक्ति का, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) में यथापरिभाषित, विधिक प्रतिनिधि, न्यायालय की सम्मति से, ऐसे अपराध का शमन कर सकता है ।
(5) जब अभियुक्त विचारणार्थ सुपुर्द कर दिया जाता है या जब वह दोषसिद्ध कर दिया जाता है और अपील लंबित है, तब अपराध का शमन, यथास्थिति, उस न्यायालय की इजाजत के बिना अनुज्ञात न किया जाएगा जिसे वह सुपुर्द किया गया है, या जिसके समक्ष अपील सुनी जानी है ।
(6) धारा 401 के अधीन पुनरीक्षण की अपनी शक्तियों के प्रयोग में कार्य करते हुए उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी व्यक्ति को किसी ऐसे अपराध का शमन करने की अनुज्ञा दे सकता है जिसका शमन करने के लिए वह व्यक्ति इस धारा के अधीन सक्षम है ।
(7) यदि अभियुक्त पूर्व दोषसिद्धि के कारण किसी अपराध के लिए या तो वर्धित दंड से या भिन्न किस्म के दंड से दंडनीय है तो ऐसे अपराध का शमन न किया जाएगा ।
(8) अपराध के इस धारा के अधीन शमन का प्रभाव उस अभियुक्त की दोषमुक्ति होगा जिससे अपराध का शमन किया गया है ।
(9) अपराध का शमन इस धारा के उपबंधों के अनुसार ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं ।
321. अभियोजन वापस लेना- किसी मामले का भारसाधक कोई लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक निर्णय सुनाए जाने के पूर्व किसी समय किसी व्यक्ति के अभियोजन को या तो साधारणतः या उन अपराधों में से किसी एक या अधिक के बारे में, जिनके लिए उस व्यक्ति का विचारण किया जा रहा है, न्यायालय की सम्मति से वापस ले सकता है और ऐसे वापस लिए जाने पर-
(क) यदि वह आरोप विरचित किए जाने के पहले किया जाता है तो अभियुक्त ऐसे अपराध या अपराधों के बारे में उन्मोचित कर दिया जाएगा ;
(ख) यदि वह आरोप विरचित किए जाने के पश्चात् या जब इस संहिता द्वारा कोई आरोप अपेक्षित नहीं है, तब किया जाता है तो वह ऐसे अपराध या अपराधों के बारे में दोषमुक्त कर दिया जाएगा :
परन्तु जहां-
(i) ऐसा अपराध किसी ऐसी बात से संबंधित किसी विधि के विरुद्ध है जिस पर संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, अथवा
(ii) ऐसे अपराध का अन्वेषण दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (1946 का 25) के अधीन दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन द्वारा किया गया है, अथवा
(iii) ऐसे अपराध में केन्द्रीय सरकार की किसी सम्पत्ति का दुर्विनियोग, नाश या नुकसान अन्तर्ग्रस्त है, अथवा
(iv) ऐसा अपराध केन्द्रीय सरकार की सेवा में किसी व्यक्ति द्वारा किया गया है, जब वह अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में कार्य कर रहा है या कार्य करना तात्पर्यित है,
और मामले का भारसाधक अभियोजक केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त नहीं किया गया है, तो वह जब तक केन्द्रीय सरकार द्वारा उसे ऐसा करने की अनुज्ञा नहीं दी जाती है, अभियोजन को वापस लेने के लिए न्यायालय से उसकी सम्मति के लिए निवेदन नहीं करेगा तथा न्यायालय अपनी सम्मति देने के पूर्व, अभियोजक को यह निदेश देगा कि वह अभियोजन को वापस लेने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा दी गई अनुज्ञा उसके समक्ष पेश करे ।
322. जिन मामलों का निपटारा मजिस्ट्रेट नहीं कर सकता, उनमें प्रक्रिया-(1) यदि किसी जिले में किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपराध की किसी जांच या विचारण के दौरान उसे साक्ष्य ऐसा प्रतीत होता है कि उसके आधार पर यह उपधारणा की जा सकती है कि-
(क) उसे मामले का विचारण करने या विचारणार्थ सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है, अथवा
(ख) मामला ऐसा है जो जिले के किसी अन्य मजिस्ट्रेट द्वारा विचारित या विचारणार्थ सुपुर्द किया जाना चाहिए, अथवा
(ग) मामले का विचारण मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाना चाहिए,
तो वह कार्यवाही को रोक देगा और मामले की ऐसी संक्षिप्त रिपोर्ट सहित, जिसमें मामले का स्वरूप स्पष्ट किया गया है, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को या अधिकारिता वाले अन्य ऐसे मजिस्ट्रेट को, जिसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट निर्दिष्ट करे, भेज देगा ।
(2) यदि वह मजिस्ट्रेट, जिसे मामला भेजा गया है, ऐसा करने के लिए सशक्त है, तो वह उस मामले का विचारण स्वयं कर सकता है या उसे अपने अधीनस्थ अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट को निर्देशित कर सकता है या अभियुक्त को विचारणार्थ सुपुर्द कर सकता है ।
323. प्रक्रिया जब जांच या विचारण के प्रारंभ के पश्चात् मजिस्ट्रेट को पता चलता है कि मामला सुपुर्द किया जाना चाहिए-यदि किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष अपराध की किसी जांच या विचारण में निर्णय पर हस्ताक्षर करने के पूर्व कार्यवाही के किसी प्रक्रम में उसे यह प्रतीत होता है कि मामला ऐसा है, जिसका विचारण सेशन न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए, तो वह उसे इसमें इसके पूर्व अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन उस न्यायालय को सुपुर्द कर देगा [और तब अध्याय 18 के उपबंध ऐसी सुपुर्दगी को लागू होंगेट ।
324. सिक्के, स्टाम्प विधि या सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों के लिए तत्पूर्व दोषसिद्ध व्यक्तियों का विचारण-(1) जहां कोई व्यक्ति भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन तीन वर्ष या अधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध किए जा चुकने पर उन अध्यायों में से किसी के अधीन तीन वर्ष या अधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए पुनः अभियुक्त है, और उस मजिस्ट्रेट का, जिसके समक्ष मामला लंबित है, समाधान हो जाता है कि यह उपधारणा करने के लिए आधार है कि ऐसे व्यक्ति ने अपराध किया है तो वह उस दशा के सिवाय विचारण के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजा जाएगा या सेशन न्यायालय के सुपुर्द किया जाएगा, जब मजिस्ट्रेट मामले का विचारण करने के लिए सक्षम है और उसकी यह राय है कि यदि अभियुक्त दोषसिद्ध किया गया तो वह स्वयं उसे पर्याप्त दंड का आदेश दे सकता है ।
(2) जब उपधारा (1) के अधीन कोई व्यक्ति विचारण के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजा जाता है या सेशन न्यायालय को सुपुर्द किया जाता है तब कोई अन्य व्यक्ति, जो उसी जांच या विचारण में उसके साथ संयुक्ततः अभियुक्त है, वैसे ही भेजा जाएगा या सुपुर्द किया जाएगा जब तक ऐसे अन्य व्यक्ति को मजिस्ट्रेट, यथास्थिति, धारा 239 या धारा 245 के अधीन उन्मोचित न कर दे ।
325. प्रक्रिया जब मजिस्ट्रेट पर्याप्त कठोर दंड का आदेश नहीं दे सकता-(1) जब कभी अभियोजन और अभियुक्त का साक्ष्य सुनने के पश्चात् मजिस्ट्रेट की यह राय है कि अभियुक्त दोषी है और उसे उस प्रकार के दंड से भिन्न प्रकार का दंड या उस दंड से अधिक कठोर दंड, जो वह मजिस्ट्रेट देने के लिए सशक्त है, दिया जाना चाहिए अथवा द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट होते हुए उसकी यह राय है कि अभियुक्त से धारा 106 के अधीन बंधपत्र निष्पादित करने की अपेक्षा की जानी चाहिए तब वह अपनी राय अभिलिखित कर सकता है और कार्यवाही तथा अभियुक्त को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को, जिसके वह अधीनस्थ हो, भेज सकता है ।
(2) जब एक से अधिक अभियुक्तों का विचारण एक साथ किया जा रहा है और मजिस्ट्रेट ऐसे अभियुक्तों में से किसी के बारे में उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करना आवश्यक समझता है तब वह उन सभी अभियुक्तों को, जो उसकी राय में दोषी हैं, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेज देगा ।
(3) यदि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, जिसके पास कार्यवाही भेजी जाती है, ठीक समझता है तो पक्षकारों की परीक्षा कर सकता है और किसी साक्षी को, जो पहले ही मामले में साक्ष्य दे चुका है, पुनः बुला सकता है और उसकी परीक्षा कर सकता है और कोई अतिरिक्त साक्ष्य मांग सकता है और ले सकता है और मामले में ऐसा निर्णय, दंडादेश या आदेश देगा, जो वह ठीक समझता है और जो विधि के अनुसार है ।
326. भागतः एक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा और भागतः दूसरे न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित साक्ष्य पर दोषसिद्धि या सुपुर्दगी-(1) जब कभी किसी जांच या विचारण में साक्ष्य को पूर्णतः या भागतः सुनने और अभिलिखित करने के पश्चात् कोई 2[न्यायाधीश या मजिस्ट्रेटट उसमें अधिकारिता का प्रयोग नहीं कर सकता है और कोई अन्य [न्यायाधीश या मजिस्ट्रेटट, जिसे ऐसी अधिकारिता है और जो उसका प्रयोग करता है, उसका उत्तरवर्ती हो जाता है, तो ऐसा उत्तरवर्ती 2[न्यायाधीश या मजिस्ट्रेटट अपने पूर्ववर्ती द्वारा ऐसे अभिलिखित या भागतः अपने पूर्ववर्ती द्वारा अभिलिखित और भागतः अपने द्वारा अभिलिखित साक्ष्य पर कार्य कर सकता है :
परन्तु यदि उत्तरवर्ती 2[न्यायाधीश या मजिस्ट्रेटट की यह राय है कि साक्षियों में से किसी की जिसका साक्ष्य पहले ही अभिलिखित किया जा चुका है, अतिरिक्त परीक्षा करना न्याय के हित में आवश्यक है तो वह किसी भी ऐसे साक्षी को पुनः समन कर सकता है और ऐसी अतिरिक्त परीक्षा, प्रतिपरीक्षा और पुनःपरीक्षा के, यदि कोई हो, जैसी वह अनुज्ञात करे, पश्चात् वह साक्षी उन्मोचित कर दिया जाएगा ।
(2) जब कोई मामला [एक न्यायाधीश से दूसरे न्यायाधीश को या एक मजिस्ट्रेट से दूसरे मजिस्ट्रेट कोट इस संहिता के उपबंधों के अधीन अंतरित किया जाता है तब उपधारा (1) के अर्थ में पूर्वकथित मजिस्ट्रेट के बारे में समझा जाएगा कि वह उसमें अधिकारिता का प्रयोग नहीं कर सकता है और पश्चात्कथित मजिस्ट्रेट उसका उत्तरवर्ती हो गया है ।
(3) इस धारा की कोई बात संक्षिप्त विचारणों को या उन मामलों को लागू नहीं होती हैं जिनमें कार्यवाहियां धारा 322 के अधीन रोक दी गई हैं या जिनमें कार्यवाहियां वरिष्ठ मजिस्ट्रेट को धारा 325 के अधीन भेज दी गई हैं ।
327. न्यायालयों का खुला होना- [(1)] वह स्थान, जिसमें कोई दंड न्यायालय किसी अपराध की जांच या विचारण के प्रयोजन से बैठता है, खुला न्यायालय समझा जाएगा, जिसमें जनता साधारणतः प्रवेश कर सकेगी जहां तक कि सुविधापूर्वक वे उसमें समा सकें :
परन्तु यदि पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट ठीक समझता है तो वह किसी विशिष्ट मामले की जांच या विचारण के किसी प्रक्रम में आदेश दे सकता है कि जनसाधारण या कोई विशेष व्यक्ति उस कमरे में या भवन में, जो न्यायालय द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है, न तो प्रवेश करेगा, न होगा और न रहेगा ।
[(2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, [धारा 376ग, धारा 376घ या धारा 376ङट के अधीन बलात्संग या किसी अपराध की जांच या उसका विचारण बंद कमरे में किया जाएगा :
परन्तु पीठासीन न्यायाधीश, यदि वह ठीक समझता है तो, या दोनों में से किसी पक्षकार द्वारा आवेदन किए जाने पर, किसी विशिष्ट व्यक्ति को, उस कमरे में या भवन में, जो न्यायालय द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है, प्रवेश करने, होने या रहने की अनुज्ञा दे सकता है :
[परंतु यह और कि बंद कमरे में विचारण यथासाध्य किसी महिला न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा ।]
(3) जहां उपधारा (2) के अधीन कोई कार्यवाही की जाती है वहां किसी व्यक्ति के लिए किसी ऐसी कार्यवाही के संबंध में किसी बात को न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना, मुद्रित या प्रकाशित करना विधिपूर्ण नहीं होगा : ]
4[परंतु बलात्संग के अपराध के संबंध में विचारण की कार्यवाहियों के मुद्रण या प्रकाशन पर पाबंदी, पक्षकारों के नाम और पते की गोपनीयता को बनाए रखने के अध्यधीन हटाई जा सकेगी ।]
अध्याय 25
विकृतचित्त अभियुक्त व्यक्तियों के बारे में उपबंध
328. अभियुक्त के पागल होने की दशा में प्रक्रिया-(1) जब जांच करने वाले मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने का कारण है कि वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध जांच की जा रही है विकृतचित्त है और परिणामतः अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है तब मजिस्ट्रेट ऐसी चित्त-विकृति के तथ्य की जांच करेगा और ऐसे व्यक्ति की परीक्षा उस जिले के सिविल सर्जन या अन्य ऐसे चिकित्सक अधिकारी द्वारा कराएगा, जिसे राज्य सरकार निदिष्ट करे, और फिर ऐसे सिविल सर्जन या अन्य अधिकारी की साक्षी के रूप में परीक्षा करेगा और उस परीक्षा को लेखबद्ध करेगा ।
[(1क) यदि सिविल सर्जन इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त विकृतचित्त है तो वह ऐसे व्यक्ति को देखभाल, उपचार और अवस्था के पूर्वानुमान के लिए मनश्चिकित्सक या रोग विषयक् मनोविज्ञानी को निर्दिष्ट करेगा और, यथास्थिति, मनश्चिकित्सक या रोग विषयक् मनोविज्ञानी मजिस्ट्रेट को सूचित करेगा कि अभियुक्त चित्तविकृति या मानसिक मंदता से ग्रस्त है अथवा नहीं :
परंतु यदि अभियुक्त, यथास्थिति, मनश्चिकित्सक या रोग विषयक् मनोविज्ञानी द्वारा मजिस्ट्रेट को दी गई सूचना से व्यथित है तो वह चिकित्सा बोर्ड के समक्ष, अपील कर सकेगा जो निम्नलिखित से मिलकर बनेगा, -
(क) निकटतम सरकारी अस्पताल में मनश्चिकित्सा एकक प्रमुख ; और
(ख) निकटतम चिकित्सा महाविद्यालय में मनश्चिकित्सा संकाय का सदस्य ।]
(2) ऐसी परीक्षा और जांच लंबित रहने तक मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति के बारे में धारा 330 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही कर सकता है ।
[(3) यदि ऐसे मजिस्ट्रेट को यह सूचना दी जाती है कि उपधारा (1क) में निर्दिष्ट व्यक्ति विकृतचित्त का व्यक्ति है तो मजिस्ट्रेट आगे यह अवधारित करेगा कि क्या चित्त-विकृति अभियुक्त को प्रतिरक्षा करने में असमर्थ बनाती है और यदि अभियुक्त इस प्रकार असमर्थ पाया जाता है तो मजिस्ट्रेट उस आशय का निष्कर्ष अभिलिखित करेगा और अभियोजन द्वारा पेश किए गए साक्ष्य के अभिलेख की परीक्षा करेगा तथा अभियुक्त के अधिववक्ता को सुनने के पश्चात् किंतु अभियुक्त से प्रश्न किए बिना, यदि वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्ट्या मामला नहीं बनता है तो वह जांच को मुल्तवी करने की बजाय अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा और उसके संबंध में धारा 330 के अधीन उपबंधित रीति में कार्यवाही करेगा :
