भाग 4 : राज्य नीति के निदेशक तत्व
-:राज्य नीति के निदेशक तत्व:-
नीति-निर्देशक तत्वों का वर्णन संविधान के चौथे भाग में किया गया है।
ये तत्व शासन व्यवस्था के मूल आधार हैं। ये तत्व हमारे संविधान की प्रतिज्ञाओं और आकांक्षाओं को वाणी प्रदान करते हैं। इस प्रकार ये सिद्धांत देश के प्रशासकों के लिए एक आचार संहिता है। राष्ट्र की प्रभुसत्ता के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य करते समय उन्हें इन निदेशक सिद्धांतों का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि ये उन आदशों को प्रतिष्ठापित करते हैं जो भारत के राज्य का आधार हैं। निदेशक सिद्धांत कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को दिए गए ऐसे निर्देश हैं, जिनके अनुसार उन्हें अपने और उचित रूप से पालन हो।
नीति-निर्देशक सिद्धांतों का प्रयोजन शांतिपूर्ण तरीकों से सामाजिक क्रांति का पथ-प्रशस्त कर कुछ सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को तत्काल सिद्ध करना है। इन आधारभूत सिद्धांतों का उद्देश्य कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। सामूहिक रूप से ये सिद्धांत भारत में आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र की रचना करते हैं। निदेशक सिद्धांतों का वास्तविक महत्व इस बात का है कि ये नागरिकों के प्रति राज्य के दायित्व के द्योतक हैं। संविधान की प्रस्तावना में जिन आदशों की प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया है, ये उन आदशों की ओर बढ़ने के लिए मार्ग-प्रशस्त करते हैं।
नीति-निदेशक सिद्धांतों का अवलोकन
अनुच्छेद 36 से लेकर 51 तक के सोलह अनुच्छेदों में निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन है, जो निम्नलिखित हैं-
अनुच्छेद 36-37: अनुच्छेद 36 में राज्य शब्द को परिभाषित किया गया है। अनुच्छेद 37 घोषणा करता है कि- निदेशक तत्व देश के शासन के मूलाधिकार हैं और निश्चय ही विधि बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। ये सिद्धांत किसी न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं होंगे। अभिप्राय यह कि न्यायपालिका राज्य की निर्देशक तत्वों के अंतर्गत किसी कर्तव्य को निभाने के लिए विवश नहीं कर सकती।
अनुच्छेद-38: राज्य लोक-कल्याण की सुरक्षा और अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा।
अनुच्छेद-39: राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से –
- सभी पुरुषों तथा स्त्रियों को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो।
- समुदाय की भौतिक संपदा का स्वामित्व तथा नियंत्रण इस प्रकार विभाजित हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो।
- आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि धन और उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो।
- पुरुषों और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो।
- पुरुषों तथा स्त्रियों के स्वास्थ्य और शक्ति का और बच्चों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो। आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु तथा शक्ति के अनुकूल न हो और बच्चों तथा युवाओं को शोषण से बचाया जाए।
अनुच्छेद-39क: राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक व्यवस्था इस तरह से काम करे कि न्याय समान अवसर के आधार पर सुलभ हो। इस उद्देश्य के लिए राज्य उपयुक्त विधान या योजना द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा, ताकि कोई नागरिक आर्थिक या अन्य किसी नियोग्यता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए।
अनुच्छेद 40: राज्य ग्राम पंचायतों को स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में संगठित करेगा।
अनुच्छेद-41: राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर,काम पाने, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा।
अनुच्छेद-42: राज्य काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए प्रसूति सहायता के लिए उपबंध करेगा।
अनुच्छेद-43: राज्य जनता के लिए काम, निर्वाह, मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर, अवकाश तथा सामाजिक तथा सांस्कृतिक अवसर प्रदान करने का प्रयास करेगा। राज्य कुटीर उद्योगों की उन्नति के लिए विशेष ध्यान देगा।
अनुच्छेद-43क: राज्य उपयुक्त विधान अथवा अन्य किसी रीति से किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, संस्थाओं या अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मकारों की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाएगा।
अनुच्छेद 43ख: राज्य सहकारी समितियों के स्वैच्छिक संगठन, स्वायत्त कार्यकरण, लोकतांत्रिक नियंत्रण तथा पेशेवर प्रबंधन को बढ़ाने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 44: राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता लागू कराने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 45: 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 45 को संशोधित किया गया है। मौलिक कर्तव्यों से संबद्ध इस संशोधन के अनुसार राज्य अभिभावकों से यह अपेक्षा करता है कि वे अपने बच्चों को छह वर्ष की आयु तक प्रारम्भिक बाल्य सुरक्षा व शिक्षा प्रदान करने का प्रयत्न करेंगे।
अनुच्छेद 46: राज्यजनता के दुर्बल वर्गों के, विशेषकर अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा।
अनुच्छेद 47: राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार तथा मादक द्रव्यों और हानिकर औषधियों का निषेध करेगा।
अनुच्छेद 48: राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा। गायों, बछड़ों, दूध देने वाले तथा वाहक शत्रुओं की रक्षा तथा नस्लों के परिरक्षण औरसुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए उचित कदम उठाएगा।
अनुच्छेद 48क: राज्य देश के पर्यावरण की संरक्षा तथा उसमें सुधार करने का और वन एवं वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 49: राज्य ऐतिहासिक तथा राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों की रक्षा करेगा।
अनुच्छेद 50: राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करेगा।
अनुच्छेद 51: राज्य
- अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का,
- राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का,
- संगठित लोगों के एक-दूसरे से व्यवहारों में अंतरराष्ट्रीय विधि और संधि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का, तथा;
- अंतरराष्ट्रीय विवादों की मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा।
सामूहिक रूप से यह सिद्धांत भारत के लोकतांत्रिक प्रशासन का शिलान्यास करते हैं। निदेशक सिद्धांत नागरिकों के प्रति राज्य के कर्तव्यों के प्रतीक हैं। वास्तव में राज्य के ये दायित्व क्रांतिकारी सिद्धांत हैं, परंतु इनकी प्राप्ति का ढंग संवैधानिक है।
राज्य के नीतिनिदेशक सिद्धांतों के माध्यम से भारतीय संविधान, वैयक्तिक स्वतंत्रता के लिए घातक, श्रमजीवियों की तानाशाही और जनता की आर्थिक सुरक्षा में अवरोध पैदा करने वाले पूंजीवादी अल्पतंत्र इन दोनों चरम सीमाओं में संतुलन स्थापित करता है।
निदेशक तत्वों का वर्गीकरण | ||
गांधीवादी | समाजवादी | उदार लोकतांत्रिक |
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