समान नागरिक संहिता

-:समान नागरिक संहिता:-

 

1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ, तब से लेकर आज तक समान नागरिक संहिता को लागू किए जाने के मुद्दे पर हमेशा वाद-विवाद होता रहा है। संविधान सभा के सदस्यों में इस संहिता को लेकर व्यापक विचार-विमर्श हुआ था और उसके अधिकांश सदस्यों ने इसको लागू किए जाने का विरोध किया था। इसलिए, संविधान में समान नागरिक संहिता को लागू नहीं किया गया।

संविधान के भाग-4 में वर्णित राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में ऐसी व्यवस्था दी गयी है कि राज्य सभी नागरिकों के लिए एक समान संहिता का निर्माण कर सकता है। मौलिक अधिकारों के अंतर्गत भाग-3 के अनुच्छेद 14 में यह उपबंध है कि राज्य (सरकार) भारतीय संघ के अंदर रहने वाले किसी भी नागरिक के साथ जाति, मूलवंश, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। परन्तु, भारत सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से इतना विभक्त है कि हर अलग-अलग धर्म या जाति के लोग एक समान नागरिक संहिता को मानने को तैयार नहीं हैं। वे संविधान लागू होने के पूर्व जो अपनी अलग-अलग संहिता अपनाए हुए थे, आज भी उसी संहिता को मानते हैं। वे अपनी-अपनी धार्मिक और जातिगत संहिताओं को ही मान्यता प्रदान करते हैं।

समान नागरिक संहिता पर विचार-विमर्श करते समय इस मुद्दे पर चर्चा आवश्यक है कि आखिर इसकी आवश्यकता क्या है? समान नागरिक संहिता की आवश्यकता इसलिए है कि किसी देश में नागरिक-नागरिक से भेद करना ठीक नहीं। जिस प्रकार सम्पूर्ण दंड की एक समान व्यवस्था के लिए भारतीय दंड संहिता का निर्माण किया गया, ठीक उसी प्रकार एक समान नागरिक संहिता की स्थापना भी अत्यावश्यक है।

1996 के आम चुनावों के बाद जब संयुक्त मोर्चा सरकार सत्ता में आई, तब उसने समान नागरिक संहिता लागू करने की घोषणा की। उसने जितनी आसानी से इसकी घोषणा कर दी, इसे लागू करना उतना आसान नहीं है क्योंकि, भारत में समान नागरिक संहिता का सबसे बड़ा विरोध इस्लामी मतावलम्बियों द्वारा किया जा रहा है। उनका कहना है कि वे एक समान नागरिक संहिता को नहीं मानेंगे और उनकी अपनी जो संहिता है, उसी पर अमल करते रहेंगे। इस्लामिक संस्थाओं की इस संदर्भ में बैठक भी हुई, जिसमें उन्होंने यह निर्णय लिया कि देश में सबके लिए समान नागरिक संहिता लागू हो, पर हमें उसमें शामिल नहीं किया जाए। देखना यह है कि यह समान नागरिक संहिता लागू हो पाती है या नहीं और यदि होती है, तो कब?

संविधान के अन्य भागों में दिए गए नीति के निदेशक तत्व

संविधान के भाग-4 में अंतर्विष्ट निर्देशों के अतिरिक्त संविधान के अन्य भागों में राज्यों को संबोधित अन्य निदेश है। ये निदेश भी न्यायालय के निर्णयाधीन नहीं हैं।

  1. अनुच्छेद 350-क के अनुसार, प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर स्थानीय प्राधिकारी का यह कर्तव्य है कि भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के बालकों की शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करे।
  2. अनुच्छेद 351 के अनुसार, संघ का यह कर्तव्य है कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए और उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।
  3. अनुच्छेद 335 के अनुसार, संघ या राज्य के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में, अनुसूचितजातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा।

यद्यपि अनुच्छेद 335, 350-क, 351 संविधान के भाग-4 में सम्मिलित नहीं हैं किन्तु न्यायालयों द्वारा इन्हें नीति-निर्देशक सिद्धांतों की श्रेणी में संयोजित किया गया है।

नीति-निदेशक तत्वों में कुछ त्रुटियां हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे बिल्कुल व्यर्थ और महत्वहीन हैं। वास्तव में संवैधानिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से इन तत्वों का अत्यधिक महत्व है। नीति-निदेशक तत्वों को संविधान में शामिल करने के जो कारण हैं, उन्हें इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।

नीति-निदेशक तत्वों का महत्व

जन-शिक्षण की दृष्टि से महत्व ये सिद्धांत राज्य के उद्देश्यों या लक्ष्यों के बारे में जानकारी देते हैं। इन सिद्धांतों के अध्ययन से पता चलता है कि राज्य एक लोक कल्याणकारी प्रशासनिक ढांचे की स्थापना के लिए कृतसंकल्प है।

सिद्धांतों के पीछे जनमत की शक्ति यद्यपि इन सिद्धांतों को न्यायालय द्वारा क्रियान्वित नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके पीछे जनमत की सत्ता होती है, जो प्रजातंत्र का सबसे बड़ा न्यायालय है। अतः जनता के प्रति उत्तरदायी कोई भी सरकार इनकी अवहेलना का साहस नहीं कर सकती। इन निदेशक तत्वों का महत्व इस बात में है कि ये नागरिकों के प्रति राज्य के सकारात्मक दायित्व हैं ।

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