परंतु यदि मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि उस अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्ट्या मामला बनता है जिसके संबंध में विकृतचित्त होने का निष्कर्ष निकाला गया है तो वह कार्यवाही को ऐसी अवधि के लिए मुल्तवी कर देगा जो मनश्चिकित्सक या रोग विषयक् मनोविज्ञानी की राय में अभियुक्त के उपचार के लिए अपेक्षित है और यह आदेश देगा कि अभियुक्त के संबंध में धारा 330 के अधीन उपबंधित रूप में कार्यवाही की जाए ।
(4) यदि ऐसे मजिस्ट्रेट को यह सूचना दी जाती है कि उपधारा (1क) में निर्दिष्ट व्यक्ति मानसिक मंदता से ग्रस्त व्यक्ति है तो मजिस्ट्रेट आगे इस बारे में अवधारित करेगा कि मानसिक मंदता के कारण अभियुक्त व्यक्ति अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है और यदि अभियुक्त इस प्रकार असमर्थ पाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट जांच बंद करने का आदेश देगा और अभियुक्त के संबंध में धारा 330 के अधीन उपबंधित रीति में कार्यवाही करेगा ।]
329. न्यायालय के समक्ष विचारित व्यक्ति के विकृतचित्त होने की दशा में प्रक्रिया-(1) यदि किसी मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय के समक्ष किसी व्यक्ति के विचारण के समय उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय को वह व्यक्ति विकृतचित्त और परिणामस्वरूप अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ प्रतीत होता है, तो वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय, प्रथमतः ऐसी चित्त-विकृति और असमर्थता के तथ्य का विचारण करेगा और यदि उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय का ऐसे चिकित्सीय या अन्य साक्ष्य पर, जो उसके समक्ष पेश किया जाता है, विचार करने के पश्चात् उस तथ्य के बारे में समाधान हो जाता है तो वह उस भाव का निष्कर्ष अभिलिखित करेगा और मामले में आगे की कार्यवाही मुल्तवी कर देगा ।
[(1क) यदि मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय विचारण के दौरान इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त विकृतचित्त है तो वह ऐसे व्यक्ति को देखभाल और उपचार के लिए मनश्चिकित्सक या रोग विषयक् मनोविज्ञानी को निर्देशित करेगा और, यथास्थिति, मनश्चिकित्सक या रोग विषयक् मनोविज्ञानी मजिस्ट्रेट या न्यायालय को रिपोर्ट करेगा कि अभियुक्त चित्तविकृति से ग्रस्त है या नहीं :
परंतु यदि अभियुक्त, यथास्थिति, मनश्चिकित्सक या रोग विषयक मनोविज्ञानी द्वारा मजिस्ट्रेट को दी गई सूचना से व्यथित है तो वह चिकित्सा बोर्ड के समक्ष अपील कर सकेगा, जो निम्नलिखित से मिलकर बनेगा,-
(क) निकटतम सरकारी अस्पताल में मनश्चिकित्सा एकक प्रमुख ; और
(ख) निकटतम चिकित्सा महाविद्यालय में मनश्चिकित्सा संकाय का सदस्य ।]
[(2) यदि ऐसे मजिस्ट्रेट या न्यायालय को सूचना दी जाती है कि उपधारा (1क) में निर्दिष्ट व्यक्ति विकृतचित्त का व्यक्ति है, तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय आगे अवधारित करेगा कि चित्त-विकृति के कारण अभियुक्त व्यक्ति अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है और यदि अभियुक्त इस प्रकार असमर्थ पाया जाता है तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय उस आशय का निष्कर्ष अभिलिखित करेगा और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य के अभिलेख की परीक्षा करेगा और अभियुक्त के अधिववक्ता को सुनने के पश्चात् किंतु अभियुक्त से प्रश्न पूछे बिना, यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्रथमदृष्ट्या मामला नहीं बनता है, तो वह विचारण को स्थगित करने की बजाय अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा और उसके संबंध में धारा 330 के अधीन उपबंधित रीति में कार्यवाही करेगा :
परंतु यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि उस अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्ट्या मामला बनता है जिसके संबंध में विकृतचित्त होने का निष्कर्ष निकाला गया है तो वह विचारण को ऐसी अवधि के लिए मुल्तवी कर देगा जो मनश्चिकित्सक या रोग विषयक् मनोविज्ञानी की राय में अभियुक्त के उपचार के लिए अपेक्षित है ।
(3) यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्ट्या मामला बनता है और वह मानसिक मंदता के कारण अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय विचारण नहीं करेगा और यह आदेश देगा कि अभियुक्त के संबंध में धारा 330 के अनुसार कार्यवाही की जाए ।]
[330. अन्वेषण या विचारण के लंबित रहने तक विकृतचित्त व्यक्ति का छोड़ा जाना-(1) जब कभी कोई व्यक्ति धारा 328 या धारा 329 के अधीन चित्त-विकृति या मानसिक मंदता के कारण अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ पाया जाता है तब, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायालय, चाहे मामला ऐसा हो जिसमें जमानत ली जा सकती है या ऐसा न हो, ऐसे व्यक्ति को जमानत पर छोड़े जाने का आदेश देगा :
परंतु अभियुक्त ऐसी चित्त-विकृति या मानसिक मंदता से ग्रस्त है जो अंतरंग रोगी उपचार के लिए समादेशित नहीं करती हो और कोई मित्र या नातेदार किसी निकटतम चिकित्सा सुविधा से नियमित बाह्य रोगी मनःचिकित्सा उपचार कराने और उसे अपने आपको या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचाने से निवारित रखने का वचन देता है ।
(2) यदि मामला ऐसा है जिसमें, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायालय की राय में, जमानत नहीं दी जा सकती या यदि कोई समुचित वचनबंध नहीं दिया गया है तो वह अभियुक्त को ऐसे स्थान में रखे जाने का आदेश देगा, जहां नियमित मनःचिकित्सा उपचार कराया जा सकता है और की गई कार्रवाई की रिपोर्ट राज्य सरकार को देगा :
परंतु पागलखाने में अभियुक्त को निरुद्ध किए जाने के लिए कोई आदेश राज्य सरकार द्वारा मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 (1987 का 14) के अधीन बनाए गए नियमों के अनुसार ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं ।
(3) जब कभी कोई व्यक्ति धारा 328 या धारा 329 के अधीन चित्त-विकृति या मानसिक मंदता के कारण अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ पाया जाता है तब, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायालय कारित किए गए कार्य की प्रकृति और चित्त-विकृति या मानसिक मंदता की सीमा को ध्यान में रखते हुए आगे यह अवधारित करेगा कि क्या अभियुक्त को छोड़ने का आदेश दिया जा सकता है :
परंतु-
(क) यदि चिकित्सा राय या किसी विशेषज्ञ की राय के आधार पर, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायालय धारा 328 या धारा 329 के अधीन उपबंधित रीति में अभियुक्त के उन्मोचन का आदेश करने का विनिश्चय करता है तो ऐसे छोड़े जाने का आदेश किया जा सकेगा, यदि पर्याप्त प्रतिभूति दी जाती है कि अभियुक्त को अपने आपको या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचाने से निवारित किया जाएगा ;
(ख) यदि, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायालय की यह राय है कि अभियुक्त के उन्मोचन का आदेश नहीं दिया जा सकता है तो अभियुक्त को चित्त-विकृति या मानसिक मंदता के व्यक्तियों के लिए आवासीय सुविधा में अंतरित करने का आदेश दिया जा सकता है जहां अभियुक्त की देखभाल की जा सके और समुचित शिक्षा और प्रशिक्षण दिया जा सके ।]
331. जांच या विचारण को पुनः चालू करना-(1) जब कभी जांच या विचारण को धारा 328 या धारा 329 के अधीन मुल्तवी किया गया है, तब, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायालय जांच या विचारण को संबद्ध व्यक्ति के विकृतचित्त न रहने पर किसी भी समय पुनः चालू कर सकता है और ऐसे मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष अभियुक्त के हाजिर होने या लाए जाने की अपेक्षा कर सकता है ।
(2) जब अभियुक्त धारा 330 के अधीन छोड़ दिया गया है और उसकी हाजिरी के लिए प्रतिभू उसे उस अधिकारी के समक्ष पेश करते हैं, जिसे मजिस्ट्रेट या न्यायालय ने इस निमित्त नियुक्त किया है, तब ऐसे अधिकारी का यह प्रमाणपत्र कि अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा करने में समर्थ है साक्ष्य में लिए जाने योग्य होगा ।
332. मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष अभियुक्त के हाजिर होने पर प्रक्रिया-(1) जब अभियुक्त, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है या पुनः लाया जाता है, तब यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय का यह विचार है कि वह अपनी प्रतिरक्षा करने में समर्थ है तो, जांच या विचारण आगे चलेगा ।
(2) यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय का यह विचार है कि अभियुक्त अभी अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय, यथास्थिति, धारा 328 या धारा 329 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करेगा और यदि अभियुक्त विकृतचित्त और परिणामस्वरूप अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ पाया जाता है तो ऐसे अभियुक्त के बारे में वह धारा 330 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करेगा ।
333. जब यह प्रतीत हो कि अभियुक्त स्वस्थचित्त रहा है-जब अभियुक्त जांच या विचारण के समय स्वस्थचित्त का प्रतीत होता है और मजिस्ट्रेट का अपने समक्ष दिए गए साक्ष्य से समाधान हो जाता है कि यह विश्वास करने का कारण है कि अभियुक्त ने ऐसा कार्य किया है, जो यदि वह स्वस्थचित्त होता तो अपराध होता और यह कि वह उस समय जब वह कार्य किया गया था चित्त-विकृति के कारण उस कार्य का स्वरूप या यह जानने में असमर्थ था, कि यह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है, तब मजिस्ट्रेट मामले में आगे कार्यवाही करेगा और यदि अभियुक्त का विचारण सेशन न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए तो उसे सेशन न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए सुपुर्द करेगा ।
334. चित्त-विकृति के आधार पर दोष-मुक्ति का निर्णय-जब कभी कोई व्यक्ति इस आधार पर दोषमुक्त किया जाता है कि उस समय जब यह अभिकथित है कि उसने अपराध किया वह चित्त-विकृति के कारण उस कार्य का स्वरूप, जिसका अपराध होना अभिकथित है, या यह कि वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है जानने में असमर्थ था, तब निष्कर्ष में यह विनिर्दिष्टतः कथित होगा कि उसने वह कार्य किया या नहीं किया ।
335. ऐसे आधार पर दोषमुक्त किए गए व्यक्ति का सुरक्षित अभिरक्षा में निरुद्ध किया जाना-(1) जब कभी निष्कर्ष में यह कथित है कि अभियुक्त व्यक्ति ने अभिकथित कार्य किया है तब वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय, जिसके समक्ष विचारण किया गया है, उस दशा में जब ऐसा कार्य उस असमर्थता के न होने पर, जो पाई गई, अपराध होता,-
(क) उस व्यक्ति को ऐसे स्थान में और ऐसी रीति से, जिसे ऐसा मजिस्ट्रेट या न्यायालय ठीक समझे, सुरक्षित अभिरक्षा में निरुद्ध करने का आदेश देगा ; अथवा
(ख) उस व्यक्ति को उसके किसी नातेदार या मित्र को सौंपने का आदेश देगा ।
(2) पागलखाने में अभियुक्त को निरुद्ध करने का उपधारा (1) के खंड (क) के अधीन कोई आदेश राज्य सरकार द्वारा भारतीय पागलपन अधिनियम, 1912 (1912 का 4) के अधीन बनाए गए, नियमों के अनुसार ही किया जाएगा अन्यथा नहीं ।
(3) अभियुक्त को उसके किसी नातेदार या मित्र को सौंपने का उपधारा (1) के खंड (ख) के अधीन कोई आदेश उसके ऐसे नातेदार या मित्र के आवेदन पर और उसके द्वारा निम्नलिखित बातों की बाबत मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समाधानप्रद प्रतिभूति देने पर ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं-
(क) सौंपे गए व्यक्ति की समुचित देख-रेख की जाएगी और वह अपने आपको या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचाने से निवारित रखा जाएगा ;
(ख) सौंपा गया व्यक्ति ऐसे अधिकारी के समक्ष और ऐसे समय और स्थानों पर, जो राज्य सरकार द्वारा निदिष्ट किए जाएं, निरीक्षण के लिए पेश किया जाएगा ।
(4) मजिस्ट्रेट या न्यायालय उपधारा (1) के अधीन की गई कार्रवाई की रिपोर्ट राज्य सरकार को देगा ।
336. भारसाधक अधिकारी को कृत्यों का निर्वहन करने के लिए सशक्त करने की राज्य सरकार की शक्ति-राज्य सरकार उस जेल के भारसाधक अधिकारी को, जिसमें कोई व्यक्ति धारा 330 या धारा 335 के उपबंधों के अधीन परिरुद्ध है, धारा 337 या धारा 338 के अधीन कारागारों के महानिरीक्षक के सब कृत्यों का या उनमें से किसी का निर्वहन करने के लिए सशक्त कर सकती है ।
337. जहां यह रिपोर्ट की जाती है कि पागल बंदी अपनी प्रतिरक्षा करने में समर्थ है वहां प्रक्रिया-यदि ऐसा व्यक्ति धारा 330 की उपधारा (2) के उपबंधों के अधीन निरुद्ध किया जाता है और, जेल में निरुद्ध व्यक्ति की दशा में कारागारों का महानिरीक्षक या पागलखाने में निरुद्ध व्यक्ति की दशा में उस पागलखाने की परिदर्शक या उनमें से कोई दो प्रमाणित करें कि उसकी या उनकी राय में वह व्यक्ति अपनी प्रतिरक्षा करने में समर्थ है तो वह, यथास्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष उस समय, जिसे वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय नियत करे, लाया जाएगा और वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय उस व्यक्ति के बारे में धारा 332 के उपबंधों के अधीन कार्यवाही करेगा, और पूर्वोक्त महानिरीक्षक या परिदर्शकों का प्रमाणपत्र साक्ष्य के तौर पर ग्रहण किया जा सकेगा ।
338. जहां निरुद्ध पागल छोड़े जाने के योग्य घोषित कर दिया जाता है वहां प्रक्रिया-(1) यदि ऐसा व्यक्ति धारा 330 की उपधारा (2) या धारा 335 के उपबंधों के अधीन निरुद्ध है और ऐसा महानिरीक्षक या ऐसे परिदर्शक प्रमाणित करते हैं कि उसके या उनके विचार में वह अपने को या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचाने के खतरे के बिना छोड़ा जा सकता है तो राज्य सरकार तब उसके छोड़े जाने का या अभिरक्षा में निरुद्ध रखे जाने का या, यदि वह पहले ही लोक पागलखाने नहीं भेज दिया गया है तो ऐसे पागलखाने को अन्तरित किए जाने का आदेश दे सकती है और यदि वह उसे पागलखाने को अन्तरित करने का आदेश देती है तो वह एक न्यायिक और दो चिकित्सक अधिकारियों का एक आयोग नियुक्त कर सकती है ।
(2) ऐसा आयोग ऐसा साक्ष्य लेकर, जो आवश्यक हो, ऐसे व्यक्ति के चित्त की दशा की यथारीति जांच करेगा और राज्य सरकार को रिपोर्ट देगा, जो उसके छोड़े जाने या निरुद्ध रखे जाने का जैसा वह ठीक समझे, आदेश दे सकती है ।
339. नातेदार या मित्र की देख-रेख के लिए पागल का सौंपा जाना-(1) जब कभी धारा 330 या धारा 335 के उपबंधों के अधीन निरुद्ध किसी व्यक्ति का कोई नातेदार या मित्र यह चाहता है कि वह व्यक्ति उसकी देख-रेख और अभिरक्षा में रखे जाने के लिए सौंप दिया जाए जब राज्य सरकार उस नातेदार या मित्र के आवेदन पर और उसके द्वारा ऐसी राज्य सरकार को समाधानप्रद प्रतिभूति इस बाबत दिए जाने पर कि-
(क) सौंपे गए व्यक्ति की समुचित देख-रेख की जाएगी और वह अपने आपको या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुंचाने से निवारित रखा जाएगा ;
(ख) सौंपा गया व्यक्ति ऐसे अधिकारी के समक्ष और ऐसे समय और स्थानों पर, जो राज्य सरकार द्वारा निदिष्ट किए जाएं, निरीक्षण के लिए पेश किया जाएगा ;
(ग) सौंपा गया व्यक्ति, उस दशा में जिसमें वह धारा 330 की उपधारा (2) के अधीन निरुद्ध व्यक्ति है, अपेक्षा किए जाने पर ऐसे मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष पेश किया जाएगा,
ऐसे व्यक्ति को ऐसे नातेदार या मित्र को सौंपने का आदेश दे सकेगी ।
(2) यदि ऐसे सौंपा गया व्यक्ति किसी ऐसे अपराध के लिए अभियुक्त है, जिसका विचारण उसके विकृतचित्त होने और अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ होने के कारण मुल्तवी किया गया है और उपधारा (1) के खंड (ख) में निर्दिष्ट निरीक्षण अधिकारी किसी समय मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष यह प्रमाणित करता है कि ऐसा व्यक्ति अपनी प्रतिरक्षा करने में समर्थ है तो ऐसा मजिस्ट्रेट या न्यायालय उस नातेदार या मित्र से, जिसे ऐसा अभियुक्त सौंपा गया है, अपेक्षा करेगा कि वह उसे उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष पेश करे और ऐसे पेश किए जाने पर वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय धारा 332 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही करेगा और निरीक्षण अधिकारी का प्रमाणपत्र साक्ष्य के तौर पर ग्रहण किया जा सकता है ।
अध्याय 26
न्याय-प्रशासन पर प्रभाव डालने वाले अपराधों के बारे में उपबंध
340. धारा 195 में वर्णित मामलों में प्रक्रिया-(1) जब किसी न्यायालय की, उससे इस निमित्त किए गए आवेदन पर या अन्यथा, यह राय है कि न्याय के हित में यह समीचीन है कि धारा 195 की उपधारा (1) के खंड (ख) में निर्दिष्ट किसी अपराध की, जो उसे, यथास्थिति, उस न्यायालय की कार्यवाही में या उसके संबंध में अथवा उस न्यायालय की कार्यवाही में पेश की गई या साक्ष्य में दी गई दस्तावेज के बारे में किया हुआ प्रतीत होता है, जांच की जानी चाहिए तब ऐसा न्यायालय ऐसी प्रारंभिक जांच के पश्चात् यदि कोई हो, जैसी वह आवश्यक समझे,-
(क) उस भाव का निष्कर्ष अभिलिखित कर सकता है ;
(ख) उसका लिखित परिवाद कर सकता है ;
(ग) उसे अधिकारिता रखने वाले प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को भेज सकता है ;
(घ) ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त के हाजिर होने के लिए पर्याप्त प्रतिभूति ले सकता है अथवा यदि अभिकथित अपराध अजमानतीय है और न्यायालय ऐसा करना आवश्यक समझता है तो, अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास अभिरक्षा में भेज सकता है ; और
(ङ) ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होने और साक्ष्य देने के लिए किसी व्यक्ति को आबद्ध कर सकता है ।
(2) किसी अपराध के बारे में न्यायालय को उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग, ऐसे मामले में जिसमें उस न्यायालय ने उपधारा (1) के अधीन उस अपराध के बारे में न तो परिवाद किया है और न ऐसे परिवाद के किए जाने के लिए आवेदन को नामंजूर किया है, उस न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसके ऐसा पूर्वकथित न्यायालय धारा 195 की उपधारा (4) के अर्थ में अधीनस्थ है ।
(3) इस धारा के अधीन किए गए परिवाद पर हस्ताक्षर,-
(क) जहां परिवाद करने वाला न्यायालय उच्च न्यायालय है वहां उस न्यायालय के ऐसे अधिकारी द्वारा किए जाएंगे, जिसे वह न्यायालय नियुक्त करे ;
[(ख) किसी अन्य मामले में, न्यायालय के पीठासीन अधिकारी द्वारा या न्यायालय के ऐसे अधिकारी द्वारा, जिसे न्यायालय इस निमित्त लिखित में प्राधिकृत करे, किए जाएंगे ।]
(4) इस धारा में न्यायालय" का वही अर्थ है जो धारा 195 में है ।
341. अपील-(1) कोई व्यक्ति, जिसके आवेदन पर उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय ने धारा 340 की उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन परिवाद करने से इंकार कर दिया है या जिसके विरुद्ध ऐसा परिवाद ऐसे न्यायालय द्वारा किया गया है, उस न्यायालय में अपील कर सकता है, जिसके ऐसा पूर्वकथित न्यायालय धारा 195 की उपधारा (4) के अर्थ में अधीनस्थ है और तब वरिष्ठ न्यायालय संबद्ध पक्षकारों को सूचना देने के पश्चात्, यथास्थिति, उस परिवाद को वापस लेने का या वह परिवाद करने का जिसे ऐसा पूर्वकथित न्यायालय धारा 340 के अधीन कर सकता था, निदेश दे सकेगा और यदि वह ऐसा परिवाद करता है तो उस धारा के उपबंध तद्नुसार लागू होंगे ।
(2) इस धारा के अधीन आदेश, और ऐसे आदेश के अधीन रहते हुए धारा 340 के अधीन आदेश, अंतिम होगा और उसका पुनरीक्षण नहीं किया जा सकेगा ।
342. खर्चे का आदेश देने की शक्ति-धारा 340 के अधीन परिवाद फाइल करने के लिए किए गए किसी आवेदन या धारा 341 के अधीन अपील के संबंध में कार्यवाही करने वाले किसी भी न्यायालय को खर्चे के बारे में ऐसा आदेश देने की शक्ति होगी, जो न्यायसंगत हो ।
343. जहां मजिस्ट्रेट संज्ञान करे वहां प्रक्रिया-(1) वह मजिस्ट्रेट, जिससे कोई परिवाद धारा 340 या धारा 341 के अधीन किया जाता है, अध्याय 15 में किसी बात के होते हुए भी, जहां तक हो सके मामले में इस प्रकार कार्यवाही करने के लिए अग्रसर होगा, मानो वह पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित है ।
(2) जहां ऐसे मजिस्ट्रेट के या किसी अन्य मजिस्ट्रेट के, जिसे मामला अंतरित किया गया है, ध्यान में यह बात लाई जाती है कि उस न्यायिक कार्यवाही में, जिससे वह मामला उत्पन्न हुआ है, किए गए विनिश्चय के विरुद्ध अपील लंबित है वहां वह, यदि ठीक समझता है तो, मामले की सुनवाई को किसी भी प्रक्रम पर तब तक के लिए स्थगित कर सकता है जब तक ऐसी अपील विनिश्चित न हो जाए ।
344. मिथ्या साक्ष्य देने पर विचारण के लिए संक्षिप्त प्रक्रिया-(1) यदि किसी न्यायिक कार्यवाही को निपटाते हुए निर्णय या अंतिम आदेश देते समय कोई सेशन न्यायालय या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट यह राय व्यक्त करता है कि ऐसी कार्यवाही में उपस्थित होने वाले किसी साक्षी ने जानते हुए या जानबूझकर मिथ्या साक्ष्य दिया है या इस आशय से मिथ्या साक्ष्य गढ़ा है कि ऐसा साक्ष्य ऐसी कार्यवाही में प्रयुक्त किया जाए तो यदि उसका समाधान हो जाता है कि न्याय के हित में यह आवश्यक और समीचीन है कि साक्षी का, यथास्थिति, मिथ्या साक्ष्य देने या गढ़ने के लिए संक्षेपतः विचारण किया जाना चाहिए तो वह ऐसे अपराध का संज्ञान कर सकेगा और अपराधी को ऐसा कारण दर्शित करने का कि क्यों न उसे ऐसे अपराध के लिए दंडित किया जाए, उचित अवसर देने के पश्चात्, ऐसे अपराधी का संक्षेपतः विचारण कर सकेगा और उसे कारावास से जिसकी अवधि तीन मास तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो पांच सौ रुपए तक का हो सकेगा अथवा दोनों से, दंडित कर सकेगा ।
(2) ऐसे प्रत्येक मामले में न्यायालय संक्षिप्त विचारणों के लिए विहित प्रक्रिया का यथासाध्य अनुसरण करेगा ।
(3) जहां न्यायालय इस धारा के अधीन कार्यवाही करने के लिए अग्रसर नहीं होता है वहां इस धारा की कोई बात, अपराध के लिए धारा 340 के अधीन परिवाद करने की उस न्यायालय की शक्ति पर प्रभाव नहीं डालेगी ।
(4) जहां, उपधारा (1) के अधीन किसी कार्यवाही के प्रारंभ किए जाने के पश्चात्, सेशन न्यायालय या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत कराया जाता है कि उस निर्णय या आदेश के विरुद्ध जिसमें उस उपधारा में निर्दिष्ट राय अभिव्यक्त की गई है अपील या पुनरीक्षण के लिए आवेदन किया गया है वहां वह, यथास्थिति, अपील या पुनरीक्षण के आवेदन के निपटाए जाने तक आगे विचारण की कार्यवाहियों को रोक देगा और तब आगे विचारण की कार्यवाहियां अपील या पुनरीक्षण के आवेदन के परिणामों के अनुसार होंगी ।
345. अवमान के कुछ मामलों में प्रक्रिया-(1) जब कोई ऐसा अपराध, जैसा भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 175, धारा 178, धारा 179, धारा 180 या धारा 228 में वर्णित है, किसी सिविल, दंड या राजस्व न्यायालय की दृष्टिगोचरता या उपस्थिति में किया जाता है तब न्यायालय अभियुक्त को अभिरक्षा में निरुद्ध करा सकता है और उसी दिन न्यायालय के उठने के पूर्व किसी समय, अपराध का संज्ञान कर सकता है और अपराधी को ऐसा कारण दर्शित करने का, कि क्यों न उसे इस धारा के अधीन दंडित किया जाए, उचित अवसर देने के पश्चात् अपराधी को दो सौ रुपए से अनधिक जुर्माने का और जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर एक मास तक की अवधि के लिए, जब तक कि ऐसा जुर्माना उससे पूर्वतर न दे दिया जाए, सादा कारावास का दंडादेश दे सकता है ।
(2) ऐसे प्रत्येक मामले में न्यायालय वे तथ्य जिनसे अपराध बनता है, अपराधी द्वारा किए गए कथन के (यदि कोई हो) सहित, तथा निष्कर्ष और दंडादेश भी अभिलिखित करेगा ।
(3) यदि अपराध भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 228 के अधीन है तो अभिलेख में यह दर्शित होगा कि जिस न्यायालय के कार्य में विघ्न डाला गया था या जिसका अपमान किया गया था, उसकी बैठक किस प्रकार की न्यायिक कार्यवाही के संबंध में और उसके किस प्रक्रम पर हो रही थी और किस प्रकार का विघ्न डाला गया या अपमान किया गया था ।
346. जहां न्यायालय का विचार है कि मामले में धारा 345 के अधीन कार्यवाही नहीं की जानी चाहिए वहां प्रक्रिया-(1) यदि किसी मामले में न्यायालय का यह विचार है कि धारा 345 में निर्दिष्ट और उसकी दृष्टिगोचरता या उपस्थिति में किए गए अपराधों में से किसी के लिए अभियुक्त व्यक्ति जुर्माना देने में व्यतिक्रम करने से अन्यथा कारावासित किया जाना चाहिए या उस पर दो सौ रुपए से अधिक जुर्माना अधिरोपित किया जाना चाहिए या किसी अन्य कारण से उस न्यायालय की यह राय है कि मामला धारा 345 के अधीन नहीं निपटाया जाना चाहिए तो वह न्यायालय उन तथ्यों को जिनसे अपराध बनता है और अभियुक्त के कथन को इसमें इसके पूर्व उपबंधित प्रकार से अभिलिखित करने के पश्चात्, मामला उसका विचारण करने की अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट को भेज सकेगा और ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष ऐसे व्यक्ति की हाजिरी के लिए प्रतिभूति दी जाने की अपेक्षा कर सकेगा, अथवा यदि पर्याप्त प्रतिभूति न दी जाए तो ऐसे व्यक्ति को अभिरक्षा में ऐसे मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा ।
(2) वह मजिस्ट्रेट, जिसे कोई मामला इस धारा के अधीन भेजा जाता है, जहां तक हो सके इस प्रकार कार्यवाही करने के लिए अग्रसर होगा मानो वह मामला पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित है ।
347. रजिस्ट्रार या उप-रजिस्ट्रार कब सिविल न्यायालय समझा जाएगा-जब राज्य सरकार ऐसा निदेश दे तब कोई भी रजिस्ट्रार या कोई भी उप-रजिस्ट्रार, जो ॥। रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 16) के अधीन नियुक्त है, धारा 345 और 346 के अर्थ में सिविल न्यायालय समझा जाएगा ।
348. माफी मांगने पर अपराधी का उन्मोचन-जब किसी न्यायालय ने किसी अपराधी को कोई बात, जिसे करने की उससे विधिपूर्वक अपेक्षा की गई थी, करने से इंकार करने या उसे न करने के लिए या साशय कोई अपमान करने या विघ्न डालने के लिए धारा 345 के अधीन दंडित किए जाने के लिए न्यायनिर्णीत किया है या धारा 346 के अधीन विचारण के लिए मजिस्ट्रेट के पास भेजा है, तब वह न्यायालय अपने आदेश या अपेक्षा के उसके द्वारा मान लिए जाने पर या उसके द्वारा ऐसे माफी मांगे जाने पर, जिससे न्यायालय का समाधान हो जाए, स्वविवेकानुसार अभियुक्त को उन्मोचित कर सकता है या दंड का परिहार कर सकता है ।
349. उत्तर देने या दस्तावेज पेश करने से इंकार करने वाले व्यक्ति को कारावास या उसकी सुपुर्दगी-यदि दंड न्यायालय के समक्ष कोई साक्षी या कोई व्यक्ति, जो किसी दस्तावेज या चीज को पेश करने के लिए बुलाया गया है, उन प्रश्नों का, जो उससे किए जाएं, उत्तर देने से या अपने कब्जे या शक्ति में की किसी दस्तावेज या चीज को, जिसे पेश करने की न्यायालय उससे अपेक्षा करे, पेश करने से इंकार करता है और ऐसे इंकार के लिए कोई उचित कारण पेश करने के लिए युक्तियुक्त अवसर दिए जाने पर ऐसा नहीं करता है तो ऐसा न्यायालय उन कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे, उसे सात दिन से अनधिक की किसी अवधि के लिए सादा कारावास का दंडादेश दे सकेगा अथवा पीठासीन मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित वारण्ट द्वारा न्यायालय के किसी अधिकारी की अभिरक्षा के लिए सुपुर्द कर सकेगा, जब तक कि उस बीच ऐसा व्यक्ति अपनी परीक्षा की जाने और उत्तर देने के लिए या दस्तावेज या चीज पेश करने के लिए सहमत नहीं हो जाता है और उसके इंकार पर डटे रहने की दशा में उसके बारे में धारा 345 या धारा 346 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही की जा सकेगी ।
350. समन के पालन में साक्षी के हाजिर न होने पर उसे दंडित करने के लिए संक्षिप्त प्रक्रिया - (1) यदि किसी दंड न्यायालय के समक्ष हाजिर होने के लिए समन किए जाने पर कोई साक्षी समन के पालन में किसी निश्चित स्थान और समय पर हाजिर होने के लिए वैध रूप से आबद्ध है और न्यायसंगत कारण के बिना, उस स्थान या समय पर हाजिर होने में उपेक्षा या हाजिर होने से इंकार करता है अथवा उस स्थान से, जहां उसे हाजिर होना है, उस समय से पहले चला जाता है जिस समय चला जाना उसके लिए विधिपूर्ण है और जिस न्यायालय के समक्ष उस साक्षी को हाजिर होना है उसका समाधान हो जाता है कि न्याय के हित में यह समीचीन है कि ऐसे साक्षी का संक्षेपतः विचारण किया जाए तो वह न्यायालय उस अपराध का संज्ञान कर सकता है और अपराधी को इस बात का कारण दर्शित करने का कि क्यों न उसे इस धारा के अधीन दंडित किया जाए अवसर देने के पश्चात् उसे एक सौ रुपए से अनधिक जुर्माने का दंडादेश दे सकता है ।
(2) ऐसे प्रत्येक मामले में न्यायालय उस प्रक्रिया का यथासाध्य अनुसरण करेगा जो संक्षिप्त विचारणों के लिए विहित है ।
351. धारा 344, 345, 349 और 350 के अधीन दोषसिद्धियों से अपीलें-(1) उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा धारा 344, धारा 345, धारा 349 या धारा 350 के अधीन दंडादिष्ट कोई व्यक्ति, इस संहिता में किसी बात के होते हुए भी, उस न्यायालय में अपील कर सकता है जिसमें ऐसे न्यायालय द्वारा दी गई डिक्रियों या आदेशों की अपील मामूली तौर पर होती है ।
(2) अध्याय 29 के उपबंध, जहां तक वे लागू हो सकते हैं, इस धारा के अधीन अपीलों को लागू होंगे, और अपील न्यायालय निष्कर्ष को परिवर्तित कर सकता है या उलट सकता है या उस दंड को, जिसके विरुद्ध अपील की गई है, कम कर सकता है या उलट सकता है ।
(3) लघुवाद न्यायालय द्वारा की गई ऐसी दोषसिद्धि की अपील उस सेशन खंड के सेशन न्यायालय में होगी जिस खंड में वह न्यायालय स्थित है ।
(4) धारा 347 के अधीन जारी किए गए निदेश के आधार पर सिविल न्यायालय समझे गए किसी रजिस्ट्रार या उप-रजिस्ट्रार द्वारा की गई ऐसी दोषसिद्धि से अपील उस सेशन खंड के सेशन न्यायालय में होगी जिस खंड में ऐसे रजिस्ट्रार या उप-रजिस्ट्रार का कार्यालय स्थित है ।
352. कुछ न्यायाधीशों और मजिस्ट्रेटों के समक्ष किए गए अपराधों का उनके द्वारा विचारण न किया जाना-धारा 344, 345, 349 और 350 में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय, (उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से भिन्न) दंड न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट धारा 195 में निर्दिष्ट किसी अपराध के लिए किसी व्यक्ति का विचारण उस दशा में नहीं करेगा, जब वह अपराध उसके समक्ष या उसके प्राधिकार का अवमान करके किया गया है अथवा किसी न्यायिक कार्यवाही के दौरान ऐसे न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की हैसियत में उसके ध्यान में लाया गया है ।
अध्याय 27
निर्णय
353. निर्णय-(1) आरंभिक अधिकारिता के दंड न्यायालय में होने वाले प्रत्येक विचारण में निर्णय पीठासीन अधिकारी द्वारा खुले न्यायालय में या तो विचारण के खत्म होने के पश्चात् तुरन्त या बाद में किसी समय, जिसकी सूचना पक्षकारों या उनके प्लीडरों को दी जाएगी,-
(क) संपूर्ण निर्णय देकर सुनाया जाएगा ; या
(ख) संपूर्ण निर्णय पढ़कर सुनाया जाएगा ; या
(ग) अभियुक्त या उसके प्लीडर द्वारा समझी जाने वाली भाषा में निर्णय का प्रवर्तनशील भाग पढ़कर और निर्णय का सार समझाकर सुनाया जाएगा ।
(2) जहां उपधारा (1) के खंड (क) के अधीन निर्णय दिया जाता है, वहां पीठासीन अधिकारी उसे आशुलिपि में लिखवाएगा और जैसे ही अनुलिपि तैयार हो जाती है वैसे ही खुले न्यायालय में उस पर और उसके प्रत्येक पृष्ठ पर हस्ताक्षर करेगा, और उस पर निर्णय दिए जाने की तारीख डालेगा ।
(3) जहां निर्णय या उसका प्रवर्तनशील भाग, यथास्थिति, उपधारा (1) के खंड (ख) या खंड (ग) के अधीन पढ़कर सुनाया जाता है, वहां पीठासीन अधिकारी द्वारा खुले न्यायालय में उस पर तारीख डाली जाएगी और हस्ताक्षर किए जाएंगे और यदि वह उसके द्वारा स्वयं अपने हाथ से नहीं लिखा गया है तो निर्णय के प्रत्येक पृष्ठ पर उसके द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे ।
(4) जहां निर्णय उपधारा (1) के खंड (ग) में विनिर्दिष्ट रीति से सुनाया जाता है, वहां संपूर्ण निर्णय या उसकी एक प्रतिलिपि पक्षकारों या उनके प्लीडरों के परिशीलन के लिए तुरंत निःशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी ।
(5) यदि अभियुक्त अभिरक्षा में है तो निर्णय सुनने के लिए उसे लाया जाएगा ।
(6) यदि अभियुक्त अभिरक्षा में नहीं है तो उससे न्यायालय द्वारा सुनाए जाने वाले निर्णय को सुनने के लिए हाजिर होने की अपेक्षा की जाएगी, किन्तु उस दशा में नहीं की जाएगी जिसमें विचारण के दौरान उसकी वैयक्तिक हाजिरी से उसे अभिमुक्ति दे दी गई है और दंडादेश केवल जुर्माने का है या उसे दोषमुक्त किया गया है :
परन्तु जहां एक से अधिक अभियुक्त हैं और उनमें से एक या एक से अधिक उस तारीख को न्यायालय में हाजिर नहीं हैं जिसको निर्णय सुनाया जाने वाला है तो पीठासीन अधिकारी उस मामले को निपटाने में अनुचित विलंब से बचने के लिए उनकी अनुपस्थिति में भी निर्णय सुना सकता है ।
(7) किसी भी दंड न्यायालय द्वारा सुनाया गया कोई निर्णय केवल इस कारण विधितः अमान्य न समझा जाएगा कि उसके सुनाए जाने के लिए सूचित दिन को या स्थान में कोई पक्षकार या उसका प्लीडर अनुपस्थित था या पक्षकारों पर या उनके प्लीडरों पर या उनमें से किसी पर ऐसे दिन और स्थान की सूचना की तामील करने में कोई लोप या त्रुटि हुई थी ।
(8) इस धारा की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह धारा 465 के उपबंधों के विस्तार को किसी प्रकार से परिसीमित करती है ।
354. निर्णय की भाषा और अन्तर्वस्तु-(1) इस संहिता द्वारा अभिव्यक्त रूप से अन्यथा उपबंधित के सिवाय, धारा 353 में निर्दिष्ट प्रत्येक निर्णय-
(क) न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा ;
(ख) अवधारण के लिए प्रश्न, उस प्रश्न या उन प्रश्नों पर विनिश्चय और विनिश्चय के कारण अन्तर्विष्ट करेगा ;
(ग) वह अपराध (यदि कोई हो) जिसके लिए और भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) या अन्य विधि की वह धारा, जिसके अधीन अभियुक्त दोषसिद्ध किया गया है, और वह दंड जिसके लिए वह दंडादिष्ट है, विनिर्दिष्ट करेगा ;
(घ) यदि निर्णय दोषमुक्ति का है तो, उस अपराध का कथन करेगा जिससे अभियुक्त दोषमुक्त किया गया है और निदेश देगा कि वह स्वतंत्र कर दिया जाए ।
(2) जब दोषसिद्धि भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अधीन है और यह संदेह है कि अपराध उस संहिता की दो धाराओं में से किसके अधीन या एक ही धारा के दो भागों में से किसके अधीन आता है तो न्यायालय इस बात को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करेगा और अनुकल्पतः निर्णय देगा ।
(3) जब दोषसिद्धि, मृत्यु से अथवा अनुकल्पतः आजीवन कारावास से या कई वर्षों की अवधि के कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए है, तब निर्णय में, दिए गए दंडादेश के कारणों का और मृत्यु के दंडादेश की दशा में ऐसे दंडादेश के लिए विशेष कारणों का, कथन होगा ।
(4) जब दोषसिद्धि एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध के लिए है किन्तु न्यायालय तीन मास से कम अवधि के कारावास का दंड अधिरोपित करता है, तब वह ऐसा दंड देने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा उस दशा के सिवाय जब वह दंडादेश न्यायालय के उठने तक के लिए कारावास का नहीं है या वह मामला इस संहिता के उपबंधों के अधीन संक्षेपतः विचारित नहीं किया गया है ।
(5) जब किसी व्यक्ति को मृत्यु का दंडादेश दिया गया है तो वह दंडादेश यह निदेश देगा कि उसे गर्दन में फांसी लगाकर तब तक लटकाया जाए जब तक उसकी मृत्यु न हो जाए ।
(6) धारा 117 के अधीन या धारा 138 की उपधारा (2) के अधीन प्रत्येक आदेश में और धारा 125, धारा 145 या धारा 147 के अधीन किए गए प्रत्येक अंतिम आदेश में, अवधारण के लिए प्रश्न, उस प्रश्न या उन प्रश्नों पर विनिश्चय और विनिश्चय के कारण अन्तर्विष्ट होंगे ।
355. महानगर मजिस्ट्रेट का निर्णय-महानगर मजिस्ट्रेट निर्णय को इसमें इसके पूर्व उपबंधित रीति से अभिलिखित करने के बजाय निम्नलिखित विशिष्टियों को अभिलिखित करेगा, अर्थात् :-
(क) मामले का क्रम संख्यांक ;
(ख) अपराध किए जाने की तारीख ;
(ग) यदि कोई परिवादी है तो उसका नाम ;
(घ) अभियुक्त व्यक्ति का नाम और उसके माता-पिता का नाम और उसका निवास-स्थान ;
(ङ) अपराध जिसका परिवाद किया गया है या जो साबित हुआ है ;
(च) अभियुक्त का अभिवाक् और उसकी परीक्षा (यदि कोई हो) ;
(छ) अंतिम आदेश ;
(ज) ऐसे आदेश की तारीख ;
(झ) उन सब मामलों में, जिनमें धारा 373 के अधीन या धारा 374 की उपधारा (3) के अधीन अंतिम आदेश के विरुद्ध अपील होती है, निर्णय के कारणों का संक्षिप्त कथन ।
356. पूर्वतन सिद्धदोष अपराधी को अपने पते की सूचना देने का आदेश-(1) जब कोई व्यक्ति, जिसे भारत में किसी न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 215, धारा 489क, धारा 489ख, धारा 489ग या धारा 489घ [या धारा 506 (जहां तक वह आपराधिक अभित्रास से संबंधित है जो ऐसे कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय हो)ट के अधीन दंडनीय अपराध के लिए या उसी संहिता के अध्याय 12 1[या अध्याय 16ट या अध्याय 17 के अधीन तीन वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया है, किसी अपराध के लिए, जो उन धाराओं में से किसी के अधीन दंडनीय है या उन अध्यायों में से किसी के अधीन तीन वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है, द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट के न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा पुनः दोषसिद्ध किया जाता है तब, यदि ऐसा न्यायालय ठीक समझे तो वह उस व्यक्ति को कारावास का दंडादेश देते समय यह आदेश भी कर सकता है कि छोड़े जाने के पश्चात् उसके निवास-स्थान की और ऐसे निवास-स्थान की किसी तब्दीली की या उससे उसकी अनुपस्थिति की इसमें इसके पश्चात् उपबंधित रीति से सूचना ऐसे दंडादेश की समाप्ति की तारीख से पांच वर्ष से अनधिक अवधि तक दी जाएगी ।
(2) उपधारा (1) के उपबंध, जहां तक वे उसमें उल्लिखित अपराधों के संबंध में हैं, उन अपराधों को करने के आपराधिक षड्यंत्रों और उन अपराधों के दुष्प्रेरण तथा उन्हें करने के प्रयत्नों को भी लागू होते हैं ।
(3) यदि ऐसी दोषसिद्धि अपील में या अन्यथा अपास्त कर दी जाती है तो ऐसा आदेश शून्य हो जाएगा ।
(4) इस धारा के अधीन आदेश अपील न्यायालय द्वारा, या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी जब वह अपनी पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग कर रहा है, किया जा सकता है ।
(5) राज्य सरकार, छोड़े गए सिद्धदोषों के निवास-स्थान की या निवास-स्थान की तब्दीली की या उससे उनकी अनुपस्थिति की सूचना से संबंधित इस धारा के उपबंधों को क्रियान्वित करने के लिए नियम अधिसूचना द्वारा बना सकती है ।
(6) ऐसे नियम उनके भंग किए जाने के लिए दंड का उपबंध कर सकते हैं और जिस व्यक्ति पर ऐसे किसी नियम को भंग करने का आरोप है उसका विचारण उस जिले में सक्षम अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट द्वारा किया जा सकता है जिसमें उस व्यक्ति द्वारा अपने निवास-स्थान के रूप में अन्त में सूचित स्थान है ।
357. प्रतिकर देने का आदेश-(1) जब कोई न्यायालय जुर्माने का दंडादेश देता है या कोई ऐसा दंडादेश (जिसके अन्तर्गत मृत्यु दंडादेश भी है) देता है जिसका भाग जुर्माना भी है, तब निर्णय देते समय वह न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि वसूल किए गए सब जुर्माने या उसके किसी भाग का उपयोजन-
(क) अभियोजन में उचित रूप से उपगत व्ययों को चुकाने में किया जाए ;
(ख) किसी व्यक्ति को उस अपराध द्वारा हुई किसी हानि या क्षति का प्रतिकर देने में किया जाए, यदि न्यायालय की राय में ऐसे व्यक्ति द्वारा प्रतिकर सिविल न्यायालय में वसूल किया जा सकता है ;
(ग) उस दशा में, जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के, या ऐसे अपराध के किए जाने का दुष्प्रेरण करने के लिए दोषसिद्ध किया जाता है, उन व्यक्तियों को, जो ऐसी मृत्यु से अपने को हुई हानि के लिए दंडादिष्ट व्यक्ति से नुकसानी वसूल करने के लिए घातक दुर्घटना अधिनियम, 1855 (1855 का 13) के अधीन हकदार हैं, प्रतिकर देने में किया जाए ;
(घ) जब कोई व्यक्ति, किसी अपराध के लिए, जिसके अन्तर्गत चोरी, आपराधिक दुर्विनियोग, आपराधिक न्यासभंग या छल भी है, या चुराई हुई संपत्ति को उस दशा में जब वह यह जानता है या उसको यह विश्वास करने का कारण है कि वह चुराई हुई है, बेईमानी से प्राप्त करने या रखे रखने के लिए या उसके व्ययन में स्वेच्छया सहायता करने के लिए, दोषसिद्ध किया जाए, तब ऐसी संपत्ति के सद्भावपूर्ण क्रेता को, ऐसी संपत्ति उसके हकदार व्यक्ति के कब्जे में लौटा दी जाने की दशा में उसकी हानि के लिए, प्रतिकर देने में किया जाए ।
(2) यदि जुर्माना ऐसे मामले में किया जाता है जो अपीलनीय है, तो ऐसा कोई संदाय, अपील उपस्थित करने के लिए अनुज्ञात अवधि के बीत जाने से पहले, या यदि अपील उपस्थित की जाती है तो उसके विनिश्चय के पूर्व, नहीं किया जाएगा ।
(3) जब न्यायालय ऐसा दंड अधिरोपित करता है जिसका भाग जुर्माना नहीं है तब न्यायालय निर्णय पारित करते समय, अभियुक्त व्यक्ति को यह आदेश दे सकता है कि उस कार्य के कारण जिसके लिए उसे ऐसा दंडादेश दिया गया है, जिस व्यक्ति को कोई हानि या क्षति उठानी पड़ी है, उसे वह प्रतिकर के रूप में इतनी रकम दे जितनी आदेश में विनिर्दिष्ट है ।
(4) इस धारा के अधीन आदेश, अपील न्यायालय द्वारा या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी किया जा सकेगा जब वह अपनी पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग कर रहा हो ।
(5) उसी मामले से संबंधित किसी पश्चात्वर्ती सिविल वाद में प्रतिकर अधिनिर्णीत करते समय न्यायालय ऐसी किसी राशि को, जो इस धारा के अधीन प्रतिकर के रूप में दी गई है या वसूल की गई है, हिसाब में लेगा ।
[357क. पीड़ित प्रतिकर स्कीम-(1) प्रत्येक राज्य सरकार केंद्रीय सरकार के सहयोग से ऐसे पीड़ित या उसके आश्रितों को, जिन्हें अपराध के परिणामस्वरूप हानि या क्षति हुई है और जिन्हें पुनर्वास की आवश्यकता है, प्रतिकर के प्रयोजन के लिए निधियां उपलब्ध कराने के लिए एक स्कीम तैयार करेगी ।
(2) जब कभी न्यायालय द्वारा प्रतिकर के लिए सिफारिश की जाती है, तब, यथास्थिति, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण उपधारा (1) में निर्दिष्ट स्कीम के अधीन दिए जाने वाले प्रतिकर की मात्रा का विनिश्चय करेगा ।
(3) यदि विचारण न्यायालय का, विचारण की समाप्ति पर, यह समाधान हो जाता है कि धारा 357 के अधीन अधिनिर्णीत प्रतिकर ऐसे पुनर्वास के लिए पर्याप्त नहीं है या जहां मामले दोषमुक्ति या उन्मोचन में समाप्त होते हैं और पीड़ित को पुनर्वासित करना है, वहां वह प्रतिकर के लिए सिफारिश कर सकेगा ।
(4) जहां अपराधी का पता नहीं लग पाता है या उसकी पहचान नहीं हो पाती है किंतु पीड़ित की पहचान हो जाती है और जहां कोई विचारण नहीं होता है, वहां पीड़ित या उसके आश्रित प्रतिकर दिए जाने के लिए राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण को आवेदन कर सकेंगे ।
(5) उपधारा (4) के अधीन ऐसी सिफारिशें या आवेदन प्राप्त होने पर, राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, सम्यक् जांच करने के पश्चात्, दो मास के भीतर जांच पूरी करके पर्याप्त प्रतिकर अधिनिर्णीत करेगा ।
(6) यथास्थिति, राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण पीड़ित की यातना को कम करने के लिए, पुलिस थाने के भारसाधक से अन्यून पंक्ति के पुलिस अधिकारी या संबद्ध क्षेत्र के मजिस्ट्रेट के प्रमाणपत्र पर प्राथमिक चिकित्सा सुविधा या चिकित्सा प्रसुविधाएं उपलब्ध कराने या कोई अन्य अंतरिम अनुतोष दिलाने, जिसे समुचित प्राधिकरण ठीक समझे, के लिए तुरंत आदेश कर सकेगा ।]
[357ख. प्रतिकर का भारतीय दंड संहिता की धारा 326क या धारा 376घ के अधीन के जुर्माने के अतिरिक्त होना-धारा 357क के अधीन राज्य सरकार द्वारा संदेय प्रतिकर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 326क या धारा 376घ के अधीन पीड़िता को जुर्माने का संदाय किए जाने के अतिरिक्त होगा ।
357ग. पीड़ितों का उपचार-सभी लोक या प्राइवेट अस्पताल, चाहे वे केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय निकायों या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा चलाए जा रहे हों, भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 326क, धारा 376, धारा 376क, धारा 376ख, धारा 376ग, धारा 376घ या धारा 376ङ के अधीन आने वाले किसी अपराध के पीड़ितों को तुरंत निःशुल्क प्राथमिक या चिकित्सीय उपचार उपलब्ध कराएंगे और ऐसी घटना की पुलिस को तुरन्त सूचना देंगे ।]
358. निराधार गिरफ्तार करवाए गए व्यक्तियों को प्रतिकर-(1) जब कभी कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को पुलिस अधिकारी से गिरफ्तार कराता है, तब यदि उस मजिस्ट्रेट को, जिसके द्वारा वह मामला सुना जाता है यह प्रतीत होता है कि ऐसी गिरफ्तारी कराने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं था तो, वह मजिस्ट्रेट अधिनिर्णय दे सकता है कि ऐसे गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को इस संबंध में उसके समय की हानि और व्यय के लिए [एक हजार रुपए] से अनधिक इतना प्रतिकर जितना मजिस्ट्रेट ठीक समझे, गिरफ्तार कराने वाले व्यक्ति द्वारा दिया जाएगा ।
(2) ऐसे मामलों में यदि एक से अधिक व्यक्ति गिरफ्तार किए जाते हैं तो मजिस्ट्रेट उनमें से प्रत्येक के लिए उसी रीति से 3[एक हजार रुपए] से अनधिक उतना प्रतिकर अधिनिर्णीत कर सकेगा, जितना ऐसा मजिस्ट्रेट ठीक समझे ।
(3) इस धारा के अधीन अधिनिर्णीत समस्त प्रतिकर ऐसे वसूल किया जा सकता है मानो वह जुर्माना है और यदि वह ऐसे वसूल नहीं किया जा सकता तो उस व्यक्ति को, जिसके द्वारा वह संदेय है, तीस दिन से अनधिक की इतनी अवधि के लिए, जितनी मजिस्ट्रेट निदिष्ट करे, सादे कारावास का दंडादेश दिया जाएगा जब तक कि ऐसी राशि उससे पहले न दे दी जाए ।
359. असंज्ञेय मामलों में खर्चा देने के लिए आदेश-(1) जब कभी किसी असंज्ञेय अपराध का कोई परिवाद न्यायालय में किया जाता है तब, यदि न्यायालय अभियुक्त को दोषसिद्ध कर देता है तो, वह अभियुक्त पर अधिरोपित शास्ति के अतिरिक्त उसे यह आदेश दे सकता है कि वह परिवादी को अभियोजन में उसके द्वारा किए गए खर्चे पूर्णतः या अंशतः दे और यह अतिरिक्त आदेश दे सकता है कि उसे देने में व्यतिक्रम करने पर अभियुक्त तीस दिन से अनधिक की अवधि के लिए सादा कारावास भोगेगा और ऐसे खर्चों के अन्तर्गत आदेशिका फीस, साक्षियों और प्लीडरों की फीस की बाबत किए गए कोई व्यय भी हो सकेंगे जिन्हें न्यायालय उचित समझे ।
(2) इस धारा के अधीन आदेश किसी अपील न्यायालय द्वारा, या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी किया जा सकेगा जब वह अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग कर रहा हो ।
360. सदाचरण की परिवीक्षा पर या भर्त्सना के पश्चात् छोड़ देने का आदेश-(1) जब कोई व्यक्ति जो इक्कीस वर्ष से कम आयु का नहीं है केवल जुर्माने से या सात वर्ष या उससे कम अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है अथवा जब कोई व्यक्ति जो इक्कीस वर्ष से कम आयु का है या कोई स्त्री ऐसे अपराध के लिए, जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं है, दोषसिद्ध की जाती है और अपराधी के विरुद्ध कोई पूर्व दोषसिद्धि साबित नहीं की गई है तब, यदि उस न्यायालय को, जिसके समक्ष उसे दोषसिद्ध किया गया है, अपराधी की आयु, शील या पूर्ववृत्त को और उन परिस्थितियों को, जिनमें अपराध किया गया, ध्यान में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि अपराधी को सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़ देना समीचीन है तो न्यायालय उसे तुरन्त कोई दंडादेश देने के बजाय निदेश दे सकता है कि उसे प्रतिभुओं सहित या रहित उसके द्वारा यह बंधपत्र लिख देने पर छोड़ दिया जाए कि वह (तीन वर्ष से अनधिक) इतनी अवधि के दौरान, जितनी न्यायालय निदिष्ट करे, बुलाए जाने पर हाजिर होगा और दंडादेश पाएगा और इस बीच परिशांति कायम रखेगा और सदाचारी बना रहेगा :
परन्तु जहां कोई प्रथम अपराधी किसी द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा, जो उच्च न्यायालय द्वारा विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है, दोषसिद्ध किया जाता है और मजिस्ट्रेट की यह राय है कि इस धारा द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए वहां वह उस भाव की अपनी राय अभिलिखित करेगा और प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को वह कार्यवाही निवेदित करेगा और उस अभियुक्त को उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा अथवा उसकी उस मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिरी के लिए जमानत लेगा और वह मजिस्ट्रेट उस मामले का निपटारा उपधारा (2) द्वारा उपबंधित रीति से करेगा ।
(2) जहां कोई कार्यवाही प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को उपधारा (1) द्वारा उपबंधित रूप में निवेदित की गई है, वहां ऐसा मजिस्ट्रेट उस पर ऐसा दंडादेश या आदेश दे सकता है जैसा यदि मामला मूलतः उसके द्वारा सुना गया होता तो वह दे सकता और यदि वह किसी प्रश्न पर अतिरिक्त जांच या अतिरिक्त साक्ष्य आवश्यक समझता है तो वह स्वयं ऐसी जांच कर सकता है या ऐसा साक्ष्य ले सकता है अथवा ऐसी जांच किए जाने या ऐसा साक्ष्य लिए जाने का निदेश दे सकता है ।
(3) किसी ऐसी दशा में, जिसमें कोई व्यक्ति चोरी, किसी भवन में चोरी, बेईमानी से दुर्विनियोग, छल या भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अधीन दो वर्ष से अनधिक के कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए या केवल जुर्माने से दंडनीय किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है और उसके विरुद्ध कोई पूर्व दोषसिद्धि साबित नहीं की गई है, यदि वह न्यायालय, जिसके समक्ष वह ऐसे दोषसिद्ध किया गया है, ठीक समझे, तो वह अपराधी की आयु, शील, पूर्ववृत्त या शारीरिक या मानसिक दशा को और अपराध की तुच्छ प्रकृति को, या किन्हीं परिशमनकारी परिस्थितियों को, जिनमें अपराध किया गया था, ध्यान में रखते हुए उसे कोई दंडादेश देने के बजाय सम्यक् भर्त्सना के पश्चात् छोड़ सकता है ।
(4) इस धारा के अधीन आदेश किसी अपील न्यायालय द्वारा या उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा भी किया जा सकेगा जब वह अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग कर रहा हो ।
(5) जब किसी अपराधी के बारे में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया है तब उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय, उस दशा में जब उस न्यायालय में अपील करने का अधिकार है, अपील किए जाने पर, या अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करते हुए, ऐसे आदेश को अपास्त कर सकता है और ऐसे अपराधी को उसके बदले में विधि के अनुसार दंडादेश दे सकता है :
परन्तु उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय इस उपधारा के अधीन उस दंड से अधिक दंड न देगा जो उस न्यायालय द्वारा दिया जा सकता था जिसके द्वारा अपराधी दोषसिद्ध किया गया था ।
(6) धारा 121, 124 और 373 के उपबंध इस धारा के उपबंधों के अनुसरण में पेश किए गए प्रतिभुओं के बारे में जहां तक हो सके, लागू होंगे ।
(7) किसी अपराधी के उपधारा (1) के अधीन छोड़े जाने का निदेश देने के पूर्व न्यायालय अपना समाधान कर लेगा कि उस अपराधी का, या उसके प्रतिभू का (यदि कोई हो) कोई नियत वास स्थान या नियमित उपजीविका उस स्थान में है जिसके संबंध में वह न्यायालय कार्य करता है या जिसमें अपराधी के उस अवधि के दौरान रहने की सम्भाव्यता है, जो शर्तों के पालन के लिए उल्लिखित की गई है ।
(8) यदि उस न्यायालय का, जिसने अपराधी को दोषसिद्ध किया है, या उस न्यायालय का, जो अपराधी के संबंध में उसके मूल अपराध के बारे में कार्यवाही कर सकता था, समाधान हो जाता है कि अपराधी अपने मुचलके की शर्तों में से किसी का पालन करने में असफल रहा है तो वह उसके पकड़े जाने के लिए वारण्ट जारी कर सकता है ।
(9) जब कोई अपराधी ऐसे किसी वारण्ट पर पकड़ा जाता है तब वह वारण्ट जारी करने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष तत्काल लाया जाएगा और वह न्यायालय या तो तब तक के लिए उसे अभिरक्षा में रखे जाने के लिए प्रतिप्रेषित कर सकता है जब तक मामले में सुनवाई न हो, या इस शर्त पर कि वह दंडादेश के लिए हाजिर होगा, पर्याप्त प्रतिभूति लेकर जमानत मंजूर कर सकता है और ऐसा न्यायालय मामले की सुनवाई के पश्चात् दंडादेश दे सकता है ।
(10) इस धारा की कोई बात, अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 (1958 का 20) या बालक अधिनियम, 1960 (1960 का 60) या किशोर अपराधियों के उपचार, प्रशिक्षण या सुधार से संबंधित तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों पर प्रभाव न डालेगी ।
361. कुछ मामलों में विशेष कारणों का अभिलिखित किया जाना-जहां किसी मामले में न्यायालय,-
(क) किसी अभियुक्त व्यक्ति के संबंध में कार्रवाई धारा 360 के अधीन या अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 (1958 का 20) के उपबंधों के अधीन कर सकता था ; या
(ख) किसी किशोर अपराधी के संबंध में कार्रवाई, बालक अधिनियम, 1960 (1960 का 60) के अधीन या किशोर अपराधियों के उपचार, प्रशिक्षण या सुधार से संबंधित तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन कर सकता था,
किन्तु उसने ऐसा नहीं किया है वहां वह ऐसा न करने के विशेष कारण अपने निर्णय में अभिलिखित करेगा ।
362. न्यायालय का अपने निर्णय में परिवर्तन न करना-इस संहिता या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा जैसा उपबंधित है उसके सिवाय कोई न्यायालय जब उसने किसी मामले को निपटाने के लिए अपने निर्णय या अंतिम आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए हैं तब लिपिकीय या गणितीय भूल को ठीक करने के सिवाय उसमें कोई परिवर्तन नहीं करेगा या उसका पुनर्विलोकन नहीं करेगा ।
363. अभियुक्त और अन्य व्यक्तियों को निर्णय की प्रति का दिया जाना-(1) जब अभियुक्त को कारावास का दंडादेश दिया जाता है तब निर्णय के सुनाए जाने के पश्चात् निर्णय की एक प्रति उसे निःशुल्क तुरन्त दी जाएगी ।
(2) अभियुक्त के आवेदन पर, निर्णय की एक प्रमाणित प्रति या जब वह चाहे तब, यदि संभव है तो उसकी भाषा में या न्यायालय की भाषा में उसका अनुवाद, अविलंब उसे दिया जाएगा और जहां निर्णय की अभियुक्त द्वारा अपील हो सकती है वहां प्रत्येक दशा में ऐसी प्रति निःशुल्क दी जाएगी :
परन्तु जहां मृत्यु का दंडादेश उच्च न्यायालय द्वारा पारित या पुष्ट किया जाता है वहां निर्णय की प्रमाणित प्रति अभियुक्त को तुरन्त निःशुल्क दी जाएगी चाहे वह उसके लिए आवेदन करे या न करे ।
(3) उपधारा (2) के उपबंध धारा 117 के अधीन आदेश के संबंध में उसी प्रकार लागू होंगे जैसे वे उस निर्णय के संबंध में लागू होते हैं जिसकी अभियुक्त अपील कर सकता है ।
(4) जब अभियुक्त को किसी न्यायालय द्वारा मृत्यु दंडादेश दिया जाता है और ऐसे निर्णय से साधिकार अपील होती है तो न्यायालय उसे उस अवधि की जानकारी देगा जिसके भीतर यदि वह चाहे तो अपील कर सकता है ।
(5) उपधारा (2) में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय किसी दांडिक न्यायालय द्वारा पारित निर्णय या आदेश द्वारा प्रभावित व्यक्ति को, इस निमित्त आवेदन करने पर और विहित प्रभार देने पर ऐसे निर्णय या आदेश की या किसी अभिसाक्ष्य की या अभिलेख के अन्य भाग की प्रति दी जाएगी :
परन्तु यदि न्यायालय किन्हीं विशेष कारणों से ठीक समझता है तो उसे वह निःशुल्क भी दे सकता है ।
(6) उच्च न्यायालय नियमों द्वारा उपबंध कर सकता है कि किसी दांडिक न्यायालय के किसी निर्णय या आदेश की प्रतियां ऐसे व्यक्ति को, जो निर्णय या आदेश द्वारा प्रभावित न हो उस व्यक्ति द्वारा ऐसी फीस दिए जाने पर और ऐसी शर्तों के अधीन दे दी जाएं जो उच्च न्यायालय ऐसे नियमों द्वारा उपबंधित करे ।
364. निर्णय का अनुवाद कब किया जाएगा-मूल निर्णय कार्यवाही के अभिलेख में फाइल किया जाएगा और जहां मूल निर्णय ऐसी भाषा में अभिलिखित किया गया है जो न्यायालय की भाषा से भिन्न है और अभियुक्त अपेक्षा करता है तो न्यायालय की भाषा में उसका अनुवाद अभिलेख में जोड़ दिया जाएगा ।
365. सेशन न्यायालय द्वारा निष्कर्ष और दंडादेश की प्रति जिला मजिस्ट्रेट को भेजना-ऐसे मामलों में, जिनका विचारण सेशन न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया है, यथास्थिति, न्यायालय या मजिस्ट्रेट अपने निष्कर्ष और दंडादेश की (यदि कोई हो) एक प्रति उस जिला मजिस्ट्रेट को भेजेगा जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर विचारण किया गया है ।
अध्याय 28
मृत्यु दंडादेशों का पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया जाना
366. सेशन न्यायालय द्वारा मृत्यु दंडादेश का पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया जाना-(1) जब सेशन न्यायालय मृत्यु दंडादेश देता है तब कार्यवाही उच्च न्यायालय को प्रस्तुत की जाएगी और दंडादेश तब तक निष्पादित न किया जाएगा जब तक वह उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट न कर दिया जाए ।
(2) दंडोदश पारित करने वाला न्यायालय वारंट के अधीन दोषसिद्ध व्यक्ति को जेल की अभिरक्षा के लिए सुपुर्द करेगा ।
367. अतिरिक्त जांच किए जाने के लिए या अतिरिक्त साक्ष्य लिए जाने के लिए निदेश देने की शक्ति-(1) यदि ऐसी कार्यवाही के प्रस्तुत किए जाने पर उच्च न्यायालय यह ठीक समझता है कि दोषसिद्ध व्यक्ति के दोषी या निर्दोष होने से संबंधित किसी प्रश्न पर अतिरिक्त जांच की जाए या अतिरिक्त साक्ष्य लिया जाए तो वह स्वयं ऐसी जांच कर सकता है या ऐसा साक्ष्य ले सकता है या सेशन न्यायालय द्वारा उसके किए जाने या लिए जाने का निदेश दे सकता है ।
(2) जब तक उच्च न्यायालय अन्यथा निदेश न दे, दोषसिद्ध व्यक्ति को, जांच किए जाने या साक्ष्य लिए जाने के समय उपस्थित होने से, अभिमुक्ति दी जा सकती है ।
(3) जब जांच या साक्ष्य (यदि कोई हो) उच्च न्यायालय द्वारा नहीं की गई है या नहीं लिया गया है तब ऐसी जांच या साक्ष्य का परिणाम प्रमाणित करके उस न्यायालय को भेजा जाएगा ।
368. दंडादेश को पुष्ट करने या दोषसिद्धि को बातिल करने की उच्च न्यायालय की शक्ति-उच्च न्यायालय धारा 366 के अधीन प्रस्तुत किसी मामले में,-
(क) दंडादेश की पुष्टि कर सकता है या विधि द्वारा समर्थित कोई अन्य दंडादेश दे सकता है ; अथवा
(ख) दोषसिद्धि को बातिल कर सकता है और अभियुक्त को किसी ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध कर सकता है जिसके लिए सेशन न्यायालय उसे दोषसिद्ध कर सकता था, या उसी या संशोधित आरोप पर नए विचारण का आदेश दे सकता है ; अथवा
(ग) अभियुक्त व्यक्ति को दोषमुक्त कर सकता है :
परन्तु पुष्टि का कोई आदेश इस धारा के अधीन तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक अपील करने के लिए अनुज्ञात अवधि समाप्त न हो गई हो या यदि ऐसी अवधि के अन्दर अपील पेश कर दी गई है तो जब तक उस अपील का निपटारा न हो गया हो ।
369. नए दंडादेश को पुष्टि का दो न्यायाधीशों द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना-इस प्रकार प्रस्तुत प्रत्येक मामले में उच्च न्यायालय द्वारा दंडादेश का पुष्टिकरण या उसके द्वारा पारित कोई नया दंडादेश, या आदेश, यदि ऐसे न्यायालय में दो या अधिक न्यायाधीश हों तो, उनमें से कम से कम दो न्यायाधीशों द्वारा किया, पारित किया और हस्ताक्षरित किया जाएगा ।
370. मतभेद की दशा में प्रक्रिया-जहां कोई ऐसा मामला न्यायाधीशों के न्यायपीठ के समक्ष सुना जाता है और ऐसे न्यायाधीश राय के बारे में समान रूप से विभाजित हैं वहां मामला धारा 392 द्वारा उपबंधित रीति से विनिश्चित किया जाएगा ।
371. उच्च न्यायालय की पुष्टि के लिए प्रस्तुत मामलों में प्रक्रिया-मृत्यु दंडादेश की पुष्टि के लिए उच्च न्यायालय को सेशन न्यायालय द्वारा प्रस्तुत मामलों में उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि के आदेश या अन्य आदेश के दिए जाने के पश्चात् उच्च न्यायालय का समुचित अधिकारी विलंब के बिना, आदेश की प्रतिलिपि उच्च न्यायालय की मुद्रा लगाकर और अपने पदीय हस्ताक्षरों से अनुप्रमाणित करके सेशन न्यायालय को भेजेगा ।
अध्याय 29
अपीलें
372. जब तक अन्यथा उपबंधित न हो किसी अपील का न होना-दंड न्यायालय के किसी निर्णय या आदेश से कोई अपील इस संहिता द्वारा या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा जैसा उपबंधित हो उसके सिवाय न होगी :
[परंतु पीड़ित को न्यायालय द्वारा पारित अभियुक्त को दोषमुक्त करने वाले या कम अपराध के लिए दोषसिद्ध करने वाले या अपर्याप्त प्रतिकर अधिरोपित करने वाले आदेश के विरुद्ध अपील करने का अधिकार होगा और ऐसी अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें ऐसे न्यायालय की दोषसिद्धि के आदेश के विरुद्ध मामूली तौर पर अपील होती है ।]
373. परिशान्ति कायम रखने या सदाचार के लिए प्रतिभूति अपेक्षित करने वाले या प्रतिभू स्वीकार करने से इंकार करने वाले या अस्वीकार करने वाले आदेश से अपील-कोई व्यक्ति,-
(i) जिसे परिशान्ति कायम रखने या सदाचार के लिए प्रतिभूति देने के लिए धारा 117 के अधीन आदेश दिया गया है, अथवा
(ii) जो धारा 121 के अधीन प्रतिभू स्वीकार करने से इंकार करने या उसे अस्वीकार करने वाले किसी आदेश से व्यथित है,
सेशन न्यायालय में ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील कर सकता है :
परन्तु इस धारा की कोई बात उन व्यक्तियों को लागू नहीं होगी जिनके विरुद्ध कार्यवाही सेशन न्यायाधीश के समक्ष धारा 122 की उपधारा (2) या उपधारा (4) के उपबंधों के अनुसार रखी गई है ।
374. दोषसिद्धि से अपील-(1) कोई व्यक्ति जो उच्च न्यायालय द्वारा असाधारण आरंभिक दांडिक अधिकारिता के प्रयोग में किए गए विचारण में दोषसिद्ध किया गया है, उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है ।
(2) कोई व्यक्ति जो सेशन न्यायाधीश या अपर सेशन न्यायाधीश द्वारा किए गए विचारण में या किसी अन्य न्यायालय द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्ध किया गया है, जिसमें सात वर्ष से अधिक के कारावास का दंडादेश [उसके विरुद्ध या उसी विचारण में दोषसिद्ध किए गए किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध दिया गया हैट उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है ।
(3) उपधारा (2) में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय, कोई व्यक्ति,-
(क) जो महानगर मजिस्ट्रेट या सहायक सेशन न्यायाधीश या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट या द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्ध किया गया है, अथवा
(ख) जो धारा 325 के अधीन दंडादिष्ट किया गया है, अथवा
(ग) जिसके बारे में किसी मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 360 के अधीन आदेश दिया गया है या दंडादेश पारित किया गया है,
सेशन न्यायालय में अपील कर सकता है ।
375. कुछ मामलों में जब अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करे, अपील न होना-धारा 374 में किसी बात के होते हुए भी, जहां अभियुक्त व्यक्ति ने दोषी होने का अभिवचन किया है, और ऐसे अभिवचन पर वह दोषसिद्ध किया गया है वहां,-
(क) यदि दोषसिद्धि उच्च न्यायालय द्वारा की गई है, तो कोई अपील नहीं होगी, अथवा
(ख) यदि दोषसिद्धि सेशन न्यायालय, महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट या द्वितीय मजिस्ट्रेट द्वारा की गई है तो अपील, दंड के परिणाम या उसकी वैधता के बारे में ही हो सकेगी, अन्यथा नहीं ।
376. छोटे मामलों में अपील न होना-धारा 374 में किसी बात के होते हुए भी, दोषसिद्ध व्यक्ति द्वारा कोई अपील निम्नलिखित में से किसी मामले में न होगी, अर्थात् :-
(क) जहां उच्च न्यायालय केवल छह मास से अनधिक की अवधि के कारावास का या एक हजार रुपए से अनधिक जुर्माने का अथवा ऐसे कारावास और जुर्माने दोनों का, दंडादेश पारित करता है ;
(ख) जहां सेशन न्यायालय या महानगर मजिस्ट्रेट केवल तीन मास से अनधिक की अवधि के कारावास का या दो सौ रुपए से अनधिक जुर्माने का अथवा ऐसे कारावास और जुर्माने दोनों का, दंडादेश पारित करता है ;
(ग) जहां प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट केवल एक सौ रुपए से अनधिक जुर्माने का दंडादेश पारित करता है ; अथवा
(घ) जहां संक्षेपतः विचारित किसी मामले में, धारा 260 के अधीन कार्य करने के लिए सशक्त मजिस्ट्रेट केवल दो सौ रुपए से अनधिक जुर्माने का दंडादेश पारित करता है :
परन्तु यदि ऐसे किसी दंडादेश के साथ कोई अन्य दंड मिला दिया गया है तो ऐसे दंडादेश के विरुद्ध अपील की जा सकती है किन्तु वह केवल इस आधार पर अपीलनीय न हो जाएगा कि-
(i) दोषसिद्ध व्यक्ति को परिशान्ति कायम रखने के लिए प्रतिभूति देने का आदेश दिया गया है ; अथवा
(ii) जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर कारावास के निदेश को दंडादेश में सम्मिलित किया गया है ; अथवा
(iii) उस मामले में जुर्माने का एक से अधिक दंडादेश पारित किया गया है, यदि अधिरोपित जुर्माने की कुल रकम उस मामले की बाबत इसमें इसके पूर्व विनिर्दिष्ट रकम से अधिक नहीं है ।
377. राज्य सरकार द्वारा दंडादेश के विरुद्ध अपील-(1) उपधारा (2) में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्धि के किसी मामले में लोक अभियोजक को दंडादेश की [अपर्याप्तता के आधार पर उसके विरुद्ध-
(क) सेशन न्यायालय में, यदि दंडादेश किसी मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया जाता है ; और
(ख) उच्च न्यायालय में, यदि दंडादेश किसी अन्य न्यायालय द्वारा पारित किया जाता है,
अपील प्रस्तुत करने का निदेश दे सकती है ।]
(2) यदि ऐसी दोषसिद्धि किसी ऐसे मामले में है जिसमें अपराध का अन्वेषण दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (1946 का 25) के अधीन गठित दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन द्वारा या इस संहिता से भिन्न किसी केन्द्रीय अधिनियम के अधीन अपराध का अन्वेषण करने के लिए सशक्त किसी अन्य अभिकरण द्वारा किया गया है तो [केन्द्रीय सरकार भी] लोक अभियोजक को दंडादेश की [अपर्याप्तता के आधार पर उसके विरुद्ध-
(क) सेशन न्यायालय में, यदि दंडादेश किसी मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया जाता है ; और
(ख) उच्च न्यायालय में, यदि दंडादेश किसी अन्य न्यायालय द्वारा पारित किया जाता है,
अपील प्रस्तुत करने का निदेश दे सकती है ।]
(3) जब दंडादेश के विरुद्ध अपर्याप्तता के आधार पर अपील की गई है तब [यथास्थिति, सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालयट उस दंडादेश में वृद्धि तब तक नहीं करेगा जब तक कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण दर्शित करने का युक्तियुक्त अवसर नहीं दे दिया गया है और कारण दर्शित करते समय अभियुक्त अपनी दोषमुक्ति के लिए या दंडादेश में कमी करने के लिए अभिवचन कर सकता है ।
378. दोषमुक्ति की दशा में अपील-(1) [(1) उपधारा (2) में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय और उपधारा (3) और उपधारा (5) के उपबंधों के अधीन रहते हुए,-
(क) जिला मजिस्ट्रेट, किसी मामले में, लोक अभियोजक को किसी संज्ञेय और अजमानतीय अपराध की बाबत किसी मजिस्ट्रेट द्वारा पारित दोषमुक्ति के आदेश से सेशन न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने का निदेश दे सकेगा ;
(ख) राज्य सरकार, किसी मामले में लोक अभियोजक को उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा पारित दोषमुक्ति के मूल या अपीली आदेश से [जो खंड (क) के अधीन आदेश नहीं हैट या पुनरीक्षण में सेशन न्यायालय द्वारा पारित दोषमुक्ति के आदेश से उच्च न्यायालय में,
अपील प्रस्तुत करने का निदेश दे सकेगी ।]
(2) यदि ऐसा दोषमुक्ति का आदेश किसी ऐसे मामले में पारित किया जाता है जिसमें अपराध का अन्वेषण दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (1946 का 25) के अधीन गठित दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन द्वारा या इस संहिता से भिन्न किसी केन्द्रीय अधिनियम के अधीन अपराध का अन्वेषण करने के लिए सशक्त किसी अन्य अभिकरण द्वारा किया गया है तो [केन्द्रीय सरकार उपधारा (3) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, लोक अभियोजक को-
(क) दोषमुक्ति के ऐसे आदेश से, जो संज्ञेय और अजमानतीय अपराध की बाबत किसी मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया गया है सेशन न्यायालय में ;
(ख) दोषमुक्ति के ऐसे मूल या अपीली आदेश से, जो किसी उच्च न्यायालय से भिन्न किसी न्यायालय द्वारा पारित किया गया है [जो खंड (क) के अधीन आदेश नहीं हैट या दोषमुक्ति के ऐसे आदेश से, जो पुनरीक्षण में सेशन न्यायालय द्वारा पारित किया गया है, उच्च न्यायालय में,
अपील प्रस्तुत करने का निदेश दे सकती है ।]
(3) उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन [उच्च न्यायालय को कोई अपीलट उच्च न्यायालय की इजाजत के बिना ग्रहण नहीं की जाएगी ।
(4) यदि दोषमुक्ति का ऐसा आदेश परिवाद पर संस्थित किसी मामले में पारित किया गया है और उच्च न्यायालय, परिवादी द्वारा उससे इस निमित्त आवेदन किए जाने पर, दोषमुक्ति के आदेश की अपील करने की विशेष इजाजत देता है तो परिवादी ऐसी अपील उच्च न्यायालय में उपस्थित कर सकता है ।
(5) दोषमुक्ति के आदेश से अपील करने की विशेष इजाजत दिए जाने के लिए उपधारा (4) के अधीन कोई आवेदन उच्च न्यायालय द्वारा, उस दशा में जिसमें परिवादी लोक सेवक है उस दोषमुक्ति के आदेश की तारीख से संगणित, छह मास की समाप्ति के पश्चात् और प्रत्येक अन्य दशा में ऐसे संगणित साठ दिन की समाप्ति के पश्चात् ग्रहण नहीं किया जाएगा ।
(6) यदि किसी मामले में दोषमुक्ति के आदेश से अपील करने की विशेष इजाजत दिए जाने के लिए उपधारा (4) के अधीन कोई आवेदन नामंजूर किया जाता है तो उस दोषमुक्ति के आदेश से उपधारा (1) के अधीन या उपधारा (2) के अधीन कोई अपील नहीं होगी ।
379. कुछ मामलों में उच्च न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किए जाने के विरुद्ध अपील-यदि उच्च न्यायालय ने अभियुक्त व्यक्ति को दोषमुक्ति के आदेश को अपील में उलट दिया है और उसे दोषसिद्ध किया है तथा उसे मृत्यु या आजीवन कारावास या दस वर्ष अथवा अधिक की अवधि के कारावास का दंड दिया है तो वह उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है ।
380. कुछ मामलों में अपील करने का विशेष अधिकार-इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, जब एक से अधिक व्यक्ति एक ही विचारण में दोषसिद्ध किए जाते हैं, और ऐसे व्यक्तियों में से किसी के बारे में अपीलनीय निर्णय या आदेश पारित किया गया है तब ऐसे विचारण में दोषसिद्ध किए गए सब व्यक्तियों को या उनमें से किसी को भी अपील का अधिकार होगा ।
381. सेशन न्यायालय में की गई अपीलें कैसे सुनी जाएंगी-(1) उपधारा (2) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, सेशन न्यायालय में या सेशन न्यायाधीश को की गई अपील सेशन न्यायाधीश या अपर सेशन न्यायाधीश द्वारा सुनी जाएगी :
परन्तु द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा किए गए विचारण में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील सहायक सेशन न्यायाधीश या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा सुनी जा सकेगी और निपटाई जा सकेगी ।
(2) अपर सेशन न्यायाधीश, सहायक सेशन न्यायाधीश या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट केवल ऐसी अपीलें सुनेगा जिन्हें खंड का सेशन न्यायाधीश, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, उसके हवाले करे या जिन्हें सुनने के लिए उच्च न्यायालय, विशेष आदेश द्वारा, उसे निदेश दे ।
382. अपील की अर्जी-प्रत्येक अपील अपीलार्थी या उसके प्लीडर द्वारा उपस्थित की गई लिखित अर्जी के रूप में की जाएगी, और प्रत्येक ऐसी अर्जी के साथ (जब तक वह न्यायालय जिसमें वह उपस्थित की जाए अन्यथा निदेश न दे) उस निर्णय या आदेश की प्रतिलिपि होगी जिसके विरुद्ध अपील की जा रही है ।
383. जब अपीलार्थी जेल में है तब प्रक्रिया-यदि अपीलार्थी जेल में है तो वह अपनी अपील की अर्जी और उसके साथ वाली प्रतिलिपियों को जेल के भारसाधक अधिकारी को दे सकता है, जो तब ऐसी अर्जी और प्रतिलिपियां समुचित अपील न्यायालय को भेजेगा ।
384. अपील का संक्षेपतः खारिज किया जाना-(1) यदि धारा 382 या धारा 383 के अधीन प्राप्त अपील की अर्जी और निर्णय की प्रतिलिपि की परीक्षा करने पर अपील न्यायालय का यह विचार है कि हस्तक्षेप करने का कोई पर्याप्त आधार नहीं है तो वह अपील को संक्षेपतः खारिज कर सकता है :
परन्तु-
(क) धारा 382 के अधीन उपस्थित की गई कोई अपील तब तक खारिज न की जाएगी जब तक अपीलार्थी या उसके प्लीडर को उसके समर्थन में सुने जाने का उचित अवसर न मिल चुका हो ;
(ख) धारा 383 के अधीन कोई अपील उसके समर्थन में अपीलार्थी को सुनवाई का उचित अवसर दिए बिना खारिज नहीं की जाएगी, जब तक अपील न्यायालय का यह विचार न हो कि अपील तुच्छ है या न्यायालय के समक्ष अभियुक्त को अभिरक्षा में पेश करने से मामले की परिस्थितियों के अनुपात में कहीं अधिक असुविधा होगी ;
(ग) धारा 383 के अधीन उपस्थित की गई कोई अपील तब तक संक्षेपतः खारिज न की जाएगी जब तक ऐसी अपील करने के लिए अनुज्ञात अवधि का अवसान न हो चुका हो ।
(2) किसी अपील को इस धारा के अधीन खारिज करने के पूर्व न्यायालय मामले के अभिलेख मंगा सकता है ।
(3) जहां इस धारा के अधीन अपील खारिज करने वाला अपील न्यायालय, सेशन न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय है वहां वह ऐसा करने के अपने कारण अभिलिखित करेगा ।
(4) जहां धारा 383 के अधीन उपस्थित की गई कोई अपील इस धारा के अधीन संक्षेपतः खारिज कर दी जाती है और अपील न्यायालय का यह निष्कर्ष है कि उसी अपीलार्थी की ओर से धारा 382 के अधीन सम्यक् रूप से उपस्थित की गई अपील की अन्य अर्जी पर उसके द्वारा विचार नहीं किया गया है वहां, धारा 393 में किसी बात के होते हुए भी, यदि उस न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा करना न्याय के हित में आवश्यक है तो वह ऐसी अपील विधि के अनुसार सुन सकता है और उसका निपटारा कर सकता है ।
385. संक्षेपतः खारिज न की गई अपीलों की सुनवाई के लिए प्रक्रिया-(1) यदि अपील न्यायालय अपील को संक्षेपतः खारिज नहीं करता है तो वह उस समय और स्थान की, जब और जहां ऐसी अपील सुनी जाएगी, सूचना-
(i) अपीलार्थी या उसके प्लीडर को ;
(ii) ऐसे अधिकारी को, जिसे राज्य सरकार इस निमित्त नियुक्त करे ;
(iii) यदि परिवाद पर संस्थित मामले में दोषसिद्धि के निर्णय के विरुद्ध अपील की गई है, तो परिवादी को ;
(iv) यदि अपील धारा 377 या धारा 378 के अधीन की गई है तो अभियुक्त को,
दिलवाएगा और ऐसे अधिकारी, परिवादी और अभियुक्त को अपील के आधारों की प्रतिलिपि भी देगा ।
(2) यदि अपील न्यायालय में मामले का अभिलेख, पहले से ही उपलभ्य नहीं है तो वह न्यायालय ऐसा अभिलेख मंगाएगा और पक्षकारों को सुनेगा :
परन्तु यदि अपील केवल दंड के परिमाण या उसकी वैधता के बारे में है तो न्यायालय अभिलेख मंगाए बिना ही अपील का निपटारा कर सकता है ।
(3) जहां दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील का आधार केवल दंडादेश की अभिकथित कठोरता है वहां अपीलार्थी न्यायालय की इजाजत के बिना अन्य किसी आधार के समर्थन में न तो कहेगा और न उसे उसके समर्थन में सुना ही जाएगा ।
386. अपील न्यायालय की शक्तियां-ऐसे अभिलेख के परिशीलन और यदि अपीलार्थी या उसका प्लीडर हाजिर है तो उसे तथा यदि लोक अभियोजक हाजिर है तो उसे और धारा 377 या धारा 378 के अधीन अपील की दशा में यदि अभियुक्त हाजिर है तो उसे सुनने के पश्चात्, अपील न्यायालय उस दशा में जिसमें उसका यह विचार है कि हस्तक्षेप करने का पर्याप्त आधार नहीं है अपील को खारिज कर सकता है, अथवा,-
(क) दोषमुक्ति के आदेश से अपील में ऐसे आदेश को उलट सकता है और निदेश दे सकता है कि अतिरिक्त जांच की जाए अथवा अभियुक्त, यथास्थिति, पुनः विचारित किया जाए या विचारार्थ सुपुर्द किया जाए, अथवा उसे दोषी ठहरा सकता है और उसे विधि के अनुसार दंडादेश दे सकता है ;
(ख) दोषसिद्धि से अपील में,-
(i) निष्कर्ष और दंडादेश को उलट सकता है और अभियुक्त को दोषमुक्त या उन्मोचित कर सकता है या ऐसे अपील न्यायालय के अधीनस्थ सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा उसके पुनः विचारित किए जाने का या विचारणार्थ सुपुर्द किए जाने का आदेश दे सकता है, अथवा
(ii) दंडादेश को कायम रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है, अथवा
(iii) निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप या परिमाण में अथवा स्वरूप और परिमाण में परिवर्तन कर सकता है, किन्तु इस प्रकार नहीं कि उससे दंड में वृद्धि हो जाए ;
(ग) दंडादेश की वृद्धि के लिए अपील में,-
(i) निष्कर्ष और दंडादेश को उलट सकता है और अभियुक्त को दोषमुक्त या उन्मोचित कर सकता है या ऐसे अपराध का विचारण करने के लिए सक्षम न्यायालय द्वारा उसका पुनर्विचारण करने का आदेश दे सकता है, या
(ii) दंडादेश को कायम रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है, या
(iii) निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना, दंड के स्वरूप या परिमाण में अथवा स्वरूप और परिमाण में परिवर्तन कर सकता है जिससे उसमें वृद्धि या कमी हो जाए ;
(घ) किसी अन्य आदेश से अपील में ऐसे आदेश को परिवर्तित कर सकता है या उलट सकता है ;
(ङ) कोई संशोधन या कोई पारिणामिक या आनुषंगिक आदेश, जो न्यायसंगत या उचित हो, कर सकता है :
परन्तु दंड में तब तक वृद्धि नहीं की जाएगी जब तक अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण दर्शित करने का अवसर न मिल चुका हो :
परन्तु यह और कि अपील न्यायालय उस अपराध के लिए, जिसे उसकी राय में अभियुक्त ने किया है उससे अधिक दंड नहीं देगा, जो अपीलाधीन आदेश या दंडादेश पारित करने वाले न्यायालय द्वारा ऐसे अपराध के लिए दिया जा सकता था ।
387. अधीनस्थ अपील न्यायालय के निर्णय-आरंभिक अधिकारिता वाले दंड न्यायालय के निर्णय के बारे में अध्याय 27 में अन्तर्विष्ट नियम, जहां तक साध्य हो, सेशन न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय के अपील में दिए गए निर्णय को लागू होंगे :
परन्तु निर्णय दिया जाना सुनने के लिए अभियुक्त न तो लाया जाएगा और न उससे हाजिर होने की अपेक्षा की जाएगी जब तक कि अपील न्यायालय अन्यथा निदेश न दे ।
388. अपील में उच्च न्यायालय के आदेश का प्रमाणित करके निचले न्यायालय को भेजा जाना-(1) जब कभी अपील में कोई मामला उच्च न्यायालय द्वारा इस अध्याय के अधीन विनिश्चित किया जाता है तब वह अपना निर्णय या आदेश प्रमाणित करके उस न्यायालय को भेजेगा जिसके द्वारा वह निष्कर्ष, दंडादेश या आदेश, जिसके विरुद्ध अपील की गई थी अभिलिखित किया गया या पारित किया गया था और यदि ऐसा न्यायालय मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से भिन्न न्यायिक मजिस्ट्रेट का है तो उच्च न्यायालय का निर्णय या आदेश मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की मार्फत भेजा जाएगा ; और यदि ऐसा न्यायालय कार्यपालक मजिस्ट्रेट का है तो उच्च न्यायालय का निर्णय या आदेश जिला मजिस्ट्रेट की मार्फत भेजा जाएगा ।
(2) तब वह न्यायालय, जिसे उच्च न्यायालय अपना निर्णय या आदेश प्रमाणित करके भेजे ऐसे आदेश करेगा जो उच्च न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुरूप हों ; और यदि आवश्यक हो तो अभिलेख में तद्नुसार संशोधन कर दिया जाएगा ।
389. अपील लंबित रहने तक दंडादेश का निलम्बन, अपीलार्थी का जमानत पर छोड़ा जाना-(1) अपील न्यायालय, ऐसे कारणों से, जो उसके द्वारा अभिलिखित किए जाएंगे, आदेश दे सकता है कि उस दंडादेश या आदेश का निष्पादन, जिसके विरुद्ध अपील की गई है, दोषसिद्ध व्यक्ति द्वारा की गई अपील के लंबित रहने तक निलंबित किया जाए और यदि वह व्यक्ति परिरोध में है तो यह भी आदेश दे सकता है कि उसे जमानत पर या उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया जाए :
[परन्तु अपील न्यायालय ऐसे दोषसिद्ध व्यक्ति को, जो मृत्यु या आजीवन कारावास या दस वर्ष से अन्यून अवधि के कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया गया है, जमानत पर या उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ने से पूर्व, लोक अभियोजक को ऐसे छोड़ने के विरुद्ध लिखित में कारण दर्शाने का अवसर देगा :
परन्तु यह और कि ऐसे मामलों में, जहां किसी दोषसिद्ध व्यक्ति को जमानत पर छोड़ा जाता है वहां लोक अभियोजक जमानत रद्द किए जाने के लिए आवेदन फाइल कर सकेगा ।]
(2) अपील न्यायालय को इस धारा द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उच्च न्यायालय भी किसी ऐसी अपील के मामले में कर सकता है जो किसी दोषसिद्ध व्यक्ति द्वारा उसके अधीनस्थ न्यायालय में की गई है ।
(3) जहां दोषसिद्ध व्यक्ति ऐसे न्यायालय का जिसके द्वारा वह दोषसिद्ध किया गया है यह समाधान कर देता है कि वह अपील प्रस्तुत करना चाहता है वहां वह न्यायालय,-
(i) उस दशा में जब ऐसा व्यक्ति, जमानत पर होते हुए, तीन वर्ष से अनधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडादिष्ट किया गया है, या
(ii) उस दशा में जब वह अपराध, जिसके लिए ऐसा व्यक्ति दोषसिद्ध किया गया है, जमानतीय है और वह जमानत पर है,
यह आदेश देगा कि दोषसिद्ध व्यक्ति को इतनी अवधि के लिए जितनी से अपील प्रस्तुत करने और उपधारा (1) के अधीन अपील न्यायालय के आदेश प्राप्त करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा जमानत पर छोड़ दिया जाए जब तक कि जमानत से इंकार करने के विशेष कारण न हों और जब तक वह ऐसे जमानत पर छूटा रहता है तब तक कारावास का दंडादेश निलम्बित समझा जाएगा ।
(4) जब अंततोगत्वा अपीलार्थी को किसी अवधि के कारावास या आजीवन कारावास का दंडादेश दिया जाता है, तब वह समय, जिसके दौरान वह ऐसे छूटा रहता है, उस अवधि की संगणना करने में, जिसके लिए उसे ऐसा दंडादेश दिया गया है, हिसाब में नहीं लिया जाएगा ।
390. दोषमुक्ति से अपील में अभियुक्त की गिरफ्तारी-जब धारा 378 के अधीन अपील उपस्थित की जाती है तब उच्च न्यायालय वारण्ट जारी कर सकता है जिसमें यह निदेश होगा कि अभियुक्त गिरफ्तार किया जाए और उसके या किसी अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष लाया जाए, और वह न्यायालय जिसके समक्ष अभियुक्त लाया जाता है, अपील का निपटारा होने तक उसे कारागार को सुपुर्द कर सकता है या उसकी जमानत ले सकता है ।
391. अपील न्यायालय अतिरिक्त साक्ष्य ले सकेगा या उसके लिए जाने का निदेश दे सकेगा-(1) इस अध्याय के अधीन किसी अपील पर विचार करने में यदि अपील न्यायालय अतिरिक्त साक्ष्य आवश्यक समझता है तो वह अपने कारणों को अभिलिखित करेगा और ऐसा साक्ष्य या तो स्वयं ले सकता है या मजिस्ट्रेट द्वारा, या जब अपील न्यायालय उच्च न्यायालय है तब सेशन न्यायालय या मजिस्ट्रेट द्वारा, लिए जाने का निदेश दे सकता है ।
(2) जब अतिरिक्त साक्ष्य सेशन न्यायालय या मजिस्ट्रेट द्वारा ले लिया जाता है तब वह ऐसा साक्ष्य प्रमाणित करके अपील न्यायालय को भेजेगा और तब ऐसा न्यायालय अपील निपटाने के लिए अग्रसर होगा ।
(3) अभियुक्त या उसके प्लीडर को उस समय उपस्थित होने का अधिकार होगा जब अतिरिक्त साक्ष्य लिया जाता है ।
(4) इस धारा के अधीन साक्ष्य का लिया जाना अध्याय 23 के उपबंधों के अधीन होगा मानो वह कोई जांच हो ।
392. जहां अपील न्यायालय के न्यायाधीश राय के बारे में समान रूप में विभाजित हों, वहां प्रक्रिया-जब इस अध्याय के अधीन अपील उच्च न्यायालय द्वारा उसके न्यायाधीशों के न्यायपीठ के समक्ष सुनी जाती है और वे राय में समान रूप से विभाजित हैं तब अपील उनकी रायों के सहित उसी न्यायालय के किसी अन्य न्यायाधीश के समक्ष रखी जाएगी और ऐसा न्यायाधीश, ऐसी सुनवाई के पश्चात्, जैसी वह ठीक समझे, अपनी राय देगा और निर्णय या आदेश ऐसी राय के अनुसार होगा :
परन्तु यदि न्यायपीठ गठित करने वाले न्यायाधीशों में से कोई एक न्यायाधीश या जहां अपील इस धारा के अधीन किसी अन्य न्यायाधीश के समक्ष रखी जाती है वहां वह न्यायाधीश अपेक्षा करे तो अपील, न्यायाधीशों के वृहत्तर न्यायपीठ द्वारा पुनः सुनी जाएगी और विनिश्चित की जाएगी ।
393. अपील पर आदेशों और निर्णयों का अंतिम होना-अपील में अपील न्यायालय द्वारा पारित निर्णय या आदेश धारा 377, धारा 378, धारा 384 की उपधारा (4) या अध्याय 30 में उपबंधित दशाओं के सिवाय अंतिम होंगे :
परन्तु किसी मामले में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील का अंतिम निपटारा हो जाने पर भी, अपील न्यायालय-
(क) धारा 378 के अधीन दोषमुक्ति के विरुद्ध उसी मामले से पैदा होने वाली अपील को ; अथवा
(ख) धारा 377 के अधीन दंडादेश में वृद्धि के लिए उसी मामले से पैदा होने वाली अपील को,
सुन सकता है और गुणागुण के आधार पर उसका निपटारा कर सकता है ।
394. अपीलों का उपशमन-(1) धारा 377 या धारा 378 के अधीन प्रत्येक अन्य अपील का अभियुक्त की मृत्यु पर अंतिम रूप से उपशमन हो जाएगा ।
(2) इस अध्याय के अधीन (जुर्माने के दंडादेश की अपील के सिवाय) प्रत्येक अन्य अपील का अपीलार्थी की मृत्यु पर अंतिम रूप से उपशमन हो जाएगा :
परन्तु जहां अपील, दोषसिद्धि और मृत्यु के या कारावास के दंडादेश के विरुद्ध है और अपील के लंबित रहने के दौरान अपीलार्थी की मृत्यु हो जाती है वहां उसका कोई भी निकट नातेदार, अपीलार्थी की मृत्यु के तीस दिन के अन्दर अपील जारी रखने की इजाजत के लिए अपील न्यायालय में आवेदन कर सकता है ; और यदि इजाजत दे दी जाती है तो अपील का उपशमन न होगा ।
स्पष्टीकरण-इस धारा में निकट नातेदार" से माता-पिता, पति या पत्नी, पारंपरिक वंशज, भाई या बहन अभिप्रेत है ।
अध्याय 30
निर्देश और पुनरीक्षण
395. उच्च न्यायालय को निर्देश-(1) जहां किसी न्यायालय का समाधान हो जाता है कि उसके समक्ष लंबित मामले में किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम की अथवा किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम में अन्तर्विष्ट किसी उपबंध की विधिमान्यता के बारे में ऐसा प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है, जिसका अवधारण उस मामले को निपटाने के लिए आवश्यक है, और उसकी यह राय है कि ऐसा अधिनियम, अध्यादेश, विनियम या उपबंध अविधिमान्य या अप्रवर्तनशील है किन्तु उस उच्च न्यायालय द्वारा, जिसके वह न्यायालय अधीनस्थ है, या उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसा घोषित नहीं किया गया है वहां न्यायालय अपनी राय और उसके कारणों को उल्लिखित करते हुए मामले का कथन तैयार करेगा और उसे उच्च न्यायालय के विनिश्चय के लिए निर्देशित करेगा ।
स्पष्टीकरण-इस धारा में विनियम" से साधारण खंड अधिनियम, 1897 (1897 का 10) में या किसी राज्य के साधारण खंड अधिनियम में यथापरिभाषित कोई विनियम अभिप्रेत है ।
(2) यदि सेशन न्यायालय या महानगर मजिस्ट्रेट अपने समक्ष लंबित किसी मामले में, जिसे उपधारा (1) के उपबंध लागू नहीं होते हैं, ठीक समझता है तो वह, ऐसे मामले की सुनवाई में उठने वाले किसी विधि-प्रश्न को उच्च न्यायालय के विनिश्चय के लिए निर्देशित कर सकता है ।
(3) कोई न्यायालय, जो उच्च न्यायालय को उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन निर्देश करता है, उस पर उच्च न्यायालय का विनिश्चय होने तक, अभियुक्त को जेल को सुपुर्द कर सकता है या अपेक्षा किए जाने पर हाजिर होने के लिए जमानत पर छोड़ सकता है ।
396. उच्च न्यायालय के विनिश्चय के अनुसार मामले का निपटारा-(1) जब कोई प्रश्न ऐसे निर्देशित किया जाता है तब उच्च न्यायालय उस पर ऐसा आदेश पारित करेगा जैसा वह ठीक समझे और उस आदेश की प्रतिलिपि उस न्यायालय को भिजवाएगा जिसके द्वारा वह निर्देश किया गया था और वह न्यायालय उस मामले को उक्त आदेश के अनुरूप निपटाएगा ।
(2) उच्च न्यायालय निर्देश दे सकता है कि ऐसे निर्देश का खर्चा कौन देगा ।
397. पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए अभिलेख मंगाना-(1) उच्च न्यायालय या कोई सेशन न्यायाधीश अपनी स्थानीय अधिकारिता के अन्दर स्थित किसी अवर दंड न्यायालय के समक्ष की किसी कार्यवाही के अभिलेख को, किसी अभिलिखित या पारित किए गए निष्कर्ष, दंडादेश या आदेश की शुद्धता, वैधता या औचित्य के बारे में और ऐसे अवर न्यायालय की किन्हीं कार्यवाहियों की नियमितता के बारे में अपना समाधान करने के प्रयोजन से, मंगा सकता है और उसकी परीक्षा कर सकता है और ऐसा अभिलेख मंगाते समय निदेश दे सकता है कि अभिलेख की परीक्षा लंबित रहने तक किसी दंडादेश का निष्पादन निलंबित किया जाए और यदि अभियुक्त परिरोध में है तो उसे जमानत पर या उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया जाए ।
स्पष्टीकरण-सभी मजिस्ट्रेट, चाहे वे कार्यपालक हों या न्यायिक और चाहे वे आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग कर रहे हों, या अपीली अधिकारिता का, इस उपधारा के और धारा 398 के प्रयोजनों के लिए सेशन न्यायाधीश से अवर समझे जाएंगे ।
(2) उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग किसी अपील, जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में पारित किसी अंतर्वर्ती आदेश की बाबत नहीं किया जाएगा ।
(3) यदि किसी व्यक्ति द्वारा इस धारा के अधीन आवेदन या तो उच्च न्यायालय को या सेशन न्यायाधीश को किया गया है तो उसी व्यक्ति द्वारा कोई और आवेदन उनमें से दूसरे के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाएगा ।
398. जांच करने का आदेश देने की शक्ति-किसी अभिलेख की धारा 397 के अधीन परीक्षा करने पर या अन्यथा उच्च न्यायालय या सेशन न्यायाधीश, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को निदेश दे सकता है कि वह, ऐसे किसी परिवाद की, जो धारा 203 या धारा 204 की उपधारा (4) के अधीन खारिज कर दिया गया है, या किसी अपराध के अभियुक्त ऐसे व्यक्ति के मामले की, जो उन्मोचित कर दिया गया है, अतिरिक्त जांच स्वयं करे या अपने अधीनस्थ मजिस्ट्रेटों में से किसी के द्वारा कराए तथा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ऐसी अतिरिक्त जांच स्वयं कर सकता है या उसे करने के लिए अपने किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को निदेश दे सकता है :
परन्तु कोई न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति के मामले में, जो उन्मोचित कर दिया गया है, इस धारा के अधीन जांच करने का कोई निदेश तभी देगा जब इस बात का कारण दर्शित करने के लिए कि ऐसा निदेश क्यों नहीं दिया जाना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को अवसर मिल चुका हो ।
399. सेशन न्यायाधीश की पुनरीक्षण की शक्तियां-(1) ऐसी किसी कार्यवाही के मामले में जिसका अभिलेख सेशन न्यायाधीश ने स्वयं मंगवाया है, वह उन सभी या किन्हीं शक्तियों का प्रयोग कर सकता है जिनका प्रयोग धारा 401 की उपधारा (1) के अधीन उच्च न्यायालय कर सकता है ।
(2) जहां सेशन न्यायाधीश के समक्ष पुनरीक्षण के रूप में कोई कार्यवाही उपधारा (1) के अधीन प्रारंभ की गई है वहां धारा 401 की उपधारा (2), (3), (4) और (5) के उपबंध, जहां तक हो सके, ऐसी कार्यवाही को लागू होंगे और उक्त उपधाराओं में उच्च न्यायालय के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे सेशन न्यायाधीश के प्रति निर्देश हैं ।
(3) जहां किसी व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से पुनरीक्षण के लिए आवेदन सेशन न्यायाधीश के समक्ष किया जाता है वहां ऐसे व्यक्ति के संबंध में उस बाबत सेशन न्यायाधीश का विनिश्चय अन्तिम होगा और ऐसे व्यक्ति की प्रेरणा पर पुनरीक्षण के रूप में और कार्यवाही उच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय द्वारा ग्रहण नहीं की जाएगी ।
400. अपर सेशन न्यायाधीश की शक्ति-अपर सेशन न्यायाधीश को किसी ऐसे मामले के बारे में, जो सेशन न्यायाधीश के किसी साधारण या विशेष आदेश के द्वारा या अधीन उसे अंतरित किया जाता है, सेशन न्यायाधीश की इस अध्याय के अधीन सब शक्तियां प्राप्त होंगी और वह उनका प्रयोग कर सकता है ।
401. उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण की शक्तियां-(1) ऐसी किसी कार्यवाही के मामले में, जिसका अभिलेख उच्च न्यायालय ने स्वयं मंगवाया है या जिसकी उसे अन्यथा जानकारी हुई है, वह धारा 386, 389, 390 और 391 द्वारा अपील न्यायालय को या धारा 307 द्वारा सेशन न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों में से किसी का स्वविवेकानुसार प्रयोग कर सकता है और जब वे न्यायाधीश, जो पुनरीक्षण न्यायालय में पीठासीन हैं, राय में समान रूप से विभाजित हैं तब मामले का निपटारा धारा 392 द्वारा उपबंधित रीति से किया जाएगा ।
(2) इस धारा के अधीन कोई आदेश, जो अभियुक्त या अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, तब तक न किया जाएगा जब तक उसे अपनी प्रतिरक्षा में या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा सुने जाने का अवसर न मिल चुका हो ।
(3) इस धारा की कोई बात उच्च न्यायालय को दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि के निष्कर्ष में संपरिवर्तित करने के लिए प्राधिकृत करने वाली न समझी जाएगी ।
(4) जहां इस संहिता के अधीन अपील हो सकती है किन्तु कोई अपील की नहीं जाती है वहां उस पक्षकार की प्रेरणा पर, जो अपील कर सकता था, पुनरीक्षण की कोई कार्यवाही ग्रहण न की जाएगी ।
(5) जहां इस संहिता के अधीन अपील होती है किन्तु उच्च न्यायालय को किसी व्यक्ति द्वारा पुनरीक्षण के लिए आवेदन किया गया है और उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा आवेदन इस गलत विश्वास के आधार पर किया गया था कि उससे कोई अपील नहीं होती है और न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है तो उच्च न्यायालय पुनरीक्षण के लिए आवेदन को अपील की अर्जी मान सकता है और उस पर तद्नुसार कार्यवाही कर सकता है ।
402. उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण के मामलों को वापस लेने या अन्तरित करने की शक्ति-(1) जब एक ही विचारण में दोषसिद्ध एक या अधिक व्यक्ति पुनरीक्षण के लिए आवेदन उच्च न्यायालय को करते हैं और उसी विचारण में दोषसिद्ध कोई अन्य व्यक्ति पुनरीक्षण के लिए आवेदन सेशन न्यायाधीश को करता है तब उच्च न्यायालय, पक्षकारों की सुविधा और अन्तर्ग्रस्त प्रश्नों के महत्व को ध्यान में रखते हुए यह विनिश्चय करेगा कि उन दोनों में से कौन सा न्यायालय पुनरीक्षण के लिए आवेदनों को अंतिम रूप से निपटाएगा और जब उच्च न्यायालय यह विनिश्चय करता है कि पुनरीक्षण के लिए सभी आवेदन उसी के द्वारा निपटाए जाने चाहिएं तब उच्च न्यायालय यह निदेश देगा कि सेशन न्यायाधीश के समक्ष लंबित पुनरीक्षण के लिए आवेदन उसे अन्तरित कर दिए जाएं और जहां उच्च न्यायालय यह विनिश्चय करता है कि पुनरीक्षण के आवेदन उसके द्वारा निपटाए जाने आवश्यक नहीं हैं वहां वह यह निदेश देगा कि उसे किए गए पुनरीक्षण के लिए आवेदन सेशन न्यायाधीश को अन्तरित किए जाएं ।
(2) जब कभी पुनरीक्षण के लिए आवेदन उच्च न्यायालय को अन्तरित किया जाता है तब वह न्यायालय उसे इस प्रकार निपटाएगा मानो वह उसके समक्ष सम्यक्तः किया गया आवेदन है ।
(3) जब कभी पुनरीक्षण के लिए आवेदन सेशन न्यायाधीश को अन्तरित किया जाता है तब वह न्यायाधीश उसे इस प्रकार निपटाएगा मानो वह उसके समक्ष सम्यक्तः किया गया आवेदन है ।
(4) जहां पुनरीक्षण के लिए आवेदन उच्च न्यायालय द्वारा सेशन न्यायाधीश को अन्तरित किया जाता है वहां उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों की प्रेरणा पर जिनके पुनरीक्षण के लिए आवेदन सेशन न्यायाधीश द्वारा निपटाए गए हैं पुनरीक्षण के लिए कोई और आवेदन उच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय में नहीं होगा ।
403. पक्षकारों को सुनने का न्यायालय का विकल्प-इस संहिता में अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय, जो न्यायालय अपनी पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग कर रहा है उसके समक्ष स्वयं या प्लीडर द्वारा सुने जाने का अधिकार किसी भी पक्षकार को नहीं है ; किन्तु यदि न्यायालय ठीक समझता है तो वह ऐसी शक्तियों का प्रयोग करते समय किसी पक्षकार को स्वयं या उसके प्लीडर द्वारा सुन सकेगा ।
404. महानगर मजिस्ट्रेट के विनिश्चय के आधारों के कथन पर उच्च न्यायालय द्वारा विचार किया जाना-जब उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय द्वारा किसी महानगर मजिस्ट्रेट का अभिलेख धारा 397 के अधीन मंगाया जाता है तब वह मजिस्ट्रेट अपने विनिश्चय या आदेश के आधारों का और किन्हीं ऐसे तथ्यों का, जिन्हें वह विवाद्यक के लिए तात्त्विक समझता है, वर्णन करने वाला कथन अभिलेख के साथ भेज सकता है और न्यायालय उक्त विनिश्चय या आदेश को उलटने या अपास्त करने से पूर्व ऐसे कथन पर विचार करेगा ।
405. उच्च न्यायालय के आदेश का प्रमाणित करके निचले न्यायालय को भेजा जाना-जब उच्च न्यायालय या सेशन न्यायाधीश द्वारा कोई मामला इस अध्याय के अधीन पुनरीक्षित किया जाता है तब वह धारा 388 द्वारा उपबंधित रीति से अपना विनिश्चय या आदेश प्रमाणित करके उस न्यायालय को भेजेगा, जिसके द्वारा पुनरीक्षित निष्कर्ष, दंडादेश या आदेश अभिलिखित किया गया या पारित किया गया था, और तब वह न्यायालय, जिसे विनिश्चय या आदेश ऐसे प्रमाणित करके भेजा गया है ऐसे आदेश करेगा, जो ऐसे प्रमाणित विनिश्चय के अनुरूप है और यदि आवश्यक हो तो अभिलेख में तद्नुसार संशोधन कर दिया जाएगा ।
अध्याय 31
आपराधिक मामलों का अन्तरण
406. मामलों और अपीलों को अन्तरित करने की उच्चतम न्यायालय की शक्ति-(1) जब कभी उच्चतम न्यायालय को यह प्रतीत कराया जाता है कि न्याय के उद्देश्यों के लिए यह समीचीन है कि इस धारा के अधीन आदेश किया जाए, तब वह निदेश दे सकता है कि कोई विशिष्ट मामला या अपील एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को या एक उच्च न्यायालय के अधीनस्थ दंड न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ समान या वरिष्ठ अधिकारिता वाले दूसरे दंड न्यायालय को अन्तरित कर दी जाए ।
(2) उच्चतम न्यायालय भारत के महान्यायवादी या हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर ही इस धारा के अधीन कार्य कर सकता है और ऐसा प्रत्येक आवेदन समावेदन द्वारा किया जाएगा जो उस दशा के सिवाय, जब कि आवेदक भारत का महान्यायवादी या राज्य का महाधिवक्ता है, शपथपत्र या प्रतिज्ञान द्वारा समर्थित होगा ।
(3) जहां इस धारा द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने के लिए कोई आवेदन खारिज कर दिया जाता है वहां, यदि उच्चतम न्यायालय की यह राय है कि आवेदन तुच्छ या तंग करने वाला था तो वह आवेदक को आदेश दे सकता है कि वह एक हजार रुपए से अनधिक इतनी राशि, जितनी वह न्यायालय उस मामले की परिस्थितियों में समुचित समझे, प्रतिकर के तौर पर उस व्यक्ति को दे जिसने आवेदन का विरोध किया था ।
407. मामलों और अपीलों को अन्तरित करने की उच्च न्यायालय की शक्ति-(1) जब कभी उच्च न्यायालय को यह प्रतीत कराया जाता है कि-
(क) उसके अधीनस्थ किसी दंड न्यायालय में ऋजु और पक्षपातरहित जांच या विचारण न हो सकेगा ; अथवा
(ख) किसी असाधारणतः कठिन विधिप्रश्न के उठने की संभाव्यता है ; अथवा
(ग) इस धारा के अधीन आदेश इस संहिता के किसी उपबंध द्वारा अपेक्षित है, या पक्षकारों या साक्षियों के लिए साधारणतः सुविधाप्रद होगा, या न्याय के उद्देश्यों के लिए समीचीन है,
तब वह आदेश दे सकेगा कि-
(i) किसी अपराध की जांच या विचारण ऐसे किसी न्यायालय द्वारा किया जाए जो धारा 177 से 185 तक के (जिनके अन्तर्गत ये दोनों धाराएं भी हैं) अधीन तो अर्हित नहीं है किन्तु ऐसे अपराध की जांच या विचारण करने के लिए अन्यथा सक्षम है ;
(ii) कोई विशिष्ट मामला या अपील या मामलों या अपीलों का वर्ग उसके प्राधिकार के अधीनस्थ किसी दंड न्यायालय से ऐसे समान वरिष्ठ अधिकारिता वाले किसी अन्य दंड न्यायालय को अंतरित कर दिया जाए ;
(iii) कोई विशिष्ट मामला सेशन न्यायालय को विचारणार्थ सुपुर्द कर दिया जाए ; अथवा
(iv) कोई विशिष्ट मामला या अपील स्वयं उसको अन्तरित कर दी जाए, और उसका विचारण उसके समक्ष किया जाए ।
(2) उच्च न्यायालय निचले न्यायालय की रिपोर्ट पर, या हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर या स्वप्रेरणा पर कार्यवाही कर सकता है :
परन्तु किसी मामले को एक ही सेशन खंड के एक दंड न्यायालय से दूसरे दंड न्यायालय को अन्तरित करने !!
